वाल्मीकि अब ब्राह्मण हुए जैसे नमोशूद्र ब्राह्मण हो गये
वाल्मीकि अब ब्राह्मण हुए जैसे नमोशूद्र ब्राह्मण हो गये
वाल्मीकि अब ब्राह्मण हुए जैसे नमोशूद्र ब्राह्मण हो गये, बाकी हजारों जातियों का ब्राह्मण बनाना अभी बाकी है।
भारतीय मीडिया में अब वाल्मीकि विमर्श का समय है। संघी समरसता और डायवर्सिटी मिशन का यह ताजा अभिमुख है।
धड़ाधड़ लेख छाप कर साबित करने की कोशिश की जा रही है कि हिंदू जाति वाल्मीकि की अस्पृष्यता और बहिष्कार का हश्र कर्मफल सिद्धांते जन्मगत जाति व्यवस्था नहीं, बल्कि हिंदुस्तान पर इस्लामी आक्रमण है।
यह नया मोदी पुराण है जो लिखा जा चुका है।
महाकाव्यिक मिथकीय घृणासर्वस्व इतिहास दृष्टि यह है, जिसमें मीडिया वाल्तेयर और ओसामा बिन लादेन को एक श्रेणी में समान राष्ट्रद्रोही साबित करने पर तुला है।
भारत में विधर्मियों के खिलाफ यह सबसे बड़ा अभियान है और इसे नजरअंदाज करने का भारी खामियाजा भुगतना होगा।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और बहुजन समाज नेत्री मायावती को इस समीकरण को समझने में देरी हुई तो गायपट्टी में कितनी गाजा पट्टियां और बनेंगी, कहना मुश्किल है।
बहुजन आंदोलन में वाल्मीकियों की भागेदारी से वे कांग्रेस संघ साझा उपक्रम से बाहर थे और बाबरी विध्वंस की क्रिया प्रतिक्रिया अध्याय निपटने से पहले हाल में यूपी के शाही कायाकल्प, हरिद्वार, इलाहाबाद, वाराणसी के स्मार्ट सिटी प्रकल्प के नये राममंदिर अभियान से पहले तक यूपी में बड़े दंगे नहीं हो रहे थे। इसे समझिये।
इतिहास के इस नवलेखन अभियान के अभिमुख से तो संभावना यह भी बनती है कि भारत में अस्पृश्यता, बहिष्कार, विषमता और नस्ली भेदभाव, अन्याय, अत्याचार, बेदखली, आम जनता के खिलाफ राष्ट्र के युद्ध और आदिवासियों के अलगाव से लेकर आफस्पा और आर्थिक सुधार अश्वमेध के एफडीआई राज के पीछे जो मूलाधार कृषि समाज को खंडित करने और उत्पादन प्रणाली पर निर्णायक वर्चस्व के स्थाई बंदोबस्त जाति व्यवस्था और मनुस्मृति शासन है, देर सवेर संघी शोध के जरिये उनकी जड़ें भी धर्मांतरण और इस्लामी आक्रमण साबित कर दी जायेंगी।
जाहिर है कि साम्राज्यवाद, सामंतवाद, फासीवाद और नाजीवाद, औपनिवेशिक शासन और आर्थिक सुधारक के मुक्त बाजार से लेकर लंपटपूंजी पोंजी कारोबर से संघ को खास ऐतराज नहीं है और इस्लाम के खिलाफ जिहाद के लिए वे जापान और चीन से लेकर अमेरिका और इजराइल तक का साझा क्रुसेड नये सिरे से शुरू करना चाहते हैं।
तमस नये सिरे पढ़े या देखें तो इस्लामी हमले से जोड़कर शुरू इस चामत्कारिक जाति विमर्श के मद्देनर, गाजापट्टियों के निर्माण के खतरनाक लव जिहाद के मद्देनजर हिंदू जाति वाल्मीकि विमर्श का असली तात्पर्य समझने में देर नहीं लगनी चाहिए।
संघी अकादमिक लव जिहाद तमाम गढ़ों और मठों के केसरियाकरण के साथ अब पद्म सुनामी के दूसरे चरण में है।
