International Day of Family Remittances | Social distancing makes society from domestic workers in lockdown

16 जून को विश्व ‘अन्तर्राष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस (international domestic workers day) मनाया जाता है। घरेलू कामगार दिवस मई दिवस या महिला दिवस की तरह प्रसिद्ध नहीं है, जबकि इसमें महिला और मजदूर दोनों हैं। घरेलू कामगार में 14 साल से कम उम्र के 20 प्रतिशत बच्चे हैं, जबकि 12 जून को हर साल बाल मजदूर दिवस मनाया जाता है। लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस के दिन उनको याद नहीं किया जाता।

कौन होता है घरेलू कामगार | Who is a domestic worker

घरेलू कामगार को हम मेड या नौकर बुलाते हैं जिसमें महिला और पुरुष दोनों आते हैं लेकिन इस काम में 80 प्रतिशत महिलाएं हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस पर न तो सरकार की तरफ से कोई संदेश दिया गया और ना ही मीडिया में जगह मिल पाई।

इस बार अन्तर्राष्ट्रीय घरेलू कामगार दिवस पर बात करना और जरूरी हो जाता है क्योंकि जिस मेड के बेल बजाने से पहले नींद खुलती थी आज उनको सोसाइटी के गेट तक आने से मनाही है। इस दिन उन कामागर महिलाओं से बात करने की कोशिश की गई जो लॉकडाउन के दौरान अपने बस्तियों और घरो में कैद हैं।

बिन्दू जे.जे. कैम्प बादली में रहती है। बिहार की बेगूसराय जिला की रहने वाली है। बचपन में माता-पिता के साथ दिल्ली आ गई और उनकी विवाह भी यहीं पर हुआ। कुछ समय बाद पति की मृत्यु हो गई। घर चलाने और बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेवारी बिन्दू पर आ गई। बिन्दू पढ़ी-लिखी नहीं थी और कोई काम भी नहीं जानती थी उसने घरों में मेड का काम शुरू किया। पहले एक घर, दो घर फिर तीन घरों में काम करना शुरू किया और अपने बच्चों को भरण पोषण करने लगी।

इस तरह 20 साल से अधिक गुजर गये कोई ऐसा दिन नहीं होता कि उनको घर बैठने का आराम मिले। स्वास्थ्य ठीक नहीं होने पर छुट्टी कर लेने पर फोन आ जाता था कि थोड़ा देर से ही सही, आ जाओ, बहुत काम है। बिन्दू की कोई भी परिस्थिति हो उनको काम पर जाना ही पड़ता था।

लॉक डाउन से पहले वह बादली गांव और रोहणी सेक्टर-19 के घरों में काम करती थी जहां से उसे 4000 और 1500 रू. मिलते थे। कमाये हुए पैसे, विधवा पेंशन और सरकारी राशन से बिन्दू का परिवार चल जाता था और थोड़ी बहुत बचत भी कर लेती थी। इन छोटी-छोटी बचतों से उसने दो लड़कियों की शादी भी कर दी और दो बच्चों का पालन-पोषण कर रही थी।

लॉकडाउन के कारण से वह घर पर बैठी हैं जहां पहले समय से थोड़ा देर होने पर तुरंत फोन आ जाता था वहीं जब बिन्दू फोन करती है तो कोई फोन रिसिव नहीं करता या कभी यह कह कर रख देते हैं कि वह बाद में फोन कर लेंगे। बिन्दू को मार्च माह का पैसा तो मिल गया लेकिन अप्रैल-मई माह का एक रू. भी नहीं मिला। रोहणी सेक्टर 19 से मार्च माह में 100 रू. कम ही मिला था। बिन्दू को अब डर लग रहा है कि जिस बढ़ी हुई पेंशन और बढ़े हुए राशन से परिवार का भरण-पोषण कर रही थी वह अब बन्द हो जायेगा और काम शुरू नहीं हुआ तो परिवार चलाना मुश्किल हो जायेगा। उन्होंने अपने काम वाली जगह पर फोन की तो उन्होंने मना कर दिया कि अभी नहीं आ सकती हो, हम तुझे फोन कर लेंगें।

यह हाल केवल बिन्दू का ही नहीं है इसी तरह की कहानी रिंकू और पावित्री देवी की भी है जो बादली गांव में किराये पर रहती हैं।

रिंकू और पावित्री दोनों बिहार से 10 साल पहले परिवार के साथ जिविका की तलाश में दिल्ली आ गई थी। पति रिक्शा चलाने लगे लेकिन किराये का मकान और परिवार का खर्च पति के कमाई से नहीं चल पा रहा था।

रिंकू बताती हैं कि गांव पर खेती नही है बस थोड़ी सी घर की जमीन है, उनके पति विकलांग भी हैं तो ज्यादा काम नहीं कर सकते थे। रिंकू, पावित्री के साथ रोहणी सेक्टर 16 में मेड का काम करने लगी। चार घरों में काम करने पर 6000-7000 रू. महीने तक कमा लेती थी। लॉकडाउन लागू होने के बाद तीन घरों से मार्च का पूरा पैसा मिल गया लेकिन एक घर से 22 तारीख तक का ही पैसा दिया। अप्रैल और मई माह में पैसा नहीं मिला। रिंकू के घर का राशन खत्म हो चुका है किसी एनजीओ की मद्द से उनको राशन मिला तो उनके घर का चूल्हा जला। रिंकू ने सबसे पहले अपनी उन मैडमों को याद किया जहां काम करती थी और यह सोच कर फोन किया की कुछ सहायता मिल जायेगी। कुछ लोग फोन ही नहीं उठाये एक मैडम ने फोन उठाया तो रिंकू को खुशी हुई कि अब उनको कुछ सहायता मिल जायेगा।

रिंकू ने बोला कि कुछ सहायता किजिये तो उन्होंने बोला कि हमें भी पैसा नहीं मिल रहा है हम तुम को कहां से दें। रिंकू के पास स्मार्टफोन नहीं था वह दिल्ली सरकार के ई-कूपन फॉर्म भरे जाने की बात सुनी थी तो सोची की मैडम यह फॉर्म भरने में मद्द कर सकती हैं, वह पढ़ी लिखी हैं। लेकिन मालकिन ने यह कहते हुए मना कर दिया कि वह यह काम नहीं जानती है और फोन कट गया।

रिंकू को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें क्योंकि मालकिन ने सोशल डिस्टेंश बना रखी थी। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा उनको मिली उसने रिंकू सहित कई लोगों का ई-कूपन फॉर्म भरा और लोगों व एनजीओ की मद्द से उनको राशन पहुंचाने का काम किया।

यह कहानी केवल दिल्ली का ही नहीं गुड़गांव, नोएडा, मुम्बई जैसे महानगरों की भी है। कुछ मैड यह सोचकर सोसायटी के पास तक जाती थी कि मैडम फोन पर बात नहीं कर रही हैं हो सकता है मिल कर बात करने से वह बात मान जायेंगी। लेकिन यह क्या मालकिन कि कोठी से बहुत पहले खड़ा चौकीदार यह कहते हुए भगा देता है कि आरडब्ल्यूए अध्यक्ष का आदेश है कि कोई भी बाहरी व्यक्ति अन्दर नहीं जा सकता, जब जरूरत होगा फोन किया जायेगा।

इन कामगारों से सोशल डिस्टेंस बना लिया गया था ‘तुम मरो या जियो’ हमको जरूरत नही है ‘जब हमें जरूरत होगा तब तुमको बुलायेंगे’ तुम नहीं आई तो सैकड़ों-हजारों लाईन में खड़े हैं वह आ जायेंगे।

यह कामगार गरीब और तंग बस्तियों में रहते हैं जहां माना जाता है कि कोरोना संक्रमण फैलाने का खतरा ज्यादा है।

बिन्दू, रिंकू या पावित्री तो अपने परिवार के साथ आती हैं उनके परिवार को पता है कि हमारी घर की औरतें किस सोसाईटी किस फ्लैट में काम करती हैं। इस काम में बहुत सी नाबालिग लड़कियां झारखंड और उड़ीसा की आदिवासी बहुल क्षेत्र से लाई जाती हैं जिनको मालूम भी नहीं होता है कि वह किस जगह काम कर रही हैं और उनके काम के बदले उनके परिवार वालों को कितना पैसा मिलता है। इसकी कई झलक हमें दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में देखने को मिल जाती है जैसा कि लॉकडाउन के दौरान 14 मई को प्रीत विहार में काम करने वाली नाबालिग लड़की मालिक के चंगुल से भागकर घर जाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुंची जहां पर जीआरपीएफ के जवानों के द्वारा गैंग रेप किया गया।

गुड़गांव के अन्दर नाबालिग नौकरानी को घर के अंदर बंद करके रखा जाता था। परिवार जब रिश्तेदार की शादी में गया था तो उसे ताले में बन्द कर दिया गया था।

2017 की महागुन सोसाईटी में मैड को किस तरह पीट कर छुपा दिया गया था और जब कामगार इक्ट्ठा होकर बोले तो उनको पीटा गया उनके ऊपर ही केस दर्ज करा दिया गया, उन्हें बंग्लादेशी, घुसपैठिया बोल कर प्रचारित किया गया।

दिल्ली के संसद भवन के नजदीक सांसद के बंगले में एक नौकरानी को मार दिया गया। इस तरह की घटनाएं शहर के बाहरी हिस्से में तो शहर के बीचों-बीच घटित होती रहती हैं कुछ तो बाहर आती हैं लेकिन अधिकांश घटनाएं अन्दर ही दबा दी जाती है। जब महिलाएं वर्षों घर नहीं जा पाती है तो मां-पिता यह सोच लेते हैं कि जवान थी शादी कर के परिवार बसा लिया होगा। क्योंकि वह यह भी नहीं जानते कि उनकी बेटियां, बहनें कहां काम करती थी, किसके पास काम करती थी जो दलाल ले गया होता है वह भी दुबारा नहीं मिलता। वह कामगार कहां दम तोड़ा/तोड़ी किस तारीख तक वह जिन्दा था/थी कुछ पता नहीं चलता और वह गरीब परिवार को महानगरों, शहरों तक पहुंच नहीं होती।

घरेलू कामगार जो शहरों में काम करने के लिए आ रहे हैं वह निरक्षर या कम पढे लिखे होते हैं। जिनको शहरों की भौगोलिक जानकारी भी नहीं होती ना ही वे अपने अधिकारां को जानते हैं। उनसे 12-15 घंटे तक काम लिया जाता है इनके लिए अभी तक न तो भारत में कोई कानून बना है ना ही श्रम के घंटे और मजदूरी तय की गई है।

भारत ने 2011 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के घरेलू कामगारों को संरक्षण प्रदान करने के लिए समझौता संख्या 180 का समर्थन किया है लेकिन अभी तक भारत में उसे लागू नहीं किया गया है। 2015 में बीजेपी सांसद किरीट भाई सोलंकी ने संसद में घरेलू कामगार विधेयक पेश किया था लेकिन आज तक वह कानून नहीं बन पाया है। किरीट भाई सोलंकी कहते हैं कि श्रम संगठन द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक ‘‘भारत में घरेलू कामगारों की संख्या 5 करोड़ से ज्यादा है जिनमें महिलाओं की संख्या ज्यादा है। ‘डोमेस्टिक वर्कर्स बिल’ उन करोड़ों कामगारों को पहचान और काननू संरक्षण दिलाने के लिए काफी अहम हैं।’’

सुनील कुमार sunil kumar सुनील कुमार sunil kumar

भारत के श्रम और रोजगार राज्य मंत्री संतोष गंगवार ने लोकसभा में बताया है कि एनएसएसओ के आंकड़ों के अनुसार देश में 39 लाख घरेलू कामगार काम करते हैं जिसमें से 26 लाख महिलाएं हैं। घरेलू कामगारों सभी प्रकार के शोषण से बचाने के लिए घरेलू कामगार नीति बनाने पर विचार कर रही है। इन घरेलू कामगारों की राष्ट्रीय स्तर पर कोई यूनियन नहीं है यहां तक कि स्थानीय स्तर पर बहुत ही नाम मात्र की यूनियनें काम कर रही हैं।

महागुन सोसाईटी की घटना के बाद जरूर कुछ संगठनों ने प्रयास किया था लेकिन वह अभी भी भ्रूण अवस्था में है। 1980 में पुणे में घरेलू कामगार हड़ताल पर चली गई थीं उनके बाद उनका संगठन बना जो कि पुणे, नागपुर और मुम्बई जैसे जगहों पर काम करती हैं इसके आलवा कुछ तमिलनाडू में इनकी यूनियनें हैं। गरीब, निरक्षर और अकुशल होने के कारण इनके पास बहुत सी जानकारी नहीं होती भारत को जल्द से जल्द इन मजदूरों के लिए कानून लाकर इनके काम के घंटे, तनख्वाह, संगठित होने का अधिकार लागू करना चाहिए। लॉक डाउन के दौरान मालिक अगर पैसे नहीं दे रहे हैं तो सरकार इनको पैसा दे।

सुनील कुमार