राजनीतिक सत्ता में सामाजिक सहभागिता का टूल आरक्षण
राजनीतिक सत्ता में सामाजिक सहभागिता का टूल आरक्षण
देवेन्द्र कुमार
आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बाहर निकलता दिख रहा है। इस बार इसे बाहर निकालने का श्रेय जाता है कांग्रेसी प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी को। अपने हालिया वक्तव्य में जनार्दन द्विवेदी ने इसे आर्थिक आधार पर लागू करने का सुझाव दिया है। लगे हाथ योग-संतई छोड, राजनीति में अपनी किस्मत आजमा, अपने अंह को सन्तुष्टि दे रहे बाबा राम देव ने भी इसका समर्थन कर दिया और इसके साथ ही इसके पक्ष-विपक्ष में गोलबन्दियां तेज हो गयीं।
आरक्षण विरोधियों का नया तर्क इसकी उपादेयता को ले कर है। उनका कहना है कि आरक्षण से आरक्षित जातियों का कल्याण नहीं हो रहा है। आरक्षित जातियों की आर्थिक बदहाली इससे दूर नहीं हो रही, लगे हाथ वह यह भी जोड़ रहे है कि सवर्ण जातियों में भी आर्थिक वंचना है।
निश्चित रूप से आरक्षण वंचित जातियों में आर्थिक समृद्धि नहीं ला सका और यह बात भी सच है कि सवर्ण जातियों में भी आर्थिक वंचना है। पर सवाल यह है कि क्या आरक्षण गरीबी- फटेहाली दूर करने का संवैधानिक उपकरण है। क्या यह विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों की तरह गरीबी उन्मूलन का एक कार्यक्रम है। क्या इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रख कर बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने इसे सामने लाया था। आरक्षण तो राजनीतिक सत्ता में सामाजिक सहभागिता को सुनिश्चित करने का उपकरण भर है, इसे विशेष अवसर का सिद्धान्त कहा गया, नकारात्मक नहीं सकारात्मक विभेद कहा गया और इसीलिये इसका आधार सामाजिक-शैक्षणिक वंचना को बनाया गया। हजारों बरसों से बहुसंख्यक जातियों को जातीय आधार पर सामाजिक-शैक्षणिक वंचना का शिकार होना पड़ा, मान- सम्मान और सम्पदा के अधिकार से महरूम होना पड़ा और दूसरी तरफ सिर्फ जन्मना-जातीय आधार मुट्ठी भर जातियों को विशेषाधिकार प्राप्त रहा। क्या उन वंचित जातियों का राजनीतिक सत्ता में सुदृढ़ीकरण करने के लिये उपचारात्मक औजार के बतौर प्रयुक्त हो रहा आरक्षण प्राकृतिक- सार्वभौमिक न्याय के विपरीत है। क्या हजारों बरसों से एक साजिश के तहत राजनीतिक सत्ता से वंचित किये गये जातियों का राजनीतिक-सामाजिक प्रबलीकरण हो गया। क्या राजनीतिक-सामाजिक सत्ता में उनकी सांख्यकीय भागीदारी पूरी हो गयी।
सच्चाई यह है कि उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की त्रयी ने आरक्षण की अभिधारणा में चूना पहले ही लगा दिया है। जिन सरकारी नौकरियों को लेकर बबाल काटा जा रहा है। वह तो उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की भेंट चढ़ चुकी हैं और आज की जरूरत तो निजी क्षेत्र में आरक्षण की है। अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी चर्चा की थी, पर वह परवान चढ़ नहीं सका।
कुछ समालोचकों की पीड़ा पिछड़ी जातियों का आरक्षण का लेकर है। पिछड़ों के लिये आरक्षण की चर्चा अम्बेडकर ने संविधान निर्माण के दौरान ही की थी और तब भी नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने इसका पुरजोर विरोध किया था। तब एक रणनीति के तहत सरदार पटेल ने डॉ0 अम्बेडकर से पूछा था कि ‘ओबीसी‘ कौन है। तब तक ओबीसी को संवैधानिक रुप से परिभाषित नहीं किया गया था। इसी परिप्रेक्ष्य में लाचार होकर डॉ0 अम्बेडकर ने संविधान में धारा 340 को सम्माहित कर दिया। धारा 340 के तहत यह राज्य सरकार की जिम्मेवारी है कि वह ‘ओबीसी‘ की पहचान करे। सरकार गठन के बाद अपनी संवेदनशीलता और समाजवादी झुकाव के लिये प्रचारित प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के द्वारा बेहद दुखी मन से काका कालेलकर को यह जिम्मेवारी सौंपी गयी कि वे ‘ओबीसी‘ की पहचान करें। पर जैसा कि तय था, काका कालेकर आयोग की सिफारिशों को कूड़ेदान में डाल दिया गया। जनता पार्टी के घोषणा पत्र में इसकी अनुशंसाओं को लागू करने का वादा किया गया था। पर प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इस अनुशंसा को पुराना बतला कर नये सिरे से वीपी मंडल के नेतृत्व में मंडल आयोग का गठन कर दिया। स्पष्ट है कि इस मामले को टालने की एक और कोशिश की गयी।
1984 में मंडल आयोग की रिपोर्ट आ गयी, इस बीच इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गयी थी। इधर पिछड़ी जातियों में जागरुकता का स्तर भी बढ़ा। मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने का जोर बढ़ने लगा और तब पिछड़ों में आई सामाजिक सचेतना को विखंडित करने के लिये विश्व हिन्दू परिषद की ओर से ‘एकता यात्रा‘ निकाली गयीं। इस बात को जोर- शोर से प्रचारित किया गया कि इसकी अनुशंसा से भारतीय समाज की सामाजिक समरसता भंग हो जायेगी, हजारों बरसों से स्थापित सामाजिक ताना-बाना बिखर जायेगा। कांग्रेस का भी मंडल के प्रति यही रुख था। यही कारण है कि जब यह ‘एकता यात्रा‘ दिल्ली पहुँची तो उसका स्वागत करने वालों में एक इन्दिरा गांधी भी थीं। पर यह ‘एकता यात्रा‘ पिछड़ों की राजनीतिक- सामाजिक सचेतना को कुंद नहीं कर पायी। अन्ततः वीपी सिंह ने देवीलाल के काट के रूप में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया, पर यहां भी एक चाल चली गयी। आरक्षण नौकरियों में दिया गया, शिक्षा में नहीं। यह भी एक साजिश थी। सामाजिक अभिजनों की यह साजिश मनुस्मृति का अनुपालन की थी। मनुस्मृति कहती है कि शूद्रों को शिक्षा मत दो। शासकीय सामाजिक अभिजन कहता है कि उच्च शिक्षा के लिये मेरे पास पैसा नहीं है। शिक्षा प्राप्त करनी है तो मोटी रकम का भुगतान करो, जो सामाजिक-शैक्षणिक वंचितो के पास है ही नहीं। इस प्रकार राजनीतिक सामाजिक अभिजनों की भाषा बदली हुयी है, पर उद्देश्य वही है। यद्यपि बाद में शिक्षा में आरक्षण का मामला हल हो गया। याद रहे कि मंडल की अनुशंसा लागू होते ही बाबरी मस्जीद को गिराने की तैयारी शुरु कर दी थी। दरअसल, यह मंडलवादी एकता को कमजोर कर, उसे डायर्वट करने का एक वृहद् आयोजन भर था, पर मंडलवादी एकता इससे कमजोर नहीं हुयी। आज भाजपा मन्दिर मुद्दे के आस -पास भटकना भी नहीं चाहती,तो उसके कारण स्पष्ट है।
आर्थिक आधार पर आरक्षण प्रदान करने की जो योजना भाजपा और कांग्रेस के द्वारा बनाई जाती रही है, वह अकारण नहीं है। दरअसल यह आरक्षण की अभिधारणा में ही चूना लगाने की एक दूरगामी चाल है। आरक्षण को समाप्त करने के लिये एक मानसिक और सामाजिक वातावरण तैयार किया जाता रहा है। संविधान में उल्लेखित सामाजिक-शैक्षणिक मापदंडों की जानबूझ कर चर्चा नहीं की जाती। और एक साजिश के तहत विश्लेषकों के द्वारा इसे गरीबी दूर करने के उपकरण के रूप में प्रचारित -प्रसारित किया जाता रहा है।
और अब कांग्रेस, भाजपा को तो एक नया सहयोगी भी मिल गया है। आरक्षण का आधार आर्थिक करने का सुझाव भले ही जनार्दन द्विवेदी की ओर से आया हो पर आज आरक्षण के सबसे बड़े विरोधी के रूप में अरविन्द केजरीवाल की टोली सामने आयी है। नयी राजनीति के शिगूफे में बड़े ही यत्न और सलीके से प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ यह टोली आरक्षण की अभिधारणा को ही खारिज कर रही है। कभी आरक्षण विरोध के नाम पर हुड़दंग करने वालों की पूरी फौज ने ‘मैं हूँ आम आदमी‘ की टोपी पहन अब आरक्षण विरोध का नया हथियार खोज निकाला है। और यह चेहरा प्रगतिशीलता और नई राजनीति का लबादा ओढ़े होने के कारण न सिर्फ कांग्रेस- भाजपा दोनों से ही ज्यादा खतरनाक है वरन् सामाजिक वंचितों को भी अपने साथ जोड़ने में सफल होता दिख रहा है।
आज जरूरत आरक्षण के आधार में बदलाव की नहीं वरन् निजी क्षेत्रों में इसे लागू करने की है। आरक्षण के वर्तमान उपबन्धों का बेहतर कार्यान्वयन की है और वैसी वंचित जातियों को आरक्षण के अन्दर लाने की है जो हिन्दू धर्म की परिधि के बाहर है। क्योंकि दलित- वंचित जातियां चाहे किसी भी धर्म में हो, उनका सामाजिक वंचना में कोई परिर्वतन नहीं आया है। भले ही इसके लिये आरक्षण की वर्तमान सीमा को बढ़ाना पड़े। और आरक्षित पदों को जो एक साजिश के तहत खाली छोड़, और बाद में सामान्य कोटे से भर दी जाती है, उस पर विराम लगाने की है। यह बात बार-बार सामने आ रही है कि आरक्षित समूह से कोई उत्कृष्ट अंक भी लाता है तो उसे आरक्षण कोटे के अन्तर्गत दिखलाया जाता है। कायदे से उसे सामान्य कोटे के अन्तर्गत आना चाहिए। पर नयी राजनीति का दावा करने वाले आरक्षण की विफलता को सामने लाने का दावा करते हैं पर इस साजिश पर अपनी जुबान नहीं खोलते। बेहद जरूरी है कि एक कमीशन का गठन हो, जो आरक्षण के अनुपालन में हो रही गड़बडि़यों की जांच करे, धर्मान्तरित वंचितों को इसके दायरे में लाये और निजी क्षेत्र में आरक्षण का कार्यान्वयन कैसे हो, इसका मार्ग प्रशस्त करे।