इस दूसरे प्रकार के लव जिहाद में नामी विश्वविद्यालयों में सक्रिय नाना लोग, विदेश से आये या विदेशी वित्त पोषित अकादमिक लोग, एनजीओ पोषित लेखक समुदाय और संघ के समरसता मिशन और अस्मिताओं में जनता को खंड खंड बांटों मुहिम के तमाम आदरणीय अकादमिक स्त्री पुरुष भी शामिल हैं, जो कारपोरेट मीडिया के बहुजन चेहरे और लोकप्रिय स्तंभकार भी हैं।
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सिंधु सभ्यता को सनातन वैदिकी सभ्यता बताने का संघी उपक्रम भारत के सभी धर्मस्थलों के हिंदुत्वकरण और सभी भारतीयों के हिंदुस्तानीकरण के साथ आदिगंगा की तरह गंगा शुद्धि अभियान है।
मनुसमृति शासन के अंतिम लक्ष्य के लिए इतिहास की वाम विकृतियों को दूर करने के लिए महाकाव्यात्मक मिथकीय वैदिकी इतिहास सृजन जारी है एक तरफ तो दूसरी तरफ मजबूत अस्पृश्य जातियों को सामाजिक समरसता अभियान के तहत ब्राह्मणत्व से अलंकृत भी किया जा रहा है।
वाल्मीकियों को रामायण रचयिता वाल्मीकि से जोड़कर उनके हर मोहल्ले में बाल्मीकि मंदिर बनवाकर बिना कुछ किये मुसलमानों को स्थाई वोटबैंक बनाने की तरह उनको ब्राह्मणत्व वरदान देकर बहुजन समाज से उनके अलगाव के इस स्थाई बंदोबस्त को अंजाम दिया कांग्रेस और संघ परिवार के साझा उपक्रम ने।
बंगाल में भी मतुआ आंदोलन के पुरोधा हरिचांद ठाकुर को संघी विचारधारा के तहत मैथिली ब्राह्मण और परम ब्रह्म, भगवान विष्णु का अवतार बना दिया गया है।
मतुआ आंदोलन के पुरोधा हरिचांद ठाकुर भारतीय किसान आंदोलनों और उसके भूमि सुधार एजेंडा के भी रूपकार हैं मतुआ आंदोलन के पुरोधा हरिचांद ठाकुर।
मतुआ आंदोलन के पुरोधा हरिचांद ठाकुर ने बाकायदा ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के प्रतिरोध में वर्ग जाति धर्म की सीमायें तोड़कर मतुआ आंदोलन के भौतिकवाद को अंजाम दिया। जिसमें संन्यास को पाखंड माना गया।
मतुआ आंदोलन के तहत ही स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह की अनिवार्यता बतायी गयी और पुरोहित वैदिकी कर्मकांड निषेध किया गया आज से दो सौ साल पहले।
मतुआ आंदोलन के पुरोधा हरिचांद ठाकुर ने दो सौ साल पहले मौलिक अस्पृश्यता निषेध आंदोलन और जाति उन्मूलन, स्त्री मुक्ति का जयघोष भी किया।
यही नहीं, जिस अस्पृश्य लड़ाकू नमोशूद्र जाति के थे हरिचांद ठाकुर उनको भी वैदिकी नमोसेज बना दिया गया है।
एक दूसरे वैदिकी धर्म आंदोलन के सत्संग तहत नमोशूद्रों ने ऋत्विक, वैदिकी धर्म प्रचारक बतौर जनेऊ धारण करना शुरू भी कर दिया है।
गौरतलब है कि इसी नमोशूद्र जाति के जोगेंद्रनाथ मंडल और बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक की पहल पर पूर्वी बंगाल से संविधान सभा के लिए चुने गये थे डा. अंबेडकर, यह याद रखना जरुरी है।
इसके साथ यह भी याद करना जरूरी है कि जोगेंद्र नाथ मंडल 1942 के आसपास शिड्युल्ड कास्ट फेडरेशन के जरिये बाबासाहेब के साथ खड़े हुए और संविधान सभा के चुनाव से पहले महारों के अलावा नमोशूद्रों से पहले बाबासाहेब को ऐतिहासिक जो समर्थन मिला, वह वाल्मीकि समुदाय से था।
