रामबाण नहीं काँग्रेस का खाद्य सुरक्षा बिल
रामबाण नहीं काँग्रेस का खाद्य सुरक्षा बिल
अंबरीश कुमार
काँग्रेस के खाद्य सुरक्षा बिल की परीक्षा अब राज्य सभा में होने जा रही है पर यह बिल सभी राज्यों में वोट की सुरक्षा दिला दे यह सम्भव नहीं दिखता। न ही यह इन्दिरा गाँधी के गरीबी हटाओ नारे की तरह असर डाल पायेगा, पर काँग्रेस का वोट जरुर बढ़ेगा। कितना बढ़ेगा और कहाँ पर बढ़ेगा यह कहना अभी मुश्किल है। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि जिन राज्यों में भूख, गरीबी और स्वास्थ्य क्षेत्र की महत्वपूर्ण योजनायें पहले से चल रही हैं उन राज्यों में इस खाद्य सुरक्षा कानून का ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा, पर जिन राज्यों में इस तरह की योजनायें नहीं है वहाँ इसका फायदा काँग्रेस को मिल सकता है। दूसरे काँग्रेस जिन राज्यों में सत्ता में है या मुख्य विपक्षी दल के रूप में है वहाँ काँग्रेस का यह ब्रह्मास्त्र चल सकता है, ठीक उसी तरह जैसे गरीबी हटाओ का नारा चला था। पर उस दौर की इन्दिरा गाँधी और काँग्रेस का आज की काँग्रेस या उसका कोई भी नेता मुकाबला नहीं कर सकता है। राजा-महाराजा से लेकर नवाबों का प्रिवीपर्स समाप्त करने, बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने बाद विश्व के मानचित्र बांग्ला देश बना देने वाली इन्दिरा गाँधी के नारे पर जैसा भरोसा तब लोगों ने किया था, वह अब नहीं होने वाला। अब तो रुपया गिरता जा रहा है, महँगाई बढ़ती जा रही है और भ्रष्टाचार के दलदल में काँग्रेस फँसी हुयी है। ऐसे माहौल में भूख से लड़ने का काँग्रेस का यह हथियार उतना धारदार नहीं बचा है। इसी वजह से इसकी राजनैतिक कामयाबी पर सवाल भी उठ रहा है।
दूसरे कई राज्यों में गैर काँग्रेसी और काँग्रेसी सरकारों ने भी जो प्रयोग किये हैं उनका फायदा उन्हें ज्यादा मिल सकता है। छतीसगढ़ में चाउर वाले बाबाके नाम से मशहूर रमन सिंह हों, तमिलनाडु में गरीबों को बहुत सस्ता अनाज देने वाली जयललिता या उत्तर प्रदेश में तहसील स्तर तक मुफ्त एम्बुलेंस पहुँचाने के साथ ग़रीबों की असाध्य बीमारियों के मुफ्त इलाज की दिशा में पहल करने वाले अखिलेश यादव हों, ये सभी वंचित तबके के लिये अपनी कुछ योजनाओं से
राजनैतिक ताकत बना चुके हैं या बना रहे हैं। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ग्रामीण इलाकों में मुफ्त इलाज और बीमारी से सम्बंधित सारे परीक्षण मुफ्त करने की सुविधा देने की वजह से ही फिर सत्ता में लौटने की तैयारी में हैं। यह वह योजनायें हैं जिन पर ज्यादा चर्चा नहीं होती और न ही इन राज्यों के जन संपर्क विभाग इसे आम लोगों तक पहुँचा पाते हैं। अपवाद छतीसगढ़ है जिसने ग़रीबों को दो तीन रुपए किलो के भाव चावल देने की योजना को देश भर में फैला दिया। छतीसगढ़ में काँग्रेस करीब एक दशक से बाहर है तो हर किस्म के भ्रष्टाचार और मानवाधिकार हनन के बावजूद ग़रीबों के लिये चावल की यह योजना ही है जिसने रमन सिंह को दस साल तक बचाये रखा अब बदल जायें तो उसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ अजित जोगी को जायेगा तरह-तरह के प्रयोग करने वाली काँग्रेस को नहीं।
इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि गरीब तबके के लिये इस तरह की ठोस योजनाओं का फायदा ये राज्य सरकार किस तरह उठा रही है। इसलिये काँग्रेस को भी इसका फायदा मनरेगा और किसानों की कर्ज माफ़ी योजना की तरह ही इसका फायदा मिल सकता है। पर जिन राज्यों में काँग्रेस मुख्य मुकाबले से बाहर है वहाँ इसे ज्यादा फायदा मिलना मुश्किल है। ऐसे राज्यों में बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल से लेकर तमिलनाडु शामिल हैं। इन राज्यों की अपनी कुछ योजनायें भी जनता के बीच में लोकप्रिय हुयी हैं।
खास बात यह है कि खाद्य सुरक्षा कानून बनाने के लिये आंदोलन वाम दलों ने ही छेड़ा था और चार करोड़ लोगों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन भी प्रधानमंत्री को दिया था पर अब वे इस बहस के केन्द्र में नहीं हैं। हालाँकि भाकपा नेता गिरीश का मानना है कि मौजूदा माहौल में जब तक खाद्य सुरक्षा कानून अमल में आयेगा तब तक काँग्रेस लोकसभा चुनाव हार चुकी होगी। और इस कानून बनाने के नाम पर काँग्रेस को बहुत फायदा नहीं मिलने वाला क्योंकि पार्टी की साख बहुत खराब हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में तो इसका कोई फायदा नहीं मिलने वाला। यहाँ तो केन्द्र के पैसे से चल रही समाजवादी स्वास्थ्य सेवा का फायदा भी सत्तारूढ़ दल को होगा काँग्रेस को नहीं क्योंकि ऐसी सेवा का फायदा आम आदमी को हुआ है और वो यही जानता है कि राज्य सरकार ने इसे शुरू किया था। इस उदाहरण से साफ है कि खाद्य सुरक्षा का यह हथियार सभी राज्यों में कामयाब हो यह सम्भव नहीं।


