पंजाब में आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ लड़ाई में सबसे आगे रहने वाले वयोवृद्ध कम्युनिस्ट नेता सत्यपाल डांग का अमृतसर में लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया।

वह 93 वर्ष के थे। उनकी पत्नी विमला डांग भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की नेता थीं। उनका मई 2009 में निधन हो गया था। सत्यपाल डांग प्रतिष्ठित कम्युनिस्ट नेता रहे हैं। आतंकवाद के दौर में भी वे अमृतसर में डटे रहे। उनकी पत्नी विमला डांग पंजाब विधानसभा की सदस्य थीं।

लायलपुर (अब पाकिस्तान) में जन्म, लाहौर अैर मुम्बई में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अमृतसर को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले सत्यपाल डांग अपने सपने को आंखों में सँजोये रहे। 89 साल की उम्र में भी सामाजिक बदलाव और व्यवस्था परिवर्तन की आँधी उनकी आँखों में देखी जा सकती है। सत्तर साल पहले कम्युनिस्ट पार्टी का झण्डा थाम चुके सत्यपाल डांग में मृत्युपर्यन्त वही जज्बा, ईमानदारी और जूनून रहा। इस जुनून में कम्युनिस्टों के प्रति उनकी नाराजगी भी साफ दिखती थी। ऑल इण्डिया स्टूडेण्ट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) के महासचिव, अमृतसर (पश्चिम) से चार बार विधायक और भाकपा नेशनल कौंसिल के सदस्य रह चुके डांग ने जीवन भर निजी सम्पत्ति का विरोध किया। पंजाब में उग्रवाद के समय इसका तीव्र राजनीतिक और रचनात्मक प्रतिवाद किया। ऐसे जुझारू डांग को शत्-शत् नमन।

हमारे साथी प्रदीप सिंह वर्ष 2008-2009 में एक अखबार के संवाददाता के तौर पर पंजाब में तैनात थे। उन्होंने उस समय डांग से लोकसभा चुनाव सहित मौजूदा व्यवस्था में वामपंथी दलों के योगदान पर विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे हुयी बातचीत के मुख्य अंश -

आज के चुनावों में राजनीतिक दलों के एजेण्डे से राष्ट्रीय मुद्दे गायब हैं। 15 वाम चुनाव स्थानीय मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। इसका क्या कारण मानते हैं।

गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार भुखमरी और महँगाई से पूरा देश परेशान है। आपको ये मुद्दे स्थानीय लगते होंगे लेकिन यह राष्ट्रीय मुद्दा है। देश के हर भाग में एक तरह की समस्यायें हैं। आम आदमी की हालात बदतर होती जा रही है। दोनों मुख्य पार्टियाँ भाजपा और काँग्रेस हवाई बातों में जनता को उलझाये रखना चाहती हैं। भूख और गरीबी न तो उनके एजेण्डे में है और न ही उनको दूर करना चाहती हैं। सरकार तो परमाणु करार और आँकड़ों में बढ़ रही खुशहाली की बात करती है। पंजाब के सन्दर्भ में भी यदि बात करें तो यहाँ भी गरीबी है, किसान कर्ज तले दबे हुये हैं, भ्रष्टाचार से यहाँ के लोग भी परेशान हैं। पहले हमें आम लोगों को खुशहाल करना होगा। उनकी रोजमर्रा की समस्यायें खत्म करनी होंगी। तब जाकर हम राष्ट्रीय मुद्दे की बात कर सकते हैं। अभी अस्सी फीसदी आबादी को परमाणु करार से क्या लेना-देना है। उन्हें तो पहले दो वक्त की रोटी चाहिये। इसलिये परमाणु करार अभी आम चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकता।

राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र से आम जन के हितों की बात दूर होती जा रही है। आप इसका क्या कारण मानते हैं।

- जहाँ तक राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में आम लोगों के हित से जुड़ी सवाल की बात है। तो इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। आज की सरकारें घोषणा पत्र के आधार पर नहीं चलती हैं। यदि जनहित का कोई मुद्दा उनके घोषणा पत्र में जगह पा भी गया है तो वे उसे पूरा नहीं करते। असली बात राजनेताओं के नीयत का है। जब नीयत में ही खोट है तो वादे से कुछ नहीं होगा। असली बात इरादे और प्रतिबद्धता की है। आज सरकारें पूँजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों की दलाल नजर आती हैं। आपने गौर किया होगा, जैसे-जैसे कॉरपोरेट घरानों की अमीरी बढ़ती जा रही है वैसे ही चुनाव खर्च भी बढ़ता जा रहा है। राजनीति के केन्द्र बिन्दु में पैसा और पॉवर आ गया है। आम आदमी उसकी परिधि से बाहर है।

वामदलों का आधार दिनों दिन सिकुड़ता जा रहा है, इसके लिये कौन जिम्मेदार है?

