लोकतंत्र की हत्या के बाद फिर राष्ट्र, राष्ट्र नहीं होता भले ही वह हिंदू राष्ट्र हो जाये
लोकतंत्र की हत्या के बाद फिर राष्ट्र, राष्ट्र नहीं होता भले ही वह हिंदू राष्ट्र हो जाये
राष्ट्र प्रेम और स्वराज का शत प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश
भारत के गांवों और किसानों के खिलाफ षड्यंत्र का केंद्र फिर वही योजना आयोग का अवतार नीति आयोग है
न जाने कितने हजारों हजार आदिवासी, दलित ,पिछड़े गांव उजाड़े जाने हैं और न जाने किस किस सोनी सोरी का चेहरा जलाया जाना है
पलाश विश्वास
गौरतलब है कि पहली हरित क्रांति वाले प्रदेशों, पंजाब-हरियाणा में किसान न सिर्फ अपनी जीवनलीला समाप्त करने पर मजबूर हो रहे हैं बल्कि पूरी खेती का मॉडल बिखर गया है। अब तो बंगाल जैसे राज्य में जहां भूमि सुधार आंदोलन हुआ, वहां भी किसान आत्महत्या करने लगे हैं। दो रुपये केजी चावल देकर जनता को भूख के खिलाफ लड़ते हुए सड़कों पर बम गोला का सामना करना पड़ रहा है और इसके बावजूद हम अच्छे दिनों के सब्जबाग को राष्ट्र मान रहे हैं।
भूमि सुधार का नारा था कि खेत जोतने वालों का खेत का मालिकाना हक दिया जाये।
विडंबना यह है कि एकाधिकार मनसेंटो राज में विदेशी बीज, विदेशी उर्वरक और विदेशी कीटनाशक बजरिये खेतों में जहर पैदा करने के लिए खेती ठेके पर देकर किसानों को बंधुआ बनाने की इस दूसरे चरण की हरित क्रांति को केसरिया अर्थशास्त्री दूसरे चरण का भूमि सुधार कहने और साबित करने में भी बेशर्म गर्व महसूस कर रहे हैं।
यह राष्ट्र प्रेम और स्वराज का शत प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश है। अबाध पूंजी हमारे किसानों को बंधुआ बनाकर उनसे उनकी जमीन छीनने वाले हैं और कृषि को सर्वोच्च वरीयता देने वाले मनुस्मृति अर्थ शास्त्र का रामराज्य यही है।
खेत खलिहान और गांव का बजट यही है कि भारत में मुकम्मल मनसेंटो राज कायम करने के लिए बंधुआ खेती को जायज बनाने को वैधता दी जाये। इंफ्रास्ट्राक्चर के बहाने हाईवे विकास का किस्सा अलग है। मूल हरित क्रांति का नजारा हम अब भी समझ नहीं सके हैं और न भारतीय कृषि संकट को अभी समझ सके हैं।
सच यह है कि देश में मुक्त बाजार के इस मरघट मंजर के मध्य अब भी 10.5 करोड़ से अधिक किसान परिवार हैं और इन परिवारों से शिक्षित युवा हाथों को रोजगार नहीं है और न वैकल्पिक या स्थानीय रोजगार के कोई उपाय हैं तो कम श्रमशक्ति का इस्तेमाल करने वाली तकनीक कैसे कृषि का उद्धार कर सकती है?
सच यह भी है कोई 6 करोड़ 20 लाख किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। ऐसे में कॉरपोरेट खेती का लाभ कितने किसान और कौन से किसान उठा पाएंगे?
सबसे बड़ा सच यह है कि जिन-जिन इलाकों में किसानों ने अनाज की खेती छोड़कर वाणिज्यिक खेती अपनाई (कपास, सोयाबीन आदि) वहीं सबसे ज्यादा संकट है और यही किसान निराश होकर आत्महत्या कर रहे हैं।
गौरतलब है कि वर्ष 2002-03 में हुए राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक 90 फीसदी से भी अधिक किसान अपने उत्पादन की लागत नहीं निकाल पाते हैं यानी हर साल घाटे में खेती करने के लिए वे अभिशप्त हैं।
तब से लेकर अब तक कृषि में विदेशी पूंजी का एकाधिकारवादी आक्रमण जारी है और अब किसानों के साथ साथ एक ही तीर से छोटे और मंझोले कारोबारियों की चांदमारी बिजनेस फ्रेंडली गवर्नेंस है।
अब शून्य के करीब हो चुकी कृषि विकास दर को विदेशी पूंजी का इंजेक्शन लगाया जा रहा है तो जल जंगल जमीन से बेदखली का सिलसिला और तेज होना है और न जाने कितने हजारों हजार आदिवासी, दलित ,पिछड़े गांव उजाड़े जाने हैं और न जाने किस किस सोनी सोरी का चेहरा जलाया जाना है।
न जाने सलवा जुड़ुम का विस्तार कहां कहां होना है और न जाने कहां आफसा लागू होना है और कहां नहीं। न जाने कितने इरोम शर्मिला के आमरण अनशन के बाद राष्ट्र के विवेक जागेगा।
विकास का नाम अंधाधुंध शहरीकरण।
औद्योगिक विकास का नाम अंधाधुंध शहरीकरण।
मेकिंग इन का मतलब बुलेट ट्रेन और स्मार्ट शहर और निराधार आधार।
सारे कल कारखाने इसलिए मरघट में तब्दील हैं तो खेती का सत्यानाश अभी पूरी तरह नहीं हुआ है और इसकी पूरी तैयारी है।
साफ जाहिर है कि योजना आयोग के अवसान के बाद इस हिंदुत्व समय के उदात्त राष्ट्रवादी अंधे गौर में भारतीय किसानों के लिए कटकचटेला अंधकार है और भारत के गांवों और किसानों के खिलाफ षड्यंत्र का केंद्र फिर वही योजना आयोग का अवतार नीति आयोग है। काॅरपोरेट ठेके की खेती और कॉरपोरेट सीधी खेती के जरिये बड़ी कंपनियों के लिए कृषि योग्य जमीन खोलने की तैयारी हो रही है।
गौरतलब है कि विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के तहत 10 फीसदी कृषि उत्पादों के निर्यात के निर्देश का पालन करते हुए अन्न उत्पादन से किसानों को हटाने की तैयारी हो रही है।’
हकीकत यह है कि बाजार में नकली बीज, नकली खाद और नकली उर्वरकों की भरमार है और राष्ट्रीय बीज निगम की भूमिका नगण्य हो गई है। अब इस बाजार पर बीज और खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र की सबसे बड़ी बहू-राष्ट्रीय कंपनियां मोनसेंटो और कारगिल कब्जा जमाने के लिए कमर कस चुकी हैं।
विश्व बैंक का दबाव और विश्व व्यापार संगठन की बाध्यताएं हैं कि इन कंपनियों के पक्ष में कानूनों में संशोधन किया जाए। योजना आयोग के मसौदे में इस तरह के भविष्य के जो संकेत साफ नजर आ रहे थे, वे केसरिया राजकाज के भव्य राममंदिर हैं। नीति आयोग वही कर रहा है जो योजना आयोग करता रहा है।
दूसरी तरफ सरकारी कर्मचारी भले ही निजीकरण, ठेका मजदूरी और विनिवेश का विरोध न करें, लेकिन आजाद भारत में मजदूर यूनियनों की कृपा से वेतन भत्ता पीएफ ग्रेच्युटी आदि के बारे में बेहद संवेदनशील है। सरकारी कर्मचारियों की हर मांग इसीलिए मांग ली जाती है क्योंकि राजकाज उन्हीं के मार्फत चलता है और तंत्र की मजबूती उन्हीं की वजह से सही सलामत बनी रहती है।
पीएफ पर टैक्स सरकारी कर्मचारी हजम नहीं कर सकते तो तुरत फुरत यह टैक्स वापस करने की घोषणा हो गयी, लेकिन पेंशन योजना और पीएफ, बीमा इत्यादि जो सीधे बाजार में निवेशकों की मुनाफावसूली के लिए उत्सर्गित है, उस पर न सरकारी कर्माचारियों को और न उनकी यूनियनों को कुछ कहना है। जैसे उन्होंने विनिवेश और निजीकरण का विरोध अभीतक नहीं किया है।
हमने भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के नाम एक खुला पत्र लिखकर देश के वित्त मंत्री पर सर्वोच्च अदालत की अवमानना के मामले का संज्ञान लेने का निवेदन किया है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है कि आधार अनिवार्य नहीं है जबकि माननीय वित्तमंत्री ने अपने बजट प्रस्तावों में आधार को सब्सिडी के लिए अनिवार्य बताया है। यह सर्वोच्च अदालत की अवमानना का मामला है।
