मत भूलिए कि मौजूदा माओवादी हिंसा का एक बड़ा कारण सलवा जुड़ूम भी है.....
एस मंजुनाथ और सत्येन्द्र दुबे को मारने वाले भी क्या नक्सलवादी थे?
अमलेन्दु उपाध्याय
दिल्ली विश्वविद्यालय के आशुतोष कुमार कहते हैं, "देश के सामने सवाल है कि आदिवासियों ('माओवादियों') से कैसे लड़ें! सवाल होना चाहिए, क्यों लड़ें? बिरसा मुंडा के ज़माने से आदिवासियों पर लड़ाई थोपी गयी है। आदिवासी नहीं गए थे किसी से लड़ने, किसी की जमीन कब्जियाने, श्रम-संपत्ति -शरीर की लूट मचाने।"

आशुतोष कुमार का यह छोटा सा वक्तव्य बड़ी मार करता है। छत्तीसगढ़ में काँग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर कथित नक्सली हमले के बाद सारे देश में एक अजब किस्म का माहौल पैदा करने की कोशिश की जा रही है ठीक उसी तरह जैसे नारे लगाए जाते थे “रोज रोज होता है तो एक बार हो जाने दो”। घोटालों में फँसे कॉरपोरेट घराने के वित्त पोषित तथाकथित पत्रकार भी माओवादियो के खात्मे के लिए अब सेना का प्रयोग ही अन्तिम विकल्प है, का राग गाते हुए रोज कई टन कागज काला कर रहे हैं।

ऐसा प्रचार अभियान कोई पहली बार नहीं चल रहा है। “गांधी के देश में माओ नहीं चलेंगे” के नारों से लेकर “लोकतंत्र पर हमले के नारों” तक दुष्प्रचार अभियान लगातार जारी है। जब पी चिदंबरम गृह मन्त्री थे तो ऑपरेशन ग्रीन हंट प्रारंभ करने से पहले अखबारों और प्रचार माध्यमों के जरिए नक्सलियों के खिलाफ मिथ्या प्रचार की न केवल संघी और गोयबिल्स नीति अपनाई गई बल्कि नीचता की पराकाष्ठा पार करते हुए एक विज्ञापन जारी किया गया था जिसमें कहा गया था –“पहले माओवादियों ने खुशहाल जीवन का वायदा किया/ फिर, वे पति को अगवा कर ले गये/ फिर, उन्होंने गाँव के स्कूल को उड़ा डाला/ अब, वे मेरी 14 साल की लड़की को ले जाना चाहते हैं।/ रोको, रोको भगवान के लिए इस अत्याचार को रोको“।

यह विज्ञापन गृह मंत्रालय द्वारा जनहित में जारी किया गया था जिसके तत्कालीन मुखिया चिदंबरम थे। जाहिर है उनकी सहमति से ही यह जारी हुआ होगा। लेकिन प्रश्न यह है कि इसमें उस महिला का नाम क्यों नहीं खोला गया जिसकी 14 साल की लड़की को नक्सली ले जाना चाहते थे? क्या चिदंबरम साहब बताने का कष्ट करेंगे कि नक्सली किसकी लड़की को ले जाना चाहते थे। इसके तुरंत बाद चिदंबरम गली के शोहदों की स्टाइल में कह रहे थे कि नक्सलियों को दौड़ा-दौड़ा कर मारेंगे।

सवाल उठाया गया कि छत्तीसगढ़, आंध्र, उड़ीसा जैसे राज्यों के कुछ जिलों में नागरिक प्रशासन की बात तो दूर रही, सरकारी सेवा का कोई शिक्षक, डॉक्टर, कम्पाउण्डर, नर्स, इंजीनियर और पटवारी तक नहीं घुस पा रहे हैं, ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रों में आर्थिक विकास न होने का रोना रोना अपने आप को धोखा देना है। ऐसे तर्क देने वाले बुद्धिजीवियों से बहुत विनम्रता से एक सवाल किया जा सकता है कि ठीक है जहाँ नक्सलवादी हैं वहाँ यह सरकारी अमला नहीं जा पा रहा लेकिन जहाँ नक्सलवादी नहीं हैं वहाँ यह सरकारी तंत्र नजर क्यों नहीं आता? देश भर के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की क्या हालत है, पटवारी और इंजीनियर का मतलब देहात में क्या होता है? दिल्ली में मिनरल वाटर और कोला पीने वाले बुद्धिजीवी नहीं समझ सकते हैं।

आरोप लगाए जा रहे हैं कि नक्सलवादी, ठेकेदारों और इंजीनियरों से लेवी वसूलते हैं और मारने की धमकी देते हैं। लेकिन अभी तक यह बताने वाला कोई भद्र पुरूष नहीं मिला जो बताए कि एस मंजुनाथ और सत्येन्द्र दुबे को मारने वाले भी क्या नक्सलवादी थे? हमारे ऐसे यशस्वी संपादक/ बुद्धिजीवी लोग जब राज्य सभा सदस्य बन जाएंगे और उनकी सांसद निधि का पैसा जब विकास कार्य में लगेगा तब शायद उनका कोई चहेता ठेकेदार हुआ तो उन्हें बताएगा कि काम शुरू होने से पहले ही चालीस प्रतिशत की रकम तो इंजीनियर साहब की भेंट चढ़ जाती है।

