राष्ट्र संकट में, संकट में मनुष्य और प्रकृति भी
राष्ट्र संकट में, संकट में मनुष्य और प्रकृति भी
राष्ट्र संकट में, संकट में मनुष्य और प्रकृति भी
सारे झंडे, सारे रंग मई दिवस के मुक्ति महोत्सव पर राष्ट्रीय झंडे में मिला दें और मुकाबला करें इस केसरिया कारपोरेट कयामत का
जो भारतीय जनता को गुलामी की जंजीरों में बांधकर भारत माला विदेशी पूंजी के गले में सजाने लगी
कि मेहनतकशों, कर दो बाबुलंद ऐलान
मई दिवस से फिर आजादी की लड़ाई जारी है
हम अंध राष्ट्रवादी नहीं हैं ठीक वैसे ही जैसे हम धर्मोन्मादी फासिस्ट नहीं हैं। लेकिन इस संकट की घड़ी में जब कारपोरेट मुनाफे के लिए बाकायदा संसदीय सहमति से वोटबैंक साधने की शर्त पूरी करके कारपोरेट राजनीति संसदीय सहमति से राज्यसभा में अल्पमत केसरिया कारपोरेट सरकार को दो तिहाई बहुमत की अनिवार्यता के बावजूद संविधान संशोधन तक पास करके मुक्तबाजारी नरमेध राजसूय के तहत पूरे देश को वधस्थल बनाकर विदेशी पूंजी और विदेशी हितों के हवाले सोने की चिड़िया करने खातिर मनुस्मृति कायदे कानून पास कर रही है एक के बाद एक।
हमारे पास राष्ट्र के इस संकट पर राष्ट्रीय झंडा लेकर सड़क पर उतरने के सिवाय कोई और विकल्प अनिवार्य जन जागरण अभियान के जरिये आजादी की लड़ाई शुरु करने का नहीं है। क्योंकि पाखंडी राजनीति कारपोरेट फंडिंग के जरिये चलती है और कारपोरेट जनसंहार के खिलाफ उसे खड़ा नहीं होना है। यह लड़ाई आखिरकार आम जनता को ही अपनी आजादी के लिए सत्ता वर्ग के खिलाफ लड़नी है।
हम अंध राष्ट्रवादी नहीं हैं ठीक वैसे ही जैसे हम धर्मोन्मादी फासिस्ट नहीं हैं। लेकिन इस संकट की घड़ी में जब निरंकुश बेदखली अभियान जारी है। बाबासाहेब को ईश्वर बनाकर उनके संविधान की हत्या हो रही है रोज रोज और ब्रिटिश राज में बाहैसियत श्रमिक कानून जो पास कराये बाबासाहेब ने वे सारे एक मुश्त खत्म कर दिये गये संसदीय सहमति से। विदेशी निवेशकों को 6.4 बिलियन कर छूट, कारपोरेट टैक्स में कटौती, कारपोरेट कर्ज और उन पर पिछला सारा कर्ज माफ और किसी की भी नौकरी स्थाई नहीं। डिजिटल इंडिया के आईटी सेक्टर में रोजाना हजारों युवाओं को रोजगार से बाहर करने के लिए पिंक स्लिप दिया जा रहा है।
देश बेचो का इतना पुख्ता इंतजाम है कि मेकिंग इन अब देशी विदेशी पूंजी की बहार के मध्य देश व्यापी सलवा जुड़ुम है या देश बेचो विशेष सैन्य अधिकार कानून है। जनता के मुद्दों पर कहीं जन सुनवाई किसी भी स्तर पर नहीं है। न लोकतंत्र हैं और न कानून का राज। मेहनतकश जनता को बंधुआ मजदूर बनाकर बहुराष्ट्रीय पूंजी के लिए सबसे सस्ता श्रम बाजार बनाया जा रहा है इस देश को, जहां मेहनतकश तबके को न रोजगार और न आजीविका का अधिकार है।
संगठित क्षेत्रों में भुखमरी के हालात पैदा किये जा रहे हैं। न स्थाई नौकरियां हैं, न नियुक्तियां है, भाड़े के मजदूर बन गये हैं हमारे बच्चे, जिनकी नौकरियां कभी भी खत्म की जा सकती है।
हमारी जमीन हमसे छिन सकती है। हमारे चारों ओर आपदाओं ने हमें घेर रखा है।
जल जंगल जमीन प्रकृति और पर्यावरण की नियामतों से बेदखल करने के लिए दुनियाभर के हथियारों का जखीरा है यह मुक्त बाजार और हमारे पास लड़ने के लिए राष्ट्रीय झंडा के अलावा कुछ भी नहीं है।
नेपाल में हम तक काठमाडू से खबरें आ रही है। ग्राउंड जीरों का हाल जानने के लिए एक टीम नेपाल को जा रही है जबकि वहां पहुंच चुके इमरान इदरीस का आंखों देखा हाल हम लगा रहे हैं।
