लिंग दृष्टान्त, विस्थापन, भूत की कहानी और असंभव रोमांस का एक अजीब मिश्रण “क़िस्सा”
लिंग दृष्टान्त, विस्थापन, भूत की कहानी और असंभव रोमांस का एक अजीब मिश्रण “क़िस्सा”

“क़िस्सा” (Qissa) अनूप सिंह द्वारा लिखित और निर्देशित 2013 की एक भारतीय जर्मन-नाटक फिल्म (Indian german-drama film) है. यह पहली ऎसी भारतीय फिल्म है, जो पहले जर्मनी में रिलीज़ हुई है और बाद में भारत में. यह फिल्म समकालीन विश्व सिनेमा खंड के अंतर्गत टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव 2013 (Toronto International Film Festival 2013) में दिखाई गई, जिसमें इस फिल्म ने विश्व या अंतर्राष्ट्रीय एशियाई फिल्म के लिए Netpac पुरस्कार जीता. एनएफडीसी ने 2014 के उत्तरार्द्ध में इसके भारत में रिलीज की पुष्टि की है. 10 जुलाई 2014 को बर्लिन, फ्रैंकफर्ट और स्टुटगार्ट सहित जर्मनी में सत्रह शहरों के सिनेमाघरों में यह फिल्म रिलीज हो गई है. स्वतंत्र फिल्म वेबसाइट ने इसी वर्ष सितंबर 2014 में भारत में इसके रिलीज़ होने की घोषणा की है.
((यहाँ प्रस्तुत है अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों के ज़हीन आलोचक जे वाइसबर्ग द्वारा अबू धाबी फिल्म महोत्सव (न्यू हॉरिज़न्स) में 26 अक्टूबर, 2013 को की गई इस फिल्म की समीक्षा का हिन्दी रूपान्तरण.))
यद्यपि यह फिल्म लिंग दृष्टान्त, विस्थापन की वृहत् विषय वस्तु, भूत की कहानी और असंभव रोमांस का एक अजीब मिश्रण है, तथापि “क़िस्सा” अपनी विषयगत असमानता की पूर्ति के लिए पर्याप्त उत्तेजक सामग्री देती है. फिल्म की कहानी भारत के विभाजन और बेटा पाने के लिए बेताब एक पिता के जुनून पर ऐसा बेहतरीन सन्देश देती है कि खुले दिमाग वाले दर्शकों द्वारा भी इसे हैरानी के साथ स्वीकार करने की संभावना है, विशेषकर तब जब अनूप सिंह सोफोमोर हेल्मर की प्रशंसा करते हुए अपना शक्तिशाली सन्देश देते हैं. फिल्मी सितारे इरफान खान का आकर्षण होने के बावजूद यह फिल्म स्वदेशी प्रान्तों में ही सीमित रहेगी, यद्यपि टोरंटो (Netpac), मुंबई और अबू धाबी में मामूली बढ़त इस फिल्म की कहानी के एक स्वस्थ मजबूत कैरियर का पूर्वाभास देती है.
"क़िस्सा" पहली पिक्चर है, जो अपेक्षाकृत नई भारत-जर्मनी सह उत्पादन संधि का प्रत्यक्ष रूप से पश्चिमी दल के सदस्यों की बड़ी उपस्थिति का तकनीक क्रेडिट में लाभ लेने के लिए बनाई गई है.
सिंह ने पहले केवल भारत में धन जुटाने का प्रयास किया, लेकिन पंजाबी के बजाय हिंदी में पिक्चर शूट करने के दबाव के कारण उन्हें वैकल्पिक आय के स्रोतों को देखना पड़ा. "कल्पित कहानी" (Fable) या पौराणिक कथा (legend) के लिए अक्सर प्रेस नोट में पंजाबी शीर्षक "एक अकेला भूत की कथा," नाम से संलग्न किया जा रहा है, यद्यपि यह कहानी का एक गलत प्रतिबिंब है, और इसके प्रयोग से बचा जाना चाहिए.
दुर्भाग्यपूर्ण रूप से वर्णित 1947 के भारत विभाजन के लिए कुछ जागरूकता आवश्यक है, ताकि उस घटना के प्रभाव को समझा जा सके, जो इस ऐतिहासिक घटना ने चरित्रों की मानसिकता पर डाला है. आरंभिक दृश्य पंजाब के पाकिस्तानी हिस्से में एक सिख गांव में तबाही दिखाते हैं, जहाँ पुरुषों ने महिलाओं और बच्चों को छिपने के लिए बाढ़ के मैदानों में भेज दिया है, क्योंकि गुंडे हस्तांतरण कार्य पूरा होने से पहले ही निवासियों पर हमला करते हैं. भारतीय क्षेत्र में ज़बरन प्रस्थान करने से पहले, उम्बेर सिंह (खान) हत्या किये गए एक मुसलमान को कुएं में फेंक देता है, ताकि नए निवासियों को जहर के रूप में पानी की आपूर्ति हो.
उम्बेर अपने जीवन के पुनर्निर्माण के लिए कृतसंकल्प है, कुछ मायनों में, निर्वासन के आघात का बदला लेने के लिए सन्नद्ध है और जल्द ही बड़ी अच्छी तरह से सुसज्जित उसका एक घर होगा. (यह स्पष्ट नहीं है कि वह किस प्रकार अपना धन इकट्ठा करता है), फिर भी, पत्नी मेहर (तिस्का चोपड़ा) लड़कियों को जन्म दिये जा रही है और वह कहता है कि वह अब बेटियों को देखने में असमर्थ है. जब मेहर फिर से गर्भवती होती है, वह खुद को विश्वास दिलाता है कि अब उसे बेटा ही होगा। सिंह भली भाँति विचारशील है, लेकिन यह स्पष्ट है कि लंबे समय से प्रतीक्षित पुरुष वारिस कंवर के जन्म के समय उम्बेर की खुशी के बावजूद पैदा होने वाला बच्चा लड़की ही है.
जीव वैज्ञानिक चेहरा देखकर भी उम्बेर कंवर का बेटे की तरह पालन पोषण करता है. उसका दृढ़ संकल्प और भ्रम इतना मुकम्मल है कि मेहर और उनकी दो बेटियों को भी यह नाटक करते रहने के लिए सहमत होना पड़ता है.
जब कंवर (दानिश अख्तर ने बच्चे की भूमिका अदा की है) को उसका मासिक धर्म होता है, उम्बेर इसे छिपाने की भरपूर कोशिश करता है, पुरुष के रूप में कंवर की आत्म- पहचान सुनिश्चित करने के लिए वह उसे कुश्ती के सबक और अन्य मर्दाने कार्यों की ओर खदेड़ता है.
पिताजी के प्यार में अपनी विशेषाधिकार प्राप्त जगह बनाए रखने के लिए बड़े होने पर जब कंवर (तिलोत्तमा शोम) का लड़का होने का छल ज़ारी है, जिप्सी लड़की “नीली” (रसिका दूगल) कंवर के साथ इश्क लड़ा बैठती है. उसे उत्तेजित करते हुए उसके साथ खेलती है और वह उन गहरी आँखों के सौंदर्य के जाल में फंस जाता है. रातोंरात एक लकड़ी के केबिन में उनका यौन तनाव एकाएक उभरकर आ जाता है. दूसरे दिन सुबह कंवर जब उसे बाहर निकालने के लिए जाता है, नीली का पिता उन दोनों को एक साथ देख लेता है और अनुमान लगाता है कि उसकी बेटी की इज्जत पर कीचड़ उछाला गया है. उम्बेर के लिए, उसकी समस्या का यह एक आदर्श समाधान है: - कंवर का एक ऎसी स्त्री से विवाह कर देना, जिसकी निम्न जाति का दर्जा उसे सदा के लिए आभारी बनाए रखेगा और उसके बेटे के असली लिंग का खुलासा करने से उसे रोके भी रखेगा, लेकिन नीली अपने श्वसुर की कल्पना की तुलना में कम सुनम्य है.
भूत का पिक्चर में प्रवेश करना काफी कुछ प्रकट करता है; एक अलौकिक दृश्य कहानी को अचानक अनपेक्षित दिशाओं में मोड़ देता है, जो दर्शकों को एक असाधारण, साहसी, चमत्कारिक चरमोत्कर्ष या एक अनावश्यक छलांग लगाते हुए विभाजित कर देता है. इसी तरह, कई लोग यह सवाल कर सकते हैं कि उम्बेर द्वारा बेटे की ज़रूरत विभाजन की मानसिक यातना से जुड़ी हुई है, क्योंकि विवशता की स्थिति में नियंत्रण के लिए शरणार्थी की जरूरत के बावजूद महिलाओं के प्रति उसकी उपेक्षापूर्ण प्रवृत्ति और हिंसक व्यवहार निश्चित रूप से निर्वासन का पूर्ववर्ती लक्षण है.
दुर्भाग्यवश निर्देशक एक ऐसे परिवार से आता है, जिसने जड़ से उखाड फेंक दिए जाने की पीड़ा का अच्छी तरह से अनुभव किया है. अनूप सिंह की पहली फिल्म "एक नदी का नाम" (IFFR 2002) भी विभाजन के दृश्य को दर्शाती है, फिर भी उस खौफनाक घटना को एक लिंग निर्देशत कहानी में संशोधित करना पूरी तरह आश्वस्त नहीं करता है. किन्तु भावनात्मक संबंध, परंपरा और सामाजिक अपेक्षाओं को “क़िस्सा” में बहुत गहराई से दर्शाया गया है.
हालांकि “क़िस्सा" महान शक्ति का विभाजन है और पितृसत्तात्मक उत्पीड़न के अपने संदेश को बहुत ही हृदयस्पर्शी ढंग से संप्रेषित करती है.
नीली के प्रेमपूर्ण आलंबन के कारण एक दृश्य जिसमें कंवर उद्विग्न है, अंत में भीड़ के सामने उसके स्तनों को उजागर करता है, जो निश्चित रूप से एक चौंकाने वाला और गहरा प्रभाव डालने वाला दृश्य है, यद्यपि भारत में रिलीज किये जाने के लिए इसमें कांट-छांट किये जाने की आवश्यकता हो सकती है.
शोम ने अबू धाबी में श्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीता है और उसका निर्भीक अभिनय लिंग की अवधारणा को इतने अखंड रूप से जोड़ता है कि पुरुष और स्त्री के बीच की सीमारेखा अप्रासंगिक में विलीन हो जाती है. दूगल ने उसे बड़ी खूबसूरती से पूरक बनाया है, जिसमें प्रारम्भ में “नीली” एक आधे जंगली प्राणी के रूप में होती है और जल्द ही जिन्हें वह प्यार करती है, उनके लिए वह असीम, सुरक्षात्मक भावना के साथ एक निर्भीक स्वतन्त्र स्त्री के रूप में बदल जाती है. कुछ मायनों में, खान की भूमिका बहुत मुश्किल है, अपने भ्रम और क्रूरता के बावजूद उम्बेर को एक सहानुभूतिशील व्यक्ति बनाए जाने की ज़रूरत है. यदि ऐसा किया जाता है तो फिल्म की स्क्रिप्ट से अधिक इस बारे में चर्चा होगी.
डी.पी. सेबस्टियन एडश्मिड ("अंतिम स्टेशन") कुछ दृश्यों के साथ, बड़े परदे का अच्छा उपयोग करता है: जैसे युवा कंवर के खेल खेल में कुएं में उतरने और फिर ऊपर खींच लिये जाने का दृश्य अमिट छाप छोड़ता है. सावधानीपूर्वक साधे गए सुरों का विन्यास है और प्रकाश ध्यान आकर्षित करने वाला है, यह अति नाटकीयता की ओर जाता है, जिसके तीखेपन को डीसीपी ने अप्रिय बना दिया है.
फिल्म “क़िस्सा” की समीक्षा
-समीक्षक- जे वाइसबर्ग (Jay Weissberg)
अनुवादक – प्रतिभा उपाध्याय
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Crew
Directed by Anup Singh. Screenplay, Singh, Madhuja Mukherjee. Camera (color, HD, widescreen), Sebastian Edschmid; editor, Bernd Euscher; music, Beatrice Thiriet; production designer, Tim Pannen; art director, Sameer Vidhate; costume designers, Divya Gambhir, Nidhi Gambhir; sound (Dolby 5.1), Peter Flamman, Simone Galavazi; line producer, Rakesh Mehra; associate producers, Sahab Narain, Claudia Tronnier, Doris Hepp; assistant director, Florian Engelhardt.
With
Irrfan Khan, Tisca Chopra, Tillotama Shome, Rasika Dugal, Danish Akhtar, Faezeh Jalali, Sonia Bindra. (Punjabi dialogue)