अगर निष्पक्ष जांच करवाई जाए कि जिन पुलों और स्कूलों को उड़ाने का आरोप नक्सलियों के सिर पर है, उनमें से कितने ऐसे थे जो दो या चार माह पुराने ही थे। नतीजा सामने आ जाएगा कि अधिकांशत: नए बने हुए थे और उनके बिलों का भी भुगतान ठेकेदारों को हो चुका था। कुछ वर्ष पूर्व खगड़िया में सामूहिक नरसंहार हुआ। तुरन्त आरोप लगाया गया कि नक्सलियों ने किया। लेकिन मालूम पड़ा कि यह काम तो जातीय गिरोहों का था।

बात विकास की की जा रही है लेकिन यह विकास किसका हो रहा है? किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है, आदिवासियों से जंगल छीने जा रहे हैं और उन जमीनों पर बड़े बड़े पूँजीपतियों के संयंत्र लग रहे हैं। तमाशा यह है कि जिस किसान की जमीन छीनकर छह और आठ लेन का हाईवे बनाया जा रहा है उस हाईवे पर वह किसान अपनी बैलगाड़ी या साइकिल लेकर नहीं चल सकता और अगर उस सड़क पर वह चलना चाहेगा तो उसे टोल टैक्स देना होगा चूँकि उसके चलने के लिए समानान्तर सड़क समाप्त की जा चुकी है। उत्तर प्रदेश में जेपी समूह ने ताज एक्सप्रेस वे बनाया। जिन किसानों की जमीनें छीनी गईं उन्होंने प्रतिवाद किया तो किसानों पर गुण्डा एक्ट लगा दिया गया। लेकिन हमारे तथाकथित बड़े बुद्धिजीवियों की नजर में यह विकास है। यह विकास का ही रूप है कि झारखण्ड में जिन आदिवासियों को खदेड़कर सरकार पूँजीपतियों से एमओयू साइन करती है उनका थोड़े से दिन का मुख्यमंत्री कई हजार करोड़ रूपये की खदानें विदेशों में खरीद लेता है। लेकिन हमारे वरिष्ठ पत्रकार सैन्य कार्रवाई की आवश्यकता नक्सलियों के खिलाफ महसूस करते हैं?

एक तरफ कहा जा रहा है कि कुछ हजार नक्सली हैं। दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि सारे जंगलों पर एक साथ हमला करो। अगर नक्सली कुछ हजार ही हैं तो सारे जंगलों पर एक साथ हमला करने की क्या जरूरत है? अगर ऐसा हमला हुआ तो सबसे ज्यादा जानें किसकी जाएंगी? निरीह आदिवासियों की ही? तमाशा यह है कि लोंगोवाल से बात की जा सकती है, लालडेंगा से बात की जा सकती है, परेश बरूआ से बात की जा सकती है, एनएससीएन से बात की जा सकती है, संघ- विहिप और हुर्रियत कांफ्रेंस से भी बात की जा सकती है लेकिन नक्सलियों से बात नहीं की जानी चाहिए उनके खिलाफ तो सिर्फ और सिर्फ सैन्य कार्रवाई ही एकमात्र विकल्प है!

गौर करने लायक बात यह भी है कि नक्सलवाद से प्रभावित क्षेत्र वही ज्यादा हैं जहाँ जंगल और आदिवासी ज्यादा हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि जंगल नक्सलवादियों की मदद करते हैं। बल्कि समस्या की तह तक जाना होगा। नब्बे के दशक में जब इस मुल्क में नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह मार्का उदारीकरण आया जिसे चिदंबरम जैसे हार्वर्ड उत्पादित अर्थशास्त्रियों ने और धार दी तो देश में नए किस्म का पूँजीवाद आया और सरकारों की भूमिका भी बदलने लगी। नब्बे के दशक से पहले सरकार की भूमिका कल्याणकारी राज्य की मानी जाती थी। दिखावे के लिए ही सही ‘गरीबी हटाओ’ के नारे लगते थे। लेकिन नरसिंहाराव-वाजपेयी-मनमोहन की तिकड़ी ने सरकारों की भूमिका एक एनजीओ की बना दी और सरकारें बड़े पूँजीपतियों और घोटालेबाजों की जेब की गुलाम बनकर रह गईं और अब तो प्रधानमंत्री जनता को नसीहत भी देने लगे हैं कि वह और महॅंगाई के लिए तैयार रहे। उदारीकरण की आँधी में औद्योगिकीकरण और तथाकथित विकास के नाम पर किसानों की जमीनें हथियाए जाने लगीं और जंगल से आदिवासियों को बेदखल करके कारखाने लगने लगे। क्या संयोग है कि सारी बड़ी कंपनियों के कॉरपोरेट दफ्तर तो मुंबई और कोलकाता में हैं लेकिन कई-कई हजार एकड़ में लगने वाले उनके प्लांट छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के जंगलों में लग रहे हैं। बाँध बन तो रहे हैं विकास के नाम पर लेकिन यह बाँध बलि ले रहे हैं हजारों गांवों के लोगों की। इस विकास और औद्योगिकीकरण से एक आम आदमी को लाभ होने के बजाए नुकसान ही हुआ है।

