सुनील कुमार
15 अगस्त 1947 के बाद कुछ लोग इसको सत्ता हस्तांतरण मानते हैं तो कुछ राजनीतिक स्वतन्त्रता तथा कुछ लोगों को यह पूर्ण स्वतन्त्रता लगती है। स्वतन्त्र भारत मानने वाले लोगों की तरफ से भारतीय लोकतन्त्र को दुनिया का सबसे बड़े लोकतन्त्र के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। वह यह कहते नहीं थकते हैं कि यहाँ करोड़ों लोगों द्वारा चुनी गई सरकार होती है। कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका है जो किसी बिना दबाव व भेद-भाव के काम करती है। न्यायपालिका, मीडिया स्वतन्त्र है। देश धर्मनिरपेक्ष है, सबको अपनी मर्जी से धर्म चुनने का, विचार प्रकट करने का अधिकार है इत्यादि-इत्यादि। इन सभी तर्कों से ‘महान लोकतन्त्र’ को जिन्दा रखने की कोशिश की जाती है। ‘स्वतन्त्र भारत’ के विचारों को कुछ समय के लिए सही भी मान लें तो मन में कुछ प्रश्न उठते हैं। कोई भी विचारधारा अपने उम्र के हिसाब से परिपक्व होती है। भारतीय ‘लोकतन्त्र’ जो कि 67 वर्ष पूरे कर चुका है वहाँ पर लिंग, धर्म, जाति, नस्ल का भेद भाव अभी तक जिन्दा क्यों है और यह दिनों दिन बढ़ता क्यों जा रहा है? शोषित-पीड़ित, वंचितों की बात करने वाली विचारधाराओं पर दमन क्यों हो रहा है? क्यों लोगों को फर्जी मुठभेड़ों में मारा जा रहा है, क्यों हजारों आदिवासी जेलों में ठूंस दिये गये हैं? क्या इसी को लोकतन्त्र कहा जाता है?

बढ़ती दूरी जन और ‘जनसेवक’ में

अर्जुन सेन गुप्ता रिपोर्ट के अनुसार भारत के 77 प्रतिशत लोग गरीब रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं वहीं भारत के 82 प्रतिशत सांसद करोड़पति-अरबपति हैं। 15 वीं लोकसभा में 300 सांसद करोड़पति-अरबपति थे, 16 वीं लोकसभा में इनकी संख्या बढ़कर 442 हो गई है। सांसद ही नहीं विधानसभाओं में भी करोड़पति-अरबपति विधायकों की संख्या बढ़ी है। हरियाणा, महाराष्ट्र के हालिया विधानसभाओं में करोड़पति-अरबपति विधायकों की संख्या सांसदों को भी पीछे छोड़ दिया है। हरियाणा के 83 प्रतिशत (90 में से 75) वहीं महराष्ट्र के 88 प्रतिशत (288 में से 253) विधायक करोड़पति-अरबपति हैं।

आम-आदमी से खाद, पानी, बिजली से सब्सिडी छीनी जा रही हैं वहीं इन करोड़पति-अरबपति सांसदों की कैन्टीन में भारी सब्सिडी दी जाती है। आम आदमी के लिए फुट-पाथ पर 8-10 रु. में चाय मिल रही है वहीं इन सेहदमंद सांसदों को वातानुकुलित कैन्टीन में दाल 1.5 रु., डोसा 4 रु. में और चाय व सूप 1 रु. व 5.50 रुपये में मिल जाता है।

‘चुने हुए जनप्रतिनिधियों’ के लिए वाशिंगटन, पेरिस, लंदन नजदीक है जहाँ आये दिन यह जाते रहते हैं। लेकिन इनका अपना संसदीय क्षेत्र दूर हो जाता है जहाँ साल या पांच साल में एक दो बार चले जाते हैं। ‘लोकतन्त्र का गुण’ सीखने के लिए ब्रिटेन और अमेरिका जाते हैं लेकिन ‘जनप्रतिनिधि’ के नाते जनता को सुनने और समझने के लिए उनके पास जाना मुनासिब नहीं समझते। भाषणों में गरीबों के लिए घड़ियाली आंसू बहाते हैं, योजनायें बनाते हैं उसके लिए जनता पर टैक्स बढ़ाते हैं और साल में करीब 5.5 लाख करोड़ रु. की छूट पूंजीपतियों को देते हैं। वोट मांगने के लिए अपने को मजदूर-किसान का आम बेटा या बेटी बताते हैं लेकिन इनका शपथ ग्रहण हो या पार्टी व परिवारिक समारोह उसमें सभी खास (नेता, अभिनेता, पूंजीपति, खिलाड़ी) लोग ही नजर आते हैं यानी मुह में राम और बगल में छुरी।

