राम बहादुर राय को पद्मश्री मिलना प्रभाष परम्परा के लिए बड़े गर्व की बात
राम बहादुर राय को पद्मश्री मिलना प्रभाष परम्परा के लिए बड़े गर्व की बात
बड़े भाई, मार्गदर्शक और देश के वरिष्ठ पत्रकार आदरणीय राम बहादुर राय जी को पद्मश्री मिलना हम पत्रकारों के लिए बड़े गर्व की बात है। यह सम्मान सिर्फ उन्हें नही प्रभाष परम्परा के उन सभी पत्रकारों का है जो प्रभाष जी पद चिन्हों पर चल रहे हैं। कोई भले इस सम्मान को किसी से जोड़कर देखे और सोचे लेकिन दरअसल यह सीधी, सच्ची, सरल पत्रकारिता का सम्मान है।
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में जन्मे राय साहब आज पत्रकारिता की दुनिया के दस बड़े नामों में से एक हैं। पत्रकारिता से अलग उन्होंने कुछ सोचा ही नहीं। बिलकुल वैसे जैसे उनके गुरु श्रद्धेय प्रभाष जोशी जी ने। यह पत्रकारिता की वह पीढ़ी है जिनके हाथ-पांव, मन-मस्तिष्क सब संस्कारों की डोर से बंधे हैं और ज्ञान चक्षु खुले हैं। अधिकांश लोग जानते हैं कि राय साहब ने प्रभाष जी के नजदीक होते हुए भी कभी गुरु-शिष्य की सीमा नही लांघी। ना जनसत्ता में काम करते हुए ना रिटायरमेंट के बाद। कई दफे इस परम्परा का साक्षी मै खुद रहा हू। गुरु-शिष्य रिश्तों की मर्यादा के प्रमाण प्रभाष जी और राय साहब थे। दोनों ही नौकरी से रिटायर थे लेकिन रिश्तो की डोर जीवित थी और है प्रभाष जी के महाप्रयाण से पहले भी और उसके बाद भी।
प्रभाष जी को गए कई साल हो गए लेकिन राय साहब ने गुरु की दिखाई राह नहीं छोड़ी। जिस तरह प्रभाष जी पत्रकारिता में पीढ़ी का निर्माण करके अचानक गए। राय साहब भी पत्रकारिता के साथ-साथ पीढ़ी निर्माण के काम में जुटे हैं। आजकल वह यथावत पत्रिका के संपादक हैं। पत्रिका में काम करने वाली नई पीढ़ी को शिक्षित-दीक्षित करने का काम कुछ दिन पहले ही हमने दिल्ली में प्रवासी भवन स्थित कार्यालय में देखा। आज की भाषा में शायद हम-सब उसे वर्कशॉप कहेंगे। वर्कशॉप में आाजकल वर्ड कम प्रेज़ेन्टेशन ज्यादा होता है। यानि दिखावा। राय साहब की वह क्लास देखकर पुराने दिनों में सम्पादकों द्वारा ठोंक-पीटकर पत्रकार तैयार करने की सुनी गई विधा आँखों के सामने घूम गई थी। ऐसी क्लास हम छोटे-छोटे जिलों में काम करने वालों के लिए सपना है सपना। सपना महानगरों में काम करने वाले उन पत्रकारों के लिए भी है जो सिर्फ दिखावे की पत्रकारिता के मायाजाल में फंसे हैं। पीढ़ी निर्माण का काम आसान नहीं है। ये पीढ़ियां ही गुरु को कालजयी बनाती हैं। देखिये ना, प्रभाष जी आज भी जीवित हैं या नहीं। कौन कहेगा या मानेगा कि प्रभाष जी नहीं हैं। प्रभाष जी सिर्फ पत्रकार ही तो नहीं थे। एक विचार, एक परम्परा, एक दृढ़ता के परिचायक थे। परम्परा चल रही है। उसके निशान यत्र-तत्र दीखते हैं कि नहीं।
राय साहब का पद्मश्री सम्मान के लिए चयन हम जैसे पत्रकारों को यह खुद के लिए लगता है। इसलिए नहीं कि हम उनके नजदीक हैं, बल्कि इसलिए कि राय साहब ने हम जैसों को खुद अपने नजदीक जगह दे रखी है। ऐसा लगता ही नहीं कि हम शीर्ष पत्रकार से मिल रहे हैं। पद्मश्री के लिए अकेले राय साहब को नहीं उन जैसे सभी पत्रकारों को हमारी बधाइयाँ।
गौरव अवस्थी