काफी पहले दो छोटी सी खबरें अलग अलग अखबारों में पढ़ी थीं। एक घटना राजस्थान की थी। उस खबर के मुताबिक कुछ आदिवासियों को पुलिस ने पकड़ा था जिन से लगभग बारह हजार रूपए मूल्य का आंवला पकड़ा गया था। सरकार का तर्क था कि इस आंवले पर अधिकार उस ठेकेदार का है जिसे वन उपज का ठेका दिया गया है। दूसरी खबर के मुताबिक मुकेश अंबानी के जामनगर रिफाइनरी प्लांट में कई सैकड़ा एकड़ में बेहतरीन आम के पेड़ लगे हुए हैं और उन आमों का निर्यात विदेशों को किया जाता है।

अगर आपके पास दृष्टि है तो नक्सलवाद के बढ़ते प्रभाव को समझने और समझाने के लिए यह छोटी सी दो खबरें काफी हैं। राजस्थान की घटना बताती है कि जंगल से आदिवासियों का अधिकार खत्म कर दिया गया है। और अंबानी की खबर बताती है कि जामनगर का प्लांट हजारों लोगों को विस्थापित करके ही स्थापित हुआ होगा और किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करके मुकेश अंबानी अब आम की खेती भी कर रहे हैं। इन्हीं विस्थापित लोगों के समर्थन से नक्सलवाद का विस्तार हो रहा है। यह कटु सत्य है और इसे मनमोहन, चिदंबरम और नक्सलियों पर सेना लेकर चढ़ जाने की वकालत करने वाले तथाकथित पत्रकार चाहे स्वीकार करें या न करें - इस विस्थापित आम आदमी के समर्थन से ही नक्सलवाद को शह मिल रही है।

मीडिया में जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में पुलिस बल के आधुनिकीकरण के नाम पर कई हजार करोड़ रूपए सरकार खर्च करेगी और कई हजार करोड़ रुपए खर्च हो भी चुके होंगे। जाहिर है इसमें से अधिकाँश रूपया अत्याधुनिक हथियारों की खरीद पर खर्च किया जाएगा और एक बड़ी रकम खुफिया नेटवर्क बनाने के नाम पर खर्च होगी, जिसका कोई हिसाब किताब पुलिस अफसरों को नहीं देना होता है। जाहिर है जब तक इस नेटवर्क के नाम पर और हथियारों की खरीद के नाम पर सरकार यह धन मुहैया कराती रहेगी तब तक नक्सलियों के नाम पर आम गरीब आदिवासी पुलिस मुठभेड़ों में मरता रहेगा और प्रतिशोध में इन गरीबों का समर्थन नक्सलियों को ही मिलता रहेगा। सवाल यह भी है कि आतंकवाद, नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में विकास के नाम पर जो धन राज्यों को दिया जाता है उस धन का क्या प्रयोग होता है? अगर यह धन विकास पर ही खर्च हो रहा है तो वह विकास कहाँ हो रहा है? अक्सर समाचारपत्रों में रिपोर्ट्स प्रकाशित होती हैं कि नक्सली अपने क्षेत्रों में ठेकेदारों से लेवी वसूल करते हैं। खबरें सही होती भी हैं। लेकिन यही खबरें प्रश्न भी छोड़ती हैं कि नक्सली यह लेवी किन लोगों से वसूलते हैं? आम गरीब आदमी तो लेवी देता नहीं हैं। लेवी देता है भ्रष्ट ठेकेदार और इंजीनियर। जाहिर है कि अगर यह नक्सलियों को लेवी नहीं भी देगा तो उस पैसे को विकास में नहीं लगाएगा बल्कि अपनी जेब भरेगा।

कभी नक्सली आंदोलन के बड़े कमांडर रहे असीम चटर्जी ने कुछ दिन पहले कहीं कहा था कि-‘ भारत में संसदीय प्रणाली है। इतिहास साक्षी है जिन जगहों पर संसदीय प्रणाली है वहाँ कभी भी क्रांतिकारी आंदोलन सफल नहीं रहा।’

असीम दा के विचारों से इत्तेफाक रखते हुए भी एक सवाल यहाँ छोड़ा जा रहा है कि जहाँ सूरत, मुंबई, अहमदाