लखीमपुर खीरी में बच्ची की हत्या से उपजे बुनियादी सवाल
लखीमपुर खीरी में बच्ची की हत्या से उपजे बुनियादी सवाल
कैलाश सत्यार्थी’
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के निघासन थाने में हुई एक 14 वर्षीय मासूम बच्ची की निर्मम हत्या ने हमारे लोकतंत्र और सभ्य समाज के चेहरे पर एक बार फिर कालिख पोत दी है। भैंस चराने वाली वह लड़की अपनी भैंसों की तलाश में खुले हुए थाना परिसर में घुस गई थी जहां से पुलिसियों ने उसे दबोच लिया। जिस बच्ची का पिता थाने में चौकीदारी करता हो उसी के साथ पुलिस वालों ने कथित तौर पर
सामूहिक बलात्कार किया फिर बर्बर तरीके से गला घोंटकर लाश को पेड़ पर लटका दिया। जुबान बन्द रखने के लिए पहले मां को धमकाया गया फिर पांच लाख रुपए का लालच दिया गया। डाक्टरों ने पोस्टमार्टम की झूठी रिपोर्ट दे दी और लाश को दफनाकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की गई।
अब मामला काफी तूल पकड़ चुका है। सभी पार्टियां इस शर्मनाक कांड में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए जोर-शोर से कूद पड़ीं हैं। यह स्वाभाविक था क्योंकि अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं। हालांकि महीने-डेढ़ महीने पहले ही दिल्ली में अगवा कर बंधुआ बनाए गए एक दस वर्षीय बच्चे मोईन को उसके मालिक ने दीवार से पटक-पटक कर मार डाला। सामाजिक संगठन और मीडिया
उस मामले को न उठाते तो कारखाने मालिक व पुलिस उसे भी रफा-दफा कर देते।
उस समय कुछ मीडियाकर्मियों ने जब दिल्ली की मुख्यमंत्री और केन्द्रीय बाल व महिला कल्याण मंत्री से मोईन की हत्या पर प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने बड़ा ही शर्मनाक जवाब दिया था कि उन्हें इस घटना की जानकारी ही नहीं है। प्रतिपक्ष के किसी अन्य दल या नेता ने भी उस हत्याकांड पर अपनी जुबान तक नहीं खोली।
बच्चों के साथ हो रही क्रूरता और अपराध के राजनैतिक इस्तेमाल का एक घटिया उदाहरण लखीमपुर खीरी की घटना है। लेकिन इससे जुड़े बुनियादी सवालों को नजरंदाज करना सभी के लिए बड़ी सहूलियत का काम है। इन पार्टियों और नेताओं से कोई पूछे कि वे बच्चों के अधिकारों की रोज-रोज धज्जियां उड़ते देखकर भी अपना मुंह क्यों नहीं खोल पाते ? बच्चों के हितों के लिए केन्द्र और राज्य के बजटों
में अधिक धनराशि का प्रावधान कराने की जद्दोजहद क्यों नहीं करते ? देश के शिक्षकों, न्यायपालिका, स्वास्थ्य विभाग और पुलिस को बच्चों के प्रति संवेदनशील बनाने या बच्चों के अधिकारों के प्रति जागरुक करने के लिए ठोस उपाय क्यों नहीं किए जाते ? पूरे तंत्र व जन मानसिकता को बच्चों के प्रति जागरुक तथा जवाबदेह बनाने में क्या कभी उनका कोई योगदान है ? बच्चों के साथ अपराध करने वाले
कितने लोग जेलों की सजा काट रहे हैं ? इन बातों पर हमारे नेताओं और सामाजिक ठेकेदारों का ध्यान क्यों नहीं जाता ?
कहां है वह राजनैतिक इच्छाशक्ति, बुनियादी नैतिकता और सरकारी ईमानदारी, जो अपने ही बनाए कानूनों को पैरों तले रौंदने से रोक सके? आखिर कौन है इसके लिए जवाबदेह ? आखिर कब तक हम इन्हें महज दुःखद हादसे ही मानते रहेंगे ? मृतकों की तस्वीरें देखकर तात्कालिक अफसोस और रोते बिलखते परिजनों के प्रति थोड़ी बहुत सहानुभूति का यह भाव कितना स्थायी होता है ? इस प्रकार की घटनाओं से
हमारा मन तनिक देर के लिए उद्वेलित हो जाता है किन्तु बड़े पैमाने पर बच्चों पर हो रही हिंसा की रिपोटोऱ्ं से समाज में कोई सुगबुगाहट तक नहीं होती।
हाल ही में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक हमारे देश में लगभग 80 फीसदी बच्चे किसी न किसी प्रकार की शारीरिक या मानसिक हिंसा से पीडि़त हैं। 100 में से 53 किसी न किसी रुप में यौन उत्पीड़न का शिकार बनाये जाते हैं। हर तीन में से 2 बच्चों की पिटाई होती है। 6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरों की तरह अत्याचार, शोषण और बीमारियो के शिकंजे में घुट घुटकर जीने के मजबूर है। इनको महज आंकड़ा
मान लेना हमारी भूल ही नहीं एक प्रकार का राष्ट्रीय अपराध होगा। हर एक आंकड़े के पीछे कोई न कोई नाम, चेहरा और पहचान रखने वाले बच्चे ही होते हैं।
इन हालातों के लिए कुछ बुनियादी कमियां जिम्मेदार हैं। पहली है बचपन समर्थक और बाल अधिकार का सम्मान करने वाली मानसिकता की कमी। दूसरा सामाजिक चेतना और सरोकार का अभाव। तीसरा राजनैतिक इच्छाशक्ति और ईमानदारी की कमी। चौथा बच्चों के अधिकारों और संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए आर्थिक संसाधन मुहैया कराने में कोताही और पांचवां बच्चों के मामले मे एक स्पष्ट नैतिकता का अभाव।
बाल अधिकार भी बुद्धि-विलास, चर्चा-परिचर्चा या एनजीओ अथवा सरकारी महकमों की परियोजना भर बन कर रह गये हैं। जबकि बाल अधिकारों का सम्मान और बाल मित्र समाज बनाने के प्रयत्न सबसे पहले एक जीवन जीने का तरीका बनने चाहिए।
बच्चों के प्रति हम कैसे सोंचते हैं, उनके साथ कैसे समानता और इज्जत का व्यवहार करते हैं, उनका विकास, संरक्षण और उनका सम्मान हमारी निजी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्राथमिकताओं में कैसे ढल जाता है। इस पर गहरे मंथन और अमल की जरुरत हैं।
अलग-अलग नजर आने वाली इन सभी घटनाओं में एक बुनियादी समानता है और वह है हमारे समाज में बच्चों की हिफाजत करने के बोध, तैयारी और ईमानदार कोशिशों का अभाव। बचपन के प्रति उदासीनता भरी सामाजिक मानसिकता, गैर जिम्मेदाराना रवैया तथा चारों ओर पसरी संवेदनशून्यता इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के बडे़ कारण हैं। इसलिए यह लाजमी है कि बच्चों के प्रति व्याप्त किसी भी प्रकार की हिंसा, असुरक्षा व उनकी जिन्दगी के जोखिमों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाये साथ ही सर्वांगीण समाधान भी ढूंढा जाय।
लेखक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता एवं बचपन बचाओ आन्दोलन के प्रणेता हैं।


