विकास के दावे करने वाले आखिर में साम्प्रदायिकता की ओट में आ ही गए
विकास के दावे करने वाले आखिर में साम्प्रदायिकता की ओट में आ ही गए

चलिए लालू प्रसाद और नितीश कुमार को तो भाजपा के आला नेताओं ने साम्प्रदायिक, जातिवादी तो कई बार घोषित कर ही दिया है और वैसे भी मुस्लिम मतों को खींचने में जदयू और राजद कोशिश करते ही हैं, ये कोई नई बात नहीं है। बस सवाल ये ही आता है कि उन्हीं मुद्दों पर जब भाजपा के नेता इन दलों को कोसते हैं तो फिर वे खुद की वही राह स्वीकार क्यों नहीं करते।
धीरे धीरे इस चुनाव में भी आखिर में आते-आते भाजपा अपने विकास के (प्रतीत कराते हुए) मुद्दों से हट कर वापस धर्म की शरण में पहुंच गई है जैसा कि लोकसभा चुनाव में भी हुआ था जब वर्तमान पी एम् मोदी जी ने भी विकास से शुरुआत करते हुए अंत में माँ गंगा की व पश्चिम बंगाल में काली पूजा की शरण ली थी। वहाँ तो उन्होंने बंगलादेशी मुसलमानों को भी अप्रत्यक्ष रूप से निशाने पर लिया था और दुर्गाष्टमी मानाने वाले लोगों को सम्मान देने व अन्य बांग्लादेशियों को वापस भागने को कहा था। हालाँकि उन्होंने उसमें विकास का तड़का मारते हुए इस तर्क पर कहा था कि क्योंकि हमारे युवाओं की नौकरियाँ बाहर के लोग ले रहे हैं इसलिए बांग्लादेशियों को हमारे देश से जाना चाहिए।
अधिक जानने के लिए देखें जयति घोष द्वारा लिखे फ्रंटलाइन के लेख में इस लिंक को क्लिक कर के
http://www.frontline.in/columns/Jayati_Ghosh/blaming-the-other/article5996303.ece
लोकसभा चुनावों में डॉ. बालियान के बयान भी लगभग उसी दिशा में थे और अब जब बिहार चुनाव की शुरुआत है तब सुशील मोदी कहते हैं कि अगर सरकार आई तो बीफ (गौ-मांस) पर पूरा बैन होगा। अब उन्हें लालू के बीफ़ ईटिंग सम्बन्धी बयान पर नितीश का चुप रहना करोड़ों हिन्दुओं के अपमान की बात लगा।
देखें यह लिंक सुशील मोदी जी के बयान के लिए: http://www.livemint.com/Politics/BHA848bVK23YAoea2Ii9PI/NDA-to-ban-cow-slaughter-in-Bihar-if-it-wins-Sushil-Modi.html
तो मसला फिर आया कि एक तरफ़ तो नरेंद्र मोदी जी ने विकास की राह और जंगलराज से मुक्ति करने की बात को आगे रखा और दूसरी ओर उनके साथी फिर से धर्म के मुद्दे की शरण में जाते दिख रहे हैं, जैसा पीएम् जी ने लोकसभा कैम्पेनिंग में कई बार खुद भी किया। याने बात फिर नौकरी, सुरक्षा, शिक्षा से बढ़कर गौरक्षा तक पहुँच ही गई है।
खैर, चलिए अब बात करते हैं भाजपा और जीतन राम मांझी जी के रिश्ते की। अगर नितीश कुमार और लालू प्रसाद यादव जाति की राजनीति करने वाले हैं, तो भाजपा ने वही राजनीति करने वाले जीतनराम मांझी को अपने साथ क्यों रखा है? क्या जीतनराम मांझी मुसहर समुदाय की राजनीति नहीं करते हैं?
खैर, जब कश्मीर में पीडीपी के साथ भाजपा ने समझौता किया है, जिसे कभी भाजपा के बड़े नेता अलगाववादी कहते नहीं थकते थे, तो फिर ये तो छोटी बात है। बस यहाँ परेशानी एक ही दिखती है कि भाजपा को अपने दल द्वारा किया गया जातिवाद, एक सम्प्रदाय का समर्थन, नहीं दिखता और बाकी सभी दलों का जातिवाद व सम्प्रदायवाद स्पष्ट दीखता है।
किसी भी दल की स्वतन्त्रता है कि वह क्या विचारधारा अपनाए मगर फिर दल और उसके नेताओं को उसे स्वीकार भी करना चाहिए ना कि खुद को संत महात्मा और सिर्फ़ बाकी दलों को ही जातिवादी, साम्प्रदायिक आदि आदि बताया जाए। भाजपा को यह बात स्पष्ट स्वीकारनी चाहिए कि उनकी पार्टी की बुनियाद भी मुख्यतः एक सम्प्रदाय समर्थित है और वे राजनीति भी एक सम्प्रदाय की ओर झुक कर करते हैं मगर फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि वो भी किसी सम्प्रदाय के भले के लिए नहीं बस उसके वोट को हथियाकर अपनी सत्ता कायम करने के लिए ऐसा करते हैं। जैसे कि मुस्लिम मतों के लिए खुद को सेक्युलर कहने वाले दल करते हैं। इस खींचतान में विकास का मुद्दा कहीं पीछे न छूट जाए यह सभी दलों को देखना होगा और भाजपा को शायद कुछ ज़्यादा ही क्योंकि दूसरों से खुद को संत महात्मा बताने और विकास के बड़े बड़े लच्छे वाले नारे आजकल उनकी ओर से अधिक आ रहे हैं।
मोहम्मद ज़फ़र