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के आव्हान पर समाजवादी पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं की एक टोली राहत सामग्री लेकर नेपाल पहुंच गई है। इस दल में युवा नेता इमरान इदरीस भी शामिल हैं, जो ग्राउंड जीरो से लगातार अपडेट कर रहे हैं।
नेपाल में संचार नेटवर्क तहस नहस है और वहां का प्रमुक अखबार कांतिपुर समाचार भी अपडेट नहीं हो पा रहा है। हम कांतिपुर रेडियों से अपडेट ले रहे हैं। गुरखाली हिंदीभाषियों के लिए खासकर उत्तराखंड, सिक्किम और बंगाल के गोरखा इलाकों के लिए अभूझ नहीं है। मराठी और गुजराती की तरह लिपि देवनागरी है। एक बार पढना शुरू करें तो आपको हकीकत समझ में आने लगेगा।
हम भाषाओं की दीवारों को गिराने की मुहिम चला रहे हैं तो सारे माध्यम हमारे लिए जनसचार माध्यम हैं और सारी कलाओं और विधायों के बारे में हमारी एकमात्र कसौटी उसकी जनपक्षधरता है। बाकी कालजयी शस्त्रीय साहित्य कला से हमारा कुछ लेना देना नहीं है।
काठमांडु से बाहर हमारे जो मित्र नेपाल भर में है, वे कितने सकुशल हैं, हम बता नहीं सकते। उनसे हमारा संपर्क नहीं हो पा रहा है। मीडिया सिर्फ काठमांडू और पर्यटन स्थल में तब्दील एवरेस्ट तक फोकस कर रहा है। वैसे ही जैसे केदार जलसुनामी के बाद बाकी हिमालय को हाशिये पर रखकर केदार घाटी का युद्धक कवरेज होता रहा है। हूबहू नेपाल में इस वक्त वही पीपली लाइव है।
नेपाल में राहत और बचाव की राजनीति और राजनय का प्रचार खूब है लेकिन नेपाल ही नहीं, उत्तराखंड, सिक्किम और बंगाल के साथ-साथ तिब्बत में मची तबाही की ओर किसी का ध्यान नहीं है। बाकी नेपाल की सिसकियां, कराहें किसी को सुनायी नहीं पड़ रही हैं, वे भी हमारे डूब में समाहित हैं। यह डूब आखिरकार यह महादेश मुक्तबाजार है।
बिहार और यूपी के मैदानी इलाकों में मरनेवालों की संख्या गिनते हुुए हम भूल रहे हैं कि भारत माला के जरिये यह कारपोरेट केसरिया सरकार सीमा सुरक्षा के नाम पर बिल्डर माफिया के हवाले करने जा रहा है देश के सबसे संवेदनशील इलाके ताकि वहां फिर टिहरी बांध और ब्रह्मपुत्र बांध जैसे परमाणु बम लगा दिये जाये भूकंप और आपदाओं के नये सिलसिले के लिए।
हम सुनामी, बाढ़, दुष्काल, भुखमरी, समुद्री तूफान की यादें साल गुजकरते न गुजरते भुला देने केअभ्यस्त हैं और केदार जलसुनामी में मरे लापता स्वजनों की स्मृतियां भी भुला चुके हैं।
काठमांडु की दिल दहलाने वाली तस्वीरे भी बहुत जल्दी परदे से उतर जाने वाली हैं और नया, और बड़ा भूकंप बिना आवाज मौत की तरह कभी न कभी हमें मोक्ष दिलाने वाला है क्योंकि इस सीमेंट के जंगल में भूकंप रोधक नया बिजनस शुरु होने के बावजूद इस बहुमंजिली सीमेंट की सभ्यता में नैसर्गिक कुछ भी बचा नहीं है।
अर्थशास्त्री और मीडिया जनसंहार के मोर्चे पर गोलबंद हैं और विध्वंसक एटमी पूंजीवादी विकास से प्रकृति और मनुष्य के सर्वनाश के इस जनसंहरी राजसूय के पुरोहित नये पुरोहित बन गये हैं भूगर्भ शास्त्री विशेषज्ञवृंद भी जो हजारों करोड़ साल का भूगर्भीय इतिहास तो बता रहे हैं, लेकिन हिमालय के उत्तुंग शिखरों और समुंदर की गहराइयों में, हवाओं पानियों में इस कायनात को तबाह करने के चाकचौबंद इंतजाम के तहत लगे परमाणु बमों और न्यूक्लियर रिएक्टरों के जनसंहारी कारपोरेट केसरिया फासिस्ट युद्धतंत्र के विकास के नाम विनाश आयोजन पर सिरे से सन्नाटा बुनते चले जा रहे हैं।