इसके लिये वाम दल खुद जिम्मेदार हैं।

इस चुनाव में भाजपा नेता लालकृण्ण आडवाणी कहते हैं कि यदि उनकी सरकार बनती है तो वे स्विस बैंक में जमा भारतीयों के काला धन को वापस लायेंगे। क्या उसे लाना सम्भव है?

सत्ता में आने के बाद भाजपा क्या करती है यह किसी से छिपा नहीं है। लालकृण्ण आडवाणी क्या कहते हैं, मैं इस पर नहीं जाना चाहता। लेकिन स्विस बैंक में जमा काला धन वापस आ सकता है। यदि सरकार इसको करना चाहे। यह सम्भव है।

देश में लगातार वामपंथी, जनवादी आन्दोलनात्मक गतिविधियाँ कमजोर हो रही हैं। संसदीय राजनीति में भी इनकी संख्या उँगलियों पर गिनने लायक है। इसका आप क्या कारण मानते हैं?

इस दौर में वामपंथी क्या हर तरह के आन्दोलन कमजोर दिखायी दे रहे हैं। यह बात तो सही है। कि वामपंथी आन्दोलन कमजोर हुआ है। इसका कोई एक कारण नहीं है। कई कारण हैं जिससे वामपंथी और लोकतान्त्रिक आन्दोलन कमजोर हुये हैं। सबसे बड़ा कारण तो कम्युनिस्ट पार्टियों की कमजोरी है। आज के हालात और परिस्थितियों को देखते हुये वामदल उसको दिशा नहीं दे पा रहे हैं। आम लोगों के बीच जाने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि लोग वामपंथियों को नजरअंदाज करना चाहते हैं। वामदल अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में नकामयाब हैं। यदि वे जनता के बीच जायें और उनके मुद्दे उठाये तो निश्चित सफलता मिलेगी। इतने दिनों के बाद भी वामदल कुछ जगहों को छोड़ कर आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। इसका कारण है कि जनता उन्हें नहीं अपना रही है। जनता क्यों नहीं अपना रही है इसे वामदलों को सोचना होगा और इसका कारण चिन्हित करके लड़ना होगा।

पश्चिम बंगाल की सरकार को लेकर लोग खूब टिप्पणी करते हैं। लम्बे समय से वहाँ वाम दलों की सरकार चल भी रही है। आप की नजर में पश्चिम बंगाल की सरकार क्या सही है?

तीन दशक से यदि पश्चिम बंगाल में माकपा की सरकार बन रही है। हर बार जनता जिता रही है तो निश्चित ही बंगाल की जनता माकपा को अन्य दलों से बेहतर समझती है। जनता को एक दो बार कोई पार्टी छल या धोखा दे सकती है। बार -बार नहीं। रही बात धाँधली की तो ऐसा अभी कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है जो यह कह सके कि माकपा फर्जी तरीके से अब तक चुनाव जीतती रही है।

माकपा क्षेत्रीय दलों से मिलकर मोर्चा बनाने के लिये दिन रात एक कर रही है। जबकि वाम दलों की एकता कम महत्वपूर्ण नहीं है। वाम महासंघ बनने में मुख्य बाधा क्या है?

एक कम्युनिस्ट पार्टी होनी चाहिये। यदि नहीं है तो एक करने की लगातार कोशिश होनी चाहिये। विभिन्न वाम पार्टियों और संगठनों को एकजुट करने की जितनी कोशिश होनी चाहिये वह नहीं हुयी। वक्त की जरूरत और देश हित की माँग है कि वाम एकता बने। लेकिन नहीं बन पा रही है। इसके लिये गंम्भीर प्रयास की जरुरत है। करात साहब यदि वाम धड़ों को एक जुट करें तो दीर्घकालिक राजनीति के लिये यह ज्यादा फायदेमन्द साबित होगा। देवगौड़ा, लालू प्रसाद और वीपी सिंह के साथ बहुत राजनीति हो चुकी।

वाम एकता न बन पाने के लिये दोषी कौन है?

