लोकतांत्रिक दायरे में कोई भी लड़ाई लड़ने का निर्णायक औज़ार संविधान ही है
लोकतांत्रिक दायरे में कोई भी लड़ाई लड़ने का निर्णायक औज़ार संविधान ही है
देश में लम्पट हिंदू गिरोह के समर्थन वाली सरकार को आए महज नौवां महीना शुरू हुआ है और उसके गर्भ में संविधान परिवर्तन का कीड़ा कुलबुलाने लगा है। 'सेकुलर' और 'सोशलिस्ट' को हटाए जाने की मांग शिवसेना ने कर दी है।
हम लोग बहुत छोटे थे, तब नागभूषण पटनायक के नेतृत्व में 1982 में आइपीएफ का गठन हुआ था। आइपीएफ मने इंडियन पीपुल्स फ्रंट। यह 1994 में भंग कर दिया गया। बारह साल की अपनी छोटी सी उम्र में इसने एक जनता के संविधान की बात चलाई थी, जैसा कि इससे जुड़े कुछ पुराने लोग बताते हैं। यह प्रस्ताव क्यों अधर में रह गया, इसकी जानकारी देने वाले बहुत से लोग अभी हमारे बीच मौजूद हैं। हो सकता है किसी के पास उसका ड्राफ्ट भी मौजूद हो।
बहरहाल, देश में लम्पट हिंदू गिरोह के समर्थन वाली सरकार को आए महज नौवां महीना शुरू हुआ है और उसके गर्भ में संविधान परिवर्तन का कीड़ा कुलबुलाने लगा है। 'सेकुलर' और 'सोशलिस्ट' को हटाए जाने की मांग शिवसेना ने कर दी है। कुछ महीनों पहले 'आज तक' पर अपने शो में पुण्य प्रसून वाजपेयी ने इस सरकार को ललकारा था कि वह संविधान बदल कर दिखाए। उसी रात मैंने यहीं इस बारे में लिखा था और तब कुछ लोगों की राय थी कि वह तो "सटायर" (व्यंग्य) था। वह "सटायर" आज जब बैकफायर कर चुका है, तब भी कुछ समझदार लोग इसे हलके में ले रहे हैं और कह रहे हैं कि संविधान में दो शब्दों के होने भर से क्या होता है जबकि वास्तव में स्थिति दूसरी है।
लोकतांत्रिक दायरे में कोई भी लड़ाई लड़ने का निर्णायक औज़ार संविधान ही है। अगर आप संसदीय लोकतंत्र के बाहर की लड़ाई के पैरोकार हैं तो पहले एक वैकल्पिक संविधान का खाका पेश करिए, जैसी कोशिश आइपीएफ में हुई थी। अगर आपके पास विकल्प नहीं है, तो यह सुनिश्चित करिए कि करोड़ों लोगों के पास लड़ने के इकलौते औज़ार यानी मौजूदा संविधान के साथ कोई छेड़छाड़ ना हो। और प्लीज़, दस लाख के कोट, पंद्रह लाख की राशि, चार-पांच-दस बच्चों और किरण बेदी आदि पर मूर्खतापूर्ण बहसों को तत्काल बंद करिए। बोलना ही है तो संविधान के बारे में बोलिए। यह समय की मांग है।
अभिषेक श्रीवास्तव