खेल अपराध का

समाज में बढ़ते हुए अपराध पर संसद चिंतित हैं इसलिए बाल अपराधियों की उम्र (18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष) को कम करने के लिए कानून में बदलाव किये जा रहे हैं जिससे कि ‘अपराध’ पर लगाम लगाया जा सके। संसद में आपराधिक मामले वाले सांसदों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है 14 वीं लोकसभा में 128, 15वीं लोकसभा में 162 तथा 16वीं लोकसभा में इनकी संख्या 186 हो गई है। आज हर तीसरे सांसद पर आपराधिक केस दर्ज हैं। भारत के प्रधानमंत्री मोदी चुनाव प्रचार के समय व प्रधानमंत्री बनने के बाद संसद और विधानसभाओं को अपराध मुक्त करने के लिए बेचैन दिखे लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद हुए महाराष्ट्र के चुनाव में 288 विधायक में से 165 पर केस दर्ज हैं। भाजपा के 122 विधायकों में से 74 (60 प्रतिशत) पर केस दर्ज हैं। महाराष्ट्र के नव निर्वाचित मुख्यमंत्री पर 22 केस दर्ज हैं। क्या देश की आम जनता 33 प्रतिशत अपराधी छवि की है?

अपराधियों के साथ-साथ व्यापारियों की संख्या संसद में बढ़ रही है। राजनीतिक काम सामाजिक काम होता है यानी यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस सामाजिक काम पर व्यापारिक वर्ग का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है पहले वह पर्दे के पीछे होते थे अब वह सीधे मंच पर आसीन होने लगे हैं। इस बार संसद में 20 प्रतिशत व्यापार से जुड़े लोग पहुँचे हैं। खाप पंचायत को भारतीय संविधान की धज्जियां उड़ाने, सामंती बर्बरता के लिए जाना जाता है। संविधान की रक्षा की कसम खा कर हरियाणा के मुख्यमंत्री, मंत्री बने खाप पंचायत और उसके फरमानों को सही मानते हैं।

स्वतन्त्र मीडिया ?

भारत में प्रचार किया जात है कि मीडिया स्वतन्त्र है और वह हमेशा ही निष्पक्ष होकर खबरों को छापता या दिखाता है। नीरा राडिया केस में जिस तरह से मीडिया की भूमिका सामने आई उससे काफी कुछ साफ हो गया। मीडिया वही दिखाता है जो एक खास वर्ग को पसंद आता है। मीडिया के लिए मेहनतकश जनता की समस्या या आन्दोलन कोई खबर नहीं बन पाती है। आरूषि हत्या कांड, खिलाड़ियों, अभिनेता-अभिनेत्रियों की प्रेम जैसी खबर सालों साल सुर्खियों में रहती हैं लेकिन मारूति के 147 मजदूरों को 29 माह से जेल के काल कोठरियों में बिताना एक दिन के लिए भी सुर्खी नहीं बन पाती है। गुजरात मॉडल को लगातार सुर्खियों में रहता है जब तक उसे मंजिल नहीं मिल जाती लेकिन उसी गुजरात के किसानों का आन्दोलन के लिए मीडिया के पास एक घंटा नहीं होता है।

25 अक्टूबर, 2014 को मोदी द्वारा मीडिया वालों की चाय पर मुलाकात और मोदी के साथ मीडियाकर्मियों द्वारा सेल्फी लेने की होड़ ‘स्वतन्त्र व निष्पक्ष’ मीडिया पर कई सवाल खड़े करते हैं। आम जनता की बात कने वाले व ‘सादगी’ पसंद मोदी दिल्ली में एक ड्रेस तो दो घंटे बाद मुम्बई में दूसरे ड्रेस में नजर आते हैं। अमेरिका में दिन में कई कई ड्रेस बदलना मोदीमय मीडिया के लिए खबर नहीं बनती हैं।

क्या जिस ‘लोकतन्त्र’ में साम्प्रदायिक शक्तियों का वर्चस्व हो धर्म, जाति के नाम पर आवाम को लड़ाया जाये, मेहनतकश आवाम की बात करने वलों को देशद्रोही कहना लोकतन्त्र है? जिस देश में बहुसंख्यक आवाम दो जून की रोटी जुटाने में हैरान-परेशान हैं उस देश के ‘जनप्रतिनिधि’ करोड़पति-अरबपति की संख्या बढ़ती जाये क्या इससे गरीबी दूर होगी? जिस देश की आवाम अपराधियों से डर कर चुप रहना ही मुनासिब समझती हो उस देश के ‘जनप्रतिनिधि’ ही अपराधी हो तो क्या जनता उससे अपनी बात कह सकती है? जहाँ पर मीडिया कर्मी प्रभावशाली लोगों के साथ साठ-गांठ बना कर रखने और उनके साथ सेल्फी लेने में मशगूल हो वहाँ पर मीडिया से निष्पक्षता की उम्मीद की जा सकती है? क्या ‘लोकतांत्रिक’ देश मानने वालों के लिए यह ‘लोकतन्त्र’ पर खतरा नहीं लगता है? क्या ऐसे ‘लोकतन्त्र को अब भी बचा कर रखने की जरूरत हैं?

सुनील कुमार, लेखक राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।