वाम-जनवादी राजनीति के हामी ‘मुर्दहिया’कार डॉ. तुलसी राम नहीं रहे

नई दिल्ली।‘मुर्दहिया’कार डॉ. तुलसी राम नहीं रहे। आज सुबह फरीदाबाद के रॉकलैंड अस्पताल में उन्होंने आख़िरी साँसें लीं। यह ख़बर हिंदी जगत और हिन्दुस्तान की वाम-जनवादी ताक़तों के लिए स्तब्धकारी है, यद्यपि हम सब जानते थे कि यह ख़बर कभी भी आ सकती है। वे लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। हर हफ़्ते दो बार उन्हें डायलिसिस पर जाना होता था। इसके बावजूद वे सक्रिय थे और देश में साम्प्रदायिक दक्षिणपंथ के उभार के ख़िलाफ़, अपनी शारीरिक अशक्तता से जूझते हुए, लगातार लिख-बोल रहे थे। दलित समुदाय में जन्मे डॉ. तुलसी राम अस्मितावादी राजनीति के ख़िलाफ़ थे और मार्क्सवाद-अम्बेडकरवाद का साझा मोर्चा बननेवाली वाम-जनवादी राजनीति के हामी थे।

सुश्री अनीता भारती ने एक विज्ञप्ति में बतायाहै कि डॉ तुलसी राम जी का पार्थिव शरीर कल 14 फरवरी शनिवार की सुबह 8 बजे से 10 बजे तक 19, दक्षिणापुरम, जे एन यू, नई दिल्ली में अंतिम दर्शन हेतु रखा जाएगा तथा अंत्येष्टि लोधी मुक्ति धाम, नई दिल्ली में दोपहर 12 बजे बौद्ध रीति से संपन्न होगी।

1 जुलाई 1949 को जन्मे डॉ. तुलसी राम सेंटर फ़ॉर इंटरनेशनल स्टडीज़, जेएनयू में प्रोफेसर थे। वे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन और रूसी मामलों के विशेषज्ञ थे। अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध आन्दोलन, दलित आन्दोलन और हिंदी साहित्य में भी उनकी गहरी पैठ थी। कार्ल मार्क्स, माहात्मा बुद्ध और डॉ. अम्बेडकर को अपने पथप्रदर्शक विचारक माननेवाले तुलसी राम जी ने हिन्दी और अंग्रेज़ी, दोनों में प्रभूत लेखन किया। ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ शीर्षक से छपी उनकी आत्मकथा के दोनों खंड हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि के रूप में मान्य हैं। इनके अलावा ‘अंगोला का मुक्तिसंघर्ष’, ‘सी आई ए : राजनीतिक विध्वंस का अमरीकी हथियार’, ‘द हिस्ट्री ऑफ़ कम्युनिस्ट मूवमेंट इन ईरान’, ‘पर्शिया टू ईरान’, ‘आइडियोलॉजी इन सोवियत-ईरान रिलेशंस (लेनिन टू स्तालिन)’ इत्यादि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं।

नवम्बर महीने में हुए जनवादी लेखक संघ के दिल्ली राज्य सम्मलेन में उन्होंने उद्घाटन-भाषण दिया था और उससे पहले जून महीने में ‘आम चुनावों में मीडिया की भूमिका’ पर आयोजित जलेस की संगोष्ठी में भी उन्होंने लंबा वक्तव्य दिया था जो कि ‘नया पथ’ के अप्रैल-सितम्बर 2014 के अंक में अविकल प्रकाशित है।

जनवादी लेखक संघ के महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह व उप-महासचिव संजीव कुमार ने बताया कि लेखक-विचारक के रूप में डॉ. तुलसी राम की अथक संघर्षशीलता हम सब के लिए अनुकरणीय है। अपने जीवन के आख़िरी महीनों में दवाइयों की मार से कमज़ोर हो चुके शरीर को लिए वे हर जगह जाने के लिए तैयार रहते थे। शरीर टूट चुका था, पर मन पहले की तरह ही, या शायद पहले से भी ज़्यादा, मज़बूत और जिजीविषापूर्ण बना हुआ था। जलेस के दो कार्यक्रमों में जिन लोगों ने उन्हें सुना, वे जानते हैं कि दवाइयों के असर से उनका गला बुरी तरह बैठ चुका था, बहुत ज़ोर लगाकर बिलकुल फंसी हुई मद्धिम आवाज़ में बोल पा रहे थे, पर उन्होंने हार नहीं मानी और साम्प्रदायिक दक्षिणपंथ के ख़तरों के बारे में विस्तार से बोले। दोनों कार्यक्रमों में उनके विचारों की गहराई और गंभीरता के अलावा उनका यह जीवट भी चर्चा का विषय रहा। उन्होंने कहा हिंदी समाज को अभी उनसे बहुत कुछ जानने-सुनने की उम्मीद थी। मात्र 65 वर्ष की आयु में उनका दुनिया को अलविदा कह देना संकटों से घिरे इस दौर में हम सब के लिए बहुत बड़ी क्षति है। जनवादी लेखक संघ उन्हें नमन करता है और उनके सभी प्रशंसकों तथा परिजनों से अपनी शोक-संवेदना व्यक्त करता है।