निजीकरण को विनिवेश के बाद अब पीपीपी माडल कहा जा रहा है। बैंकों के पढ़े लिखे महाप्रबंधक सत्र के अफसरान तक को मालूम नहीं है कि बाबासाहेब की वजह से बने रिजर्व बैंक के सारे अधिकार सेबी को स्थानांतरित हैं और रिजर्व बैंक के सभी स्ताइस विभागों का प्रबंधन कारपोरेट लोगों के हाथों में है।
बैंक कानून बदलने के बाद भूमि अधिग्रहण कानून, खनन अधिनियम, वनाधिकार कानून समेत तमाम कायदे कानून बदलकर करीब दो हजार कानूनों को खत्म करने की कवायद करके बिजनेस फ्रेंडली सरकार जो केसरिया कारपोरेट कयामत ला रही है, उससे किसान और मजदूर ही तबाह नहीं होंगे, संगठित क्षेत्रों के मलाईदार लोगों की भी शामत आने वाली है। मसलन सरकारी सारे बैंकों को होल्डिंग कंपनी बनाने की तैयारी है।
दस पंद्रह साल पहले एअर इंडिया के जो अफसरान कर्मचारी हमें सुनने को तैयार नहीं है, थोड़ा उनका हाल जान लीजिये। एफडीआई विनिवेश राज में किसी सेक्टर में कोई कर्मचारी और बड़का तोप अफसर उतना ही सकुसल है, जितने बंधुआ मजदूर में तब्दील देश की बाकी आबादी। मेहनतकशो के सात लामबंद हुए बिना उनकी भी शामत बस अब आने ही वाली है।
रेलवे के कर्मचारियों को मालूम ही नहीं है कि पीपीपी विकास और आधुनिकीकरण के बहाने सारे के सारे बुलेटउन्हीके सीने में दागकर रेलवे का निःशब्द निजीकरण हो गया।
संपूर्ण निजीकरण के इस कारपोरेट केसरिया एजंडा में मारे जाएंगे वे बनिया सकल, खुदरा कारोबारी जिनकी हड्डियां और खून का कार्निवाल आईपीएल ईटेलिंग महमहा रहा है। अरबों जालर की विदेशी कंपनियों के मुकाबले बिजनेस और इंडस्ट्री एकाधिकारवादी बड़े औद्योगिक घरानों के अलावा किसी माई के लाल के लिए असंभव है और टैक्स होलीडे उन्हीं के लिए। आपके यहां तो छापे ही छापे।
महिलाओं के लिए समांती मध्ययुग की दस्तक है। हिंदूकोड बिल के विरोधी सत्ता में है जो बलात्कार को अपराध नहीं मानते, धर्म और संस्कृति मानते हैं मनुस्मृति के मुताबिक। मनुस्मृति के मुताबिक हर स्त्री शूद्र और यौनदासी है। हमने इस पर अंग्रेजी में विस्तार से लिखा है। कृपया हमारी माताएं, बहनें जो अंग्रेजी जानकर, पेशेवर जिंदगी में महिला सशक्तीकरण की खुसफहमी हैं, वे गौर करें की यह फासीवाद कैसे बलात्कार संस्कृति का ही पर्याय है।
महानगरों की सेहत के लिए गांवों से लेकर घाटियों तक, किसानों मजदूरों से लेकर स्त्रियों, युवाओं, बच्चों और कारोबारियों और पढ़े लिखे कर्मचारियों तक को बलि चढ़ाया जा रहा है जबकि जनपक्षधर बंधुआ मजदूरों में तब्दील मीडिया के चूजा सप्लायक चूजा शौकीन तबके से अलग ईमानदार लोगों की उंगलियां काट ली गयी हैं और उनकी जुबान पर तालाबंद है।
यह अघोषित आपातकाल है और हम सभी लोग मनुस्मृति गैस चैंबर में सांस सांस के लिये मर मर कर जी रहे हैं।
तो मेहनतकश तबके को अस्मिताओं के राजनीतिक तिलिस्म से बाहर निकालने के लिए, पूरे देश के देशभक्त जनगण को देश बचाने की मुहिम में शामिल करके देश बेचो केसरिया कारपोरेट माफिया राष्ट्रद्रोही गिरोह के साथ सड़क पर मोर्चा जमाने के लिए उनके पारमाणविक युद्ध तंत्र के खिलाफ भारत के राष्ट्रीय झंडे को अपना हथियार बनाने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प है ही नहीं।
हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या, कृपया गौर करेंः
सेज अभियान अब स्मार्टसिटी अभियान है। इकोनामिक्स टाइम्स की इस रपट पर गौर करें ते समझ लीजियेगा , किसके फायदे के लिए किसकी गरदनें दो दो इंच छोटी कर दी जा रही है और फिर भी कहा जा रहा है, दो बालिश्त और कम।
पलाश विश्वास


