"वतन की फ़िक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है"
"वतन की फ़िक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है"

Sikar: Prime Minister and BJP leader Narendra Modi addresses during a public meeting in Rajasthan’s Sikar, on Dec 4, 2018. (Photo: IANS)
मीडिया के माध्यम से और संघ परिवार के 'कनबतिया' प्रोग्राम की असीम अनुकम्पा से भारत में लोक सभा चुनाव के बरक्स इन दिनों एक छवि का निर्माण किया जा रहा है कि गुजरात के महान> मुख्यमंत्री और भाजपा तथा एनडीए के तथाकथित प्रतीक्षारत प्रत्याशी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी मानो बनारस और वडोदरा से संसद में पहुँचने वाले हैं और भाजपा एक सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के रूप में राष्ट्रव्यापी स्पष्ट जनादेश पाकर अपने एनडीए अलायंस को साथ लेकर मोदी के नेतृत्व में महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के समक्ष पेश होगी कि 'लो हुजूर हम आ गए हमें शपथ दिलाओ'! कि लाल किले पर भगवा झंडा फहराने का वक्त आ गया है। कि भारत को अब लोकतंत्र नामक 'बिजूके' की, धर्मनिरपेक्षता के पुरातन मूल्यों की अब कोई जरूरत नहीं क्योंकि एक अदद फुहरर देश की सेवार्थ अब संघ परिवार ने पैदा कर लिया है।
राजनीति यदि तथाकथित अनेक संभावनाओं से भरी पड़ी है तो जो कुछ परिदृश्य सप्रयास निर्मित किया जा रहा है, तस्वीर इसके उलट क्यों नहीं हो सकती है? जैसे कि मान लो कांग्रेस अपने दिग्गज और धर्मनिरपेक्ष चेहरे-दिग्विजयसिंह को बनारस से चुनाव लड़ा दे। तमाम गैर भाजपाई पार्टियां- सपा, बसपा, वामपंथ, नवोदित 'आप' और समस्त धर्मनिरपेक्ष-जनतांत्रिक ताकतें एकजुट होकर दिग्विजय सिंह को जिताने में जुट जाएँ तो मोदी को बनारस से हराया क्यों नहीं जा सकता ?
मान लो मोदी बनारस से हार जाएँ और उन्हें हराने वाला कोई भी हो, भले ही वे दिग्विजयसिंह ही न हों !
मोदी बनारस से हारते हैं तो यूपी से उनका अधिक से अधिक सीट लाने का मनोरथ भी पूरा कैसे हो सकेगा ? तब जरूरी नहीं कि भाजपा को उसके चापलूसों ने अपने काल्पनिक सर्वे में जो 200 से ज्यादा सीटें एडवांस में दिलवा दीं वे मिल ही जाएँगी ! तब जरूरी नहीं कि एनडीए का कुनवा 272 को छू सके ! तब जरूरी नहीं कि 'गुजरात नरेश' वड़ोदरा से जीतकर भारत के प्रधानमन्त्री बन ही जाएँ ! तब यह भी तो सम्भव है कि बनारस की ही तरह धर्मनिरपेक्षता की राष्ट्रव्यापी जीत भी प्रत्याशित हो !
चूँकि कांग्रेस <यूपीए>, सपा, बसपा, वामपंथ, जदयू, नवीन पटनायक, जयललिता तथा अन्य कई भाजपा विरोधी पार्टियाँ और धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं और वे सभी चाहें तो न केवल बनारस बल्कि अखिल भारतीय पैमाने पर धर्मनिरपक्ष मतों का विभाजन रोकर कट्टर साम्प्रदायिकता का, फासिज्म का, पाखंड की विजय का रास्ता रोक सकते है। जनतांत्रिक ताकतों का अभी भी देश में बहुमत है। धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकजुटता से ही निरंकुश शासकों के आसन्न संकट को रोका जा सकता है। यदि एकजुट नहीं होंगे तो लतियाये जायेंगे और फिर दशकों तक लोकतंत्र की वापिसी के लिए संघर्ष करना होगा। अभी तक तो केवल वामपंथ ही भारत में धर्मनिरपेक्ष - जनतांत्रिक शक्तियों की एकता के लिए निरंतर प्रयास रत रहा है लेकिन कांग्रेस सपा, बसपा, जदयू, आप और अन्य सभी दल अपने निहित स्वार्थजन्य- अहंकार के चलते मोदी की आंधी को केवल सत्ता परिवर्तन समझने की भूल कर रहे हैं। इन सभी को चाहिए कि अपने -अपने पार्टी आफिस की दीवारों पर जनाब अल्लामा इकबाल साहिब की ये पंक्तियाँ लिख लें ताकि विवेक जाग्रत होने की कुछ तो सम्भावना बनी रहे।
"वतन की फ़िक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है,
तेरी बर्बादियों के मशविरे हैं आसमानों में,
न संभलोगे तो मिट जाओगे, हिंदोस्ताँ वालों,
तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी दस्तानों में"
श्रीराम तिवारी