वाम एकता की जगह माकपा और भाकपा ही एक हो जायें यही बड़ी बात है। वाम एकता न हो पाने में हम कम्युनिस्ट दोषी हैं। माकपा और भाकपा दोषी हैं। दोनों बड़ी पार्टियों को जितना प्रयास करना चाहिये नहीं कर रही हैं। दूरदृष्टि का अभाव और शॉर्टकट की राजनीति इसमें सबसे बड़ी बाधा है। माकपा-भाकपा के एक हो जाने से वाम एकता की बुनियाद बनेगी।

पंजाब में एक समय भाकपा का काफी जनाधार था। अब नहीं है। इसके पीछे क्या कारण है?

पंजाब एक समय वाम आन्दोलन का गढ़ था। हम अपने आधार को बचाने में कामयाब नहीं रहे। इसके लिये माकपा और भाकपा समान रूप से दोषी हैं।

हर चुनाव के बाद माकपा और भाकपा, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने और धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने की बात करने लगती हैं। जबकि इसके लिये जनता उनको जनादेश नहीं देती है। अन्ततः धर्मनिरपेक्षता के नाम पर काँग्रेस की सरकार बन जाती है। क्या यह जनमत का अनादर नहीं है?

भाजपा और धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र की राजनीति करने वाली पार्टियाँ देश के लिये खतरनाक हैं। इसकी भरसक कोशिश होनी चाहिये की वह सत्ता में न आने पायें। जनता ने यदि अपना मत एक पार्टी को नहीं दिया है। तब भाजपा की सरकार हम क्यों बनने देंगे। जनता की राय बदलनी भी पड़ती है। कम्युनिस्ट पार्टी का रोल नेतृत्व करना भी होता है। साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों को शिकस्त देने के लिये काँग्रेस और धर्मनिरपेक्ष दलो को समर्थन देना पड़ता है।

काँग्रेस और भाजपा में कौन ज्यादा साम्प्रदायिक है?

शत प्रतिशत शुद्धता की बात नहीं है। भाजपा तो घोषित रूप से साम्प्रदायिक और फासीवादी पार्टी है। जिसका एजेण्डा ही एक धर्म और सम्प्रदाय के खिलाफ है। काँग्रेस भाजपा से बेहतर है। काँग्रेस को पूरी तरह बरी नहीं किया जा सकता है।

पंजाब में उग्रवाद की समस्या से काफी दिनों ग्रस्त रहा। पंजाब ने इसकी काफी बड़ी कीमत चुकायी। इसके क्या कारण थे।

कुर्सी और साम्प्रदायिक राजनीति के कारण पंजाब के हजारों लोगों को अपनी जान देनी पड़ी। राजनीति में जब धर्म का घालमेल किया जाता है। तब ऐसी ही समस्यायें पैदा होती हैं। बेरोजगारी, भुखमरी को समाप्त और समता मूलक समाज ही ऐसी समस्याओं का निदान है।

देश के सामने सबसे ज्वलन्त समस्या क्या है?

अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि आजादी के इतने दिनों बाद भी देश गरीबी और अशिक्षा से उबर नहीं पाया है। यही देश के लिये आज भी समस्या है। साठ साल पहले भी थी।

आप अपने जीवन और राजनीति से कितना संतुष्ट है। जो करना चाहते थे क्या कर पाये?

मैं अपने जीवन और काम से पूरी तरह संतुष्ट हूँ। बहुत कुछ किया। आजादी की लड़ाईयाँ भी लड़ीं, जेल भी गये, अन्दर ग्राउण्ड रहा। आजदी के बाद भी यह जारी रहा। कई हड़तालें कीं, भूख हड़ताल पर बैठा। कुछ हासिल किया कुछ नहीं कर सका। मुझे किसी बात का अफसोस नहीं है।

आजादी के दिन आप कहाँ थे?

उस दिन मैं चेकोस्लोवाकिया में था। मेरे साथ कई साथी कर्म सिंह मान, फजले इलाही, कुर्बान, मंसूर आदि थे। यहाँ के कत्लेआम का हमें वहीं पता चला। बहुत दुख हुआ था।

Enough politics with Lalu Mulayam, now Left unity is the need of the hour - Dang