लक्ष्‍मणपुर बाथे : कहाँ मरे थे 58 लोग?
कोई हत्‍यारा नहीं, कोई सबूत नहीं
दिगम्बर
बिहार के अरवल जिले के लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में सभी 26 आरोपियों को बरी कर दिया गया। पटना के एक विशेष अदालत ने सात अप्रैल 2010 को इस नरसंहार के 16 अभियुक्तों को फाँसी और दस को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। उस फैसले को पलटते हुये पटना उच्च न्यायालय ने सबूतों के अभाव में उस मामले के सभी आरोपियों को बरी कर दिया।
इस बहुचर्चित और ज़घन्य हत्या काण्ड में भूस्वामियों और उच्च जाति के लोगों द्वारा गठित रणवीर सेना ने एक दिसंबर 1997 को लक्ष्मणपुर-बाथे गाँव के 58 निहत्थे और निर्दोष दलितों की सारेआम हत्या कर दी थी। नरसंहार के पीछे ज़मीन का विवाद था। मरने वालों में 27 औरतें और 16 बच्चे भी थे। इस हत्याकाण्ड को अंजाम देने के लिये रणवीर सेना के करीब 100 सशस्त्र सदस्य भोजपुर जिले से सोन नदी पार करके लक्ष्मणपुर-बाथे गाँव में आये थे।

पुलिस ने रणवीर सेना के 44 लोगों के खिलाफ 23 दिसंबर 2008 को आरोप पत्र दायर किया था।
पुलिस की तफतीश के मुताबिक इस नरसंहार में दलितों के चार परिवार को पूरी तरह मिटा दिया गया था।

अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश विजय प्रकाश मिश्र ने इस मामले में 26 को दोषी ठहराते हुये उनमें से 16 को फांसी और दस को उम्रकैद तथा 31-31 हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई थी। 19 लोग सबूत के अभाव में बरी कर दिये गये था और दो आरोपियों- भूखल सिंह और सुदर्शन सिंह की मुकदमे की सुनवाई के दौरान ही मृत्य हो गयी थी।
निचली अदालत के इस फैसले को चुनौती देते हुये पटना हाई कोर्ट में दायर याचिका पर सुनवाई के बाद न्यायमूर्ति बी़ एऩ सिन्हा और न्यायमूर्ति ए. के. लाल की खण्डपीठ ने सबूत के अभाव में सभी 26 अभियुक्तों को बरी कर दिया।
राबड़ी देवी की तत्कालीन राजद सरकार ने रणवीर सेना के राजनीतिक पार्टियों के साथ सम्बंधों का पता लगाने के लिये अमीर दास आयोग का गठन किया था। लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद नीतीश कुमार ने उस आयोग को भंग कर दिया था।

नितीश सरकार पर रणवीर सेना को शह देने के आरोप लगते रहे हैं।
पिछले वर्ष रणवीर सेना के स्वयंभू मुखिया ब्रह्मेश्‍वर सिंह की भोजपुर जिले में हत्या होने के बाद आरा शहर में हिंसक जुलूस निकाल कर सवर्णों ने दलित छात्रावास सहित ज़गह-ज़गह पर दलितों के ऊपर हमले किये थे। आरा से पटना तक शवयात्रा निकाली गयी थी जिसमें शामिल सशस्त्र आतताइयों ने पुलिस की उपस्थिति में तोड़-फोड़ और आगज़नी की थी।
उस घटना के बाद भी नितीश कुमार पर यह आरोप लगा था कि सवर्णों के बीच ज़नाधार वाली भाजपा के साथ गठबंधन के चलते प्रशासन ने हिंसक प्रदर्शनों से आँख मूँद ली। आज भाजपा से उनका मोर्चा टूट चुका है, लेकिन आज भी सवर्ण वोट बैंक के प्रति आकर्षण बिहार की मौजूदा सरकार का रुख तय करता है।

बिहार में दलितों के सामूहिक नरसंहार और अदालत द्वारा दलितों को न्याय न मिल पाने की यह कोई अकेली घटना नहीं है।
इससे पहले बथानी टोला नरसंहार में भी पीड़ितों को न्याय नहीं मिला था। इस फैसले ने एक बार फिर दलितों-शोषितों को निराश किया है और इस बात का अहसास कराया है कि न्यायिक सक्रियता के तमाम हो-हल्ले के बावजूद सच्चाई यही है कि अदालतें और उनके फैसले निष्पक्ष नहीं हैं।
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