हम शुरु से गैरकानूनी आधार परियोजना को नागरिकों की निगरानी तंत्र बतौर देख रहे थे जो नागरिकों की जान माल को सीधे मुक्त बाजार के आखेटगाह की हत्यारी मशीनों से नत्थी करती है। हम लगातार इसके खिलाफ बोलते बोलते, लिखते-लिखते थक गये हैं। हमारी किसी ने सुनवाई नहीं की।
आत्मध्वंस का रास्ता जनता ने स्वेच्छा से चुन लिया है। अब हम इसका कुछ नहीं कर सकते और जबकि ज्यादातर लोगों का आधार कार्ड बन गया है, हम किसी से अब नहीं कहते कि आधार कार्ड मत बनाना, क्योंकि जरुरी सेवाएं आधार से जुड़ रही हैं और आधार का विरोध किसी भी राजनीतिक दल ने अभी तक नहीं किया है तो आधार न बनवाने वाले नागरिकों की जरुरी सेवाएं रुक जायें तो हम उन्हें बहाल करने की हालत में भी नहीं हैं।
फिर भी बड़ी संख्या में नागरिकों के आधार कार्ड अभी बने नहीं है। फिर भी बड़ी संख्या में नागरिक इसे अपनी निजता के विरुद्ध मानते हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उन नागरिको के हितों के मद्देनजर आधार कार्ड को ऐच्छिक बताया है तो माननीय वित्तमंत्री ने उन हितों पर कुठाराघात करके सर्वोच्च अदालत की अवमानना की है।
अभी आधार कार्ड कानूनी तौर पर वैध भी नहीं है, उसे वैध बनाने के लिए हड़बड़ी में सर्वोच्च न्यायालय को रबर स्टांप बनाने की तैयारी है और मनी बिल के जरिये आधार को कानूनी जामा पहनाने की तैयारी है और जाहिर है कि इस पर सर्वदलीय सहमति भी है।
यही हमारा राष्ट्र है और यही है हमारा राष्ट्रवाद।
हिंदू राष्ट्र हो न हो राष्ट्र कहीं नहीं है और न लोकतंत्र कहीं है।
लोकतंत्र में शासक भी आजाद होता है। उतना ही आजाद जितनी आजादी जनता की होती है। उसे चीखों से डर नहीं लगता और न लोकतंत्र में आजाद जनता को चीखने की कोई जरुरत होती है।
लोकतंत्र न हो तो जनता पर तो कयामत बरपने का सिलसिला खत्म ही नहीं होता। शासक तब तानाशाह होता है। बेहद डरा हुआ तानाशाह।
जो हवाओं की हलचल में आतंक की खुशबू सूँघता है।
पानी में जिसे जहर घुला हुआ दीखता है।
सांसों के चलने से जिसे बगावत का डर हो जाय।
जो जमीन पर पांव रख नहीं सकता क्योंकि जमीन उसे दहकने लगती है और हमेशा उड़ान पर रहता है वह ताकि जनता उसे छू भी न सकें।
वह चैन से सो नहीं सकता क्योंकि लगातार लगातार वह अपने डोलते हुए सिंहासन में हिचकोले खाता है।
ये वे हालात हैं, जिसमें जनता के मौलिक अधिकार, नागरिक अधिकार और मानवाधिकार पर पहरा होता है। विचारों पर पहरा होता है। सपनों पर भी पहरा होता है, क्योंकि शासक बेहद डरा हुआ होता है।
सूचना से सबसे ज्यादा डर लगता है।
सच से उससे ज्यादा डर लगता है।
अहिंसा से बहुत डर लगता है।
शासक सच और अहिंसा के दमन के लिए अपनी सारी ताकत झोंक देता है। सच से डरता है शासक और अहिंसा से सबसे ज्यादा डरता है क्योंकि वह भीतर बाहर हिंसक है घनघोर और हिंसा ही उसकी भाषा है। उसे सबसे ज्यादा डर मेल मुहब्बत से है क्योंकि उसकी संस्कृति विभाजन और ध्रुवीकरण की है। उसकी राजनीति की नींव घृणा है।
हूबहू यही हो रहा है।
सारे दरवाजे बंद हैं। सारी खिड़कियां बंद हैं।
सिर्फ अबाध पूंजी है।
सिर्फ राष्ट्र है।
खंड विखंड भूगोल कोई राष्ट्र नहीं होता।
राष्ट्र का शरीर होता है।
राष्ट्र का मन होता है।
राष्ट्र का विवेक होता है।
राष्ट्र का दिलोदिमाग होता है।
राष्ट्र का रक्त मांस हाड़ होता है जो जनता का रक्त मांस हाड़ होता है।
जनता ही राष्ट्र का शरीर होता है। जनता के दमन से राष्ट्र ही लहूलुहान होता है और अंततः जनता के विभाजन से राष्ट्र का ही विखंडन होता है। हूबहू यही हो रहा है। यह बहुत खतरनाक है।
राष्ट्रप्रेम वही होता है जो भारत की सांस्कृतिक साझा विरासत है कि मजहब चाहे कुछ हो, नस्ल चाहे कुछ हो, हर नागरिक का दिलोदिमाग फिर वही राष्ट्र होता है।
नागरिकों से अलग राष्ट्र को न कोई चेहरा होता है और न वजूद।
नागरिकों का दमन करने वाला राष्ट्र न होकर सैन्यतंत्र होता है जहां लोकतंत्र की कोई गुंजाइश नहीं होती।
नागरिक फिर नागरिक होता है।
स्वतंत्र और संप्रभु नागरिक।
लिंग, जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र से नागरिक छोटा बड़ा नहीं होता।
यह नागरिकता जब तक है तब तक राष्ट्र है वरना राष्ट्र नहीं है।
लोकतंत्र ही राष्ट्र का प्राण पाखी है।
लोकतंत्र की हत्या के बाद फिर राष्ट्र, राष्ट्र नहीं होता भले ही वह हिंदू राष्ट्र हो जाये।


