राजनीतिक इस्लाम को ख़ारिज करना समय की मांग : सान बर्नार्डिनो हत्याकांड
राजनीतिक इस्लाम को ख़ारिज करना समय की मांग : सान बर्नार्डिनो हत्याकांड
शमशाद इलाही शम्स
दो दिन पहले अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया राज्य के छोटे से कस्बे सान बर्नार्डिनो में छुट्टी मानते एक सामुदायिक केंद्र में घुस कर 14 लोगों की हत्याएं करने वाले युग्ल के इन हसीन चेहरों के पीछे छिपी भयावहता से सबको हैरान कर दिया। नाम भी कितने उम्दा सैय्यद रिज़वान फ़ारूक और उसकी बेगम तश्फीन खान, रिज़वान अमेरिका में ही पैदा हुआ, जबकि तफ्शीन पाकिस्तानी थी, जो सऊदी अरब में रहती थी. दोनों ने दो साल पहले ऑनलाइन मुलाकात के बाद शादी की थी.
ख़बरों के मुताबिक तफ्शीन से शादी के बाद जिहादी कीड़े ने मजबूती के साथ रिज़वान को काटा था, पेशे से स्वास्थ्य टेक्नीशियन था, अच्छी नौकरी, अच्छा वेतन, खूबसूरत बीवी और एक ६ महीने की बेटी का बाप और अमेरिका का निवासी, शिकागो कोई खास दूर नहीं है जहाँ ये पैदा हुआ था.
सही बात है कि शासक वर्ग धर्म को जनता की एकता तोड़ने के लिए कायदे से काम करता है और अपने निहित स्वार्थो की पूर्ति में इसका ईंधन खूब इस्तेमाल करता है लेकिन इस तर्क के आवरण में राजनीतिक इस्लाम को बख्श देना मूर्खता होगी. राजनीतिक इस्लाम कथित रूप से अपने आप में एक सम्पूर्ण व्यवस्था का नाम है, आखिर लंदन की सड़कों पर बकरमुहों की जमात "इस्लाम इज सोलुशन" अथवा "शरिया लागू करो" के नारे हवा में से नहीं आते, इसके व्यावहारिक और किताबी कारण हैं.
पश्चिमी देशों में जब मैं सर पर टोपी, मुँह पर दाढ़ी, और बुर्के देखता हूँ तो मन ही मन सिहर उठता हूँ. इसे धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर जस्टिफाई नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह व्यवहार अपने आप में एक राजनीतिक स्टेटमेंट है, खुल्लम खुल्ला, पश्चिमी समाज और मूल्यों को चुनौती देता कि देखो, हम अलग हैं, तुम से जुदा और तुम से बेहतर भी. ये कीड़े अक्सर सरकार की इमदाद के मिलने पर कायदे से बच्चे बनाते हैं, जितने बच्चे उतना अधिक मासिक वजीफा और बदले में राज्य को देते हैं सर पर टोपी और चेहरे पर बकर मुँह दाढ़ी और औरतों को बुर्खे. इन देशों में 'राज्य के अन्दर राज्य' की परिकल्पना इस्लामी समुदाय की एक बुनियादी, सूक्ष्म वैचारिक हरकत है, जिसे लोकतांत्रिक सरकारें देख ही नहीं पाती. मैं इसे वैचारिक हरामखोरी मानता हूँ, अगर आप वैचारिक हरामखोर हैं, इस जहर का थोडा बहुत असर आपके भीतर है तब आइसिस, अल कायदा जैसे परजीवी संगठन जिनका पोस्टमार्टम करने की क्षमता आप में हो ही नहीं सकती, आप इस जाल में आसानी से फंस सकते हैं.
अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसकी मध्य पूर्व एशिया में पिछले बीस सालों की विध्वंसक गतिविधियों को समझने के लिए जिस परिपक्व राजनीतिक अर्थशास्त्र की आवश्यकता होती है उसे राजनीतिक इस्लाम टाइप का चूर्ण निगल जाता है, यह ठीक वैसा ही है जैसे कैंसर के इलाज के लिए कोई नीम हकीम का नुस्खा लेकर आ जाये. जाहिर है मरीज की हालत में सुधार नहीं बल्कि परिणाम उल्टे ही होंगे.
रिज़वान और उसकी बीवी ने पिछले कई महीनों में लगातार हथियार खरीदे थे और पांच हजार से अधिक गोलियां भी खरीदी थी, बम भी बनाये थे। साफ़ जाहिर है कि इसके पीछे तैय्यारी वाला दिमाग काम कर रहा था। इस तैय्यारी के पीछे की जो वैचारिक पृष्ठभूमि है उसे चुनौती देना, उसे ख़ारिज करना और पूरे विश्व की राजनीति की व्याख्या करने वाले वैज्ञानिक दृष्टिकोण की दरकार है, इसमें असाध्य परिश्रम और बहुत दूर होती मंजिल की तरफ कदम बढ़ाने और संघर्ष करने के बजाए शहादत का दर्जा, 72 हूरों का आनंद, जन्नत जैसे शार्ट कट का अनुसरण एक स्वाभाविक दोयम दर्जे वाली वैचारिक विसंगति है।
राजनीतिक इस्लाम कैंसर रोग का जो निदान प्रस्तुत करता है वह नीम हकीमों वाला दोयम दर्जे का नुस्खा है, उसके पास कीमो थेरेपी नहीं है, उसके पास मौजूदा व्यवस्था को समझने और व्याख्या करने का माद्दा नहीं है. जो विचार किसी किताब को 1400 साल पहले अंतिम मान चुका हो, किसी व्यक्ति विशेष को अंतिम नबी मान चुका हो उसके लिए समाज की गतिशीलता, उसके अंतर्विरोध, उसकी अर्थनीति, उसके विज्ञान को कैसे परिभाषित कर सकता है ? दुनिया सतत गतिशील है, बदलाव उसका स्वाभाविक अवयव है, इस युग में भला कोई चिंतन अंतिम कैसे हो सकता है ? कोई युग पुरुष अंतिम कैसे हो सकता है ? इस वैचारिक विकलांगता को मजबूती से ख़ारिज किया जाना जरूरी है, जाहिर है यह काम पूंजीवादी साम्राज्यवादी सरकारें नहीं करेंगी, इस ऐतिहासिक कार्य को जनवादी शक्तियों को ही करना होगा. रास्ता लंबा है चुनौती भरा भी, तब तक आस पड़ोस में यूं ही आमतौर से दिखने वाले खूबसूरत चेहरों में रिज़वान फारूख और तफ्शीन खान काल्पनिक जन्नत के चक्कर में बेगुनाह लोगों की हत्याएं करते रहेंगे, ख़बरें बिकती रहेंगी, कारोबारियों के ख़जाने और भरते रहेंगे. फिलहाल मैं इन खूबसूरत चेहरों पर लानत ही भेज सकता हूँ.


