लहजे में बदजुबानी, चेहरे पे नक़ाब लिए फिरते हैं/ जिनके ख़ुद के बही खाते बिगड़े हैं, वो मेरा हिसाब लिए फिरते हैं

भारतीय परंपरा में तोल-मोल के बोलने की सलाह दी गई है। यह हमेशा समझाया गया है कि जुबान से निकली बात, उस तीर की तरह होती है, जिसे वापस नहीं लिया जा सकता। लेकिन राजनीति में इस सलाह को अक्सर दरकिनार किया गया है और विरोधी पर प्रहार के लिए जुबानी हमला किया जाता रहा है। ऐसे हमले का ताजा उदाहरण संसद में देखने मिला, जब लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही सदनों में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषणों में कुछ ऐसी टिप्पणियां की, जो राजनैतिक मर्यादा के लिहाज से अनुचित लगीं।

संसद में अपने दो भाषणों के कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विपक्ष के निशाने पर आ गए हैं। लोकसभा में उन्होंने उत्तराखंड में आए भूकंप का जिक्र राहुल गांधी के भूकंप संबंधी बयान का मजाक उड़ाने के लिए किया, जिस पर उनकी पार्टी के लोग तो खूब हंसे।

अपने भाषण में श्री मोदी ने आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान पर भी टिप्पणी की कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो चार्वाक के सिद्धांत पर चलते हैं, चार्वाक ने कहा था कर्ज लो और घी पियो, पर शायद भगवंत मान होते तो कुछ और ही पीने को कहते।

नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी से आहत भगवंत मान ने लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को एक पत्र दिया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि प्रधानमंत्री ने उनको लेकर जो टिप्पणी की थी उसे सदन की कार्यवाही से बाहर किया जाए।

इधर, यह विवाद थमा ही नहीं था, कि अगले ही दिन राज्यसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह पर टिप्पणी की। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि 'बाथरूम में रेनकोट पहनकर नहाने की कला डॉ साहब ही जानते हैं और कोई नहीं जानता।

गौरतलब है कि पिछले सत्र में नोटबंदी पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था कि विमुद्रीकरण को जिस तरह से लागू किया गया है, वह ऐतिहासिक कुप्रबंधन है और यह संगठित एवं कानूनी लूट का उदाहरण है।

तो मोदी जी मनमोहन सिंह के बयान का जवाब उन्हें रेन कोट पहनाकर दे डाले। जिस पर काफी हंगामा और विवाद हो रहा है।

भारतीय राजनीति में असंसदीय छीटाकशियों और अपने प्रतिद्वंदियों के प्रति अपमानजनक टिप्पणियों का एक लंबा इतिहास रहा है। शायद इसकी शुरुआत आज़ादी से पहले तीस के दशक में हुई थी जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने गाँधी से अपने मतभेदों के चलते उनके लिबास पर अभद्र टिप्पणी करते हुए उन्हें 'नंगा फ़कीर' कहा था।

बदजुबानी केवल भारतीय राजनीति में नहीं है। विदेश में भी इसके उदाहरण देखने मिलते हैं।

हाल के दिनों में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टिप्पणियां काफी विवादों में रहीं। फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतार्त भी अपनी अशोभनीय बातों के कारण आलोचना के पात्र बने।

लंदन के मेयर रह चुके बोरिस जॉनसन भी अभद्र टिप्पणियों के कारण जाने जाते हैं। हालांकि प्रेक्षकों का मानना है कि उनकी भाषा ट्रंप जितनी भद्दी तो नहीं है लेकिन ब्रिटेन के मानकों के मुताबिक उनका मुकाम काफी नीचे माना जाता है। उनसे पहले ब्रिटिश नेताओं में सबसे कंटीली-पथरीली भाषा विंस्टन चर्चिल की मानी जाती थी। उनकी एक राजनीतिक विरोधी ने संसद में कहा था कि 'प्रधानमंत्री महोदय, अगर मैं आपकी पत्नी होती तो किसी सुबह आपकी कॉफी में जहर मिला देती।

'जवाब में चर्चिल बोले, 'महोदया, अगर आप सचमुच मेरी पत्नी होतीं तो वह जहर मिली कॉफी मैं खुशी-खुशी पी लेता।'

ये वही चर्चिल हैं जिन्होंने बाद के दिनों में गांधीजी को नंगा फकीर कहा था।

इधर भारत में साठ के दशक में जब इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनी तो शुरू में संसदीय बहसों में वो इतनी मुखर नहीं थीं। इस पर उनके ज़बर्दस्त आलोचक बन चुके समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया उन्हें गूँगी गुड़िया कह कर पुकारने लगे थे। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन का उन्हें चुड़ैल कहना भी अब जग-जाहिर हो चुका है।

नरसिम्हा राव की महत्वपूर्ण विषयों पर कुछ न कहने की प्रवृत्ति के कारण आलोचक उन्हें 'मौनी बाबा' कहने लगे थे।

1992 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने मुलायम सिंह यादव की मुस्लिम परस्त छवि के लिए 'मौलाना मुलायम' का विशेषण गढ़ा था।...

जब चुनाव नजदीक आते हैं तो बदजुबानी का ग्राफ भी बढ़ जाता है। ..

यह विचारणीय विषय है कि ऐसी टिप्पणियां करके ये नेता राज्य की जनता को क्या संदेश दे रहे हैं? शायद नेता भूल गए कि आम जनता राजनीतिक नेतृत्व को रोल मॉडल मानती है।

अपने सदाचरण के लिए महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता, पं.जवाहर लाल नेहरू को चाचा नेहरू तथा कई अन्य राजनेताओं को इसी तर्ज पर आत्मीय संबोधन मिले, लेकिन मौजूदा दौर में कोई नेता आम जनता से ऐसी आत्मीयता का हकदार नहीं दिखता। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। जब राजनीति वैचारिक आधार खो देती है, तब ऐसा आचरण सामने आने लगता है।

ये घटनाएं संकेत देती हैं कि राजनीति किस हद तक वैचारिक दीवालियेपन की शिकार हो चुकी है।

राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की परिपाटी बंद हो चुकी है। हर नेता शार्टकट तलाश रहा है। बदजुबानी इसी का कुफल है। नेता जनता की इस बात को समझें कि

यूँ जो उफ़्ताद पड़े हमपे वो सह जाते हैं..हाँ कभी बात जो कहने की है कह जाते हैं

राजीव रंजन श्रीवास्तव