याद करें कि जब लंदन में गोलमेज सम्मेलन में डा. अंबेडकर की भागेदारी पर गांधी ने यह कहकर आपत्ति जता दी कि अंबेडकर दलितों के नेता नहीं हैं बल्कि हिंदुओं के निर्विवाद नेता बतौर वे स्वयं दलितों के नेता हैं।
उस जमाने में पंजाब के वाल्मीकि समुदायों के लोगों ने खून से इंग्लैंड की महारानी को बाबासाहेब अंबेडकर के समर्थन में पत्र लिखा जो लंदन के अखबारों में प्रमुखता से छपने पर गांधी की आपत्ति खारिज हो गयी।
इस पूरे प्रसंग के भगवान दास जी के रचनाक्रम से समझा जा सकता है।
बहरहाल लंदन एपिसोड के तुरंत बाद, वाल्मीकियों को वाल्मीकि से जोड़ने का कांग्रेसी उपक्रम शुरू हो गया जो बाद में कांग्रेस संघ साझा उपक्रम बन गया। विडंबना यह कि संविधान सभा में बाबा साहेब के चुने जाने तक बाल्मीकि समुदाय कांग्रेस के पाले में चला गया। गांधी जो न कर सके, नेहरू ने वह करिश्मा कर दिखाया।
बाबा साहेब के बाद जो अंबेडकर राजनीति के तमाम सिपाहसालार हैं, उनके एक के बाद एक रामदास अठावले, नामदेव धसाल, उदित राज, रामविलास पासवान, कैप्टेन जयनारायण निषाद वगैरह-वगैरह जैसे नव ब्राह्मण बनाने का रसायन वहीं है जो वाल्मीकि समुदाय और बंगाल की नमोशूद्र जाति पर अत्यंत वैज्ञानिक तरीके से सफलता के साथ आजमाया गया है।
जाहिर है कि इसी प्रसंग में इस ब्राह्मणीकरण अभियान को इस्लामी हमले और लव जिहाद से जोड़ने का मतलब समझ लेना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री बरसों से मुख्यमंत्री बनने से पहले हमारे फेसबुकिया मित्र हैं लेकिन उनसे मेरे संवाद नहीं हैं।
मेरे पिता के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, सचिवों, पार्टी अध्यक्षों, कमिश्नरों, जिलाधिकारियों से लेकिन अविराम संवाद रहा है।
अपढ़ थे वे लेकिन विभाजन पूर्व तेभागा, 1958 के ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह से लेकर तमाम शरणार्थी आंदोलनों और जनसंघर्षों के वे नेता थे।
वे इंदिरा गांधी और पीसी अलेक्जेंडर से सीधे संवाद कर सकते थे तो अटल बिहारी वाजपेयी और चंद्रशेखर से भी उनका निरंतर संवाद रहा है।
चरण सिंह की किसान सभा के वे जैसे नेता थे वैसे ही कम्युनिस्टों की किसान सभा के वे नेता थे। जनता की समस्याओं और तकलीफों के फौरी समाधान के लिए वे अपनी जमीन से उठकर जब तब सत्ता के गलियारे में दस्तक देते थे।
उनकी इस कार्यशैली से मुझे बचपन से एलर्जी थी। मेरी लिए सुविधाजनक स्थिति हालांकि यह रही है कि मैंने कभी आम जनता के बीच कभी काम नहीं किया और न किसी जनसंघर्ष में मेरी सीधी भागेदारी है।
राजनीति से मेरा संवाद कभी नहीं रहा है। पिता के अंतरंग मित्रों से भी मेरे संवाद नहीं रहे हैं।
अखिलेश का जिक्र इसलिए कि आज का मुद्दा सीधे उनके राजकाज से जुड़ा हुआ है और यह मामला सीधे उनकी राजनीति को दूर तलक प्रभावित करने वाला है।
मैं नहीं जानता कि सीधे संबंध के बिना उनकी फेसबुक टाइमलाइन पर पोस्ट के अलावा मैं और क्या कर सकता हूं।
गायपट्टी के जो भी जहां भी राजकाजी मनुष्य हैं, उनके कान खड़े हो जाने चाहिए कि संघ परिवार ने वाल्मीकि समुदाय को ब्राह्मण घोषित कर दिया है और अकादमिक तौर पर यह साबित कर रहा है कि बाल्मीकियों के ब्राह्मणत्व से स्खलन भारत पर इस्लाम के आक्रमण की वजह से हुआ है।
मैंने उत्तरप्रदेश के दंगाग्रस्त संवेदनशील इलाकों में सिख नरसंहार और बाबरी विध्वंस के कारपोरेट केसरिया संक्रमणकाल में पत्रकारिता की है।
मैं मेरठ में 1984 से लेकर 1990 तक दैनिक जागरण में रहा हूं। हाशिमपुरा और मलियाना कांड के अलावा मेरठ को महीनों दंगों की आग में जलते देखा है मैंने।
बाबरी परिसर में कारसेवा और गोलीकांड के न जाने कितने मारे गये मीडिया समय में मैं बरेली में था अमर उजाला में वीरेनदा के साथ। हम लोग अलग से समकालीन नजरिया भी निकालते थे।
तब उदित साहू बरेली अमर उजाला के संपादकीय प्रभारी थे।
अनिल अग्रवाल के निधन के बाद मैं अमर उजाला गया और तब प्रधान संपादक अशोक अग्रवाल थे। अतुल और राजुल माहेश्वरी चूंकि वीरेन दा के छात्र रहे हैं तो उनकी तरफ से हम पर कोई अंकुश न था। अजय अग्रवाल से भी हमारी ट्यूनिंग थी। लेकिन अशोक अग्रवाल की सोच हम सबसे भिन्न थी। वे जागरण और स्वतंत्र भारत जैसे अखबारों की प्रसार संख्या के मुताबिक संपादकीय नीति तय करते थे।
अमर उजाला बरेली आगरा के बाद सबसे पुराना संस्करण था। तो वहां पुराने लोग और पुरानी राजनीति का प्रबल वर्चस्व था। लेकिन वीरेनदा, सुनील साह, इंदुभूषण रस्तोगी के साथ हम उस सांप्रदायिक उन्माद के मध्य संतुलित जो अखबार निकाल पा रहे थे, उसकी शायद सबसे बड़ी वजह उदितजी की समझ थी।
उदित साहू ऐसे विरले पत्रकार रहे हैं, जो आजीवन अमर उजाला के रहे और मालिकान उऩ की बात काटने की हालत में नहीं थे क्योंकि वे डोरी लाल अग्रवाल के मित्र थे। उनकी गलतियां सुधारने का हक मालिकान को भी न था।
उदित साहू परंपरागत पत्रकारिता के मूल्यों के साथ थे और वामपंथी हरगिज न थे। अमर उजाला में मैं साल भर रहा और रोजाना उदित जी ने पहले पेज पर मेरे विश्लेषण प्रकाशित किये। खाड़ी डेस्क पर मुझे रखा और हमारे पक्ष में जरूरत पड़ने पर खड़े भी हुए।
अब उदित जी के निधन पर उन्हें आगरा का पत्रकार बताया जा रहा है, जो सरासर गलत है। आज अमर उजाला का जो साम्राज्य है, उसकी नींव में उदित जी की हड्डियां जरूर होंगी, और गाय पट्टी की पत्रकारिता में उनके उल्लेखनीय अवदान की चर्चा होनी चाहिए।
उन्हें हमारी श्रद्धांजलि। मुझे उनके साथ काम करने का छोटा सा अवसर मिला, जो उनके साथ लंबे वक्त बिता चुके हैं, उन्हें उदितजी का सही मूल्यांकन अवश्य करना चाहिए।
जो लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, हैदराबाद या मुंबई के दंगों की संरचना के बारे में नहीं जानते उनके लिए तमस का सहज पाठ है।
उपन्यास पढ़ लीजिये या दूरदर्शन पर बहुत पहले जो पांच किश्तों की शृंखला प्रसारित हुई थी, वह कहीं मिल जाये तो देख लीजिये।
आज भी दंगों का कुल जमा रसायन वहीं तमस सनातन है। धर्मस्थलों को अशुद्ध करके फिजां बदलने का रसायन। इस काम में एक ही समुदाय का इस्तेमाल होता रहा है और यह कोई गुप्त रहस्य भी नहीं है। शराब और पैसे बांटकर दंगे भड़काने का कारगर तरीका।
आगे चर्चा करें, इससे पहले बता दें कि अमित शाह की सोशल इंजीनियंरिंग के गुल तो गोधरा से खिलने शुरू हुए, लेकिन बाबरी विध्वंस प्रकरण से पहले दंगा संस्कृति पर कांग्रेस की विशेषज्ञता बेमिसाल रही।
अगर बाबरी विध्वंस में संघ परिवार के टॉप नेता कटघरे में हैं, तो मंदिर खुलवाकर मौलिक नींव राजीव गांधी ने खुद डाली और भव्य राममंदिर निर्माण की दिशा में नरसिंहराव का राजकाज निर्णायक था जो दरअसल भारत में केसरिया कारपोरेट राज अध्याय का पहला अध्याय भी है।
विडंबना तो यह है कि वाम राजनीति का एक पक्ष आपातकाल के समय इंदिरा के समाजवाद में निष्णात रहा तो इंदिरा उपरांते वामराजनीति तथाकथित कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता के साथ नत्थी हो गयी।
मीडिया, राजनीति, साहित्य और संस्कृति में भी आपातकानील जेएनयू और भारत भवन वंश का वर्चस्व है। जो लाल नीले दीखते हैं लेकिन हैं केसरिया आपादमस्तक।
सही मायने में असली पद्म सुनामी की रचना तो इंदिरा गांधी ने आपरेशन ब्लू स्टार के जरिये कर दी थी। उनकी नृशंस हत्या के बाद ही हिंदुत्व का ध्रुवीकरण जो शुरु हुआ, उसकी तार्किक परिणति नरेंद्र मोदी का शाही राजकाज है।
आज रविवारीय इकोनामिक टाइम्स में मोदी का फोकस केम छो अमेरिका है।
इसी प्रसंग में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने अपने आलेख में लिखा है कि विदेश मंत्रालय पर वर्चस्व के अलावा जवाहर लाल नेहरु और नरेंद्र मोदी में कोई मेल नजर नहीं आता है।
आगे उनका मंतव्य है कि नरेंद्र मोदी तेजी से इंदिरा गांधी बनते जा रहे हैं।
यह लेख आज के समय को समझने के लिए अनिवार्य पाठ है। इस समीकरण को समझे बना असली अशनिसंकेत के कूट को तोड़ना मुश्किल है।
पलाश विश्वास
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Topics - जाति व्यवस्था, मनुस्मृति शासन, धर्मांतरण, इस्लामी आक्रमण, साम्राज्यवाद, सामंतवाद, फासीवाद, नाजीवाद, औपनिवेशिक शासन, मुक्त बाजार, इस्लाम के खिलाफ जिहाद, लव जिहाद, कारपोरेट मीडिया के बहुजन चेहरे, कारपोरेट मीडिया, लोकप्रिय स्तंभकार, गंगा शुद्धि अभियान, सामाजिक समरसता अभियान, हरिचांद ठाकुर, मतुआ आंदोलन, भूमि सुधार एजेंडा, जाति उन्मूलन, स्त्री मुक्ति , बहुजन चेहरे, Caste system, Manusmriti rule, conversion, Islamic invasion, imperialism, feudalism, fascism, Nazism, the colonial government, free markets, jihad against Islam, Love Jihad, Bahujan face of corporate media, corporate media, popular columnist, Ganga purification campaigns, social harmony campaign, Hrichand Thakur, Mtua movement, land reform agendas, elimination race, women's liberation, Bahujan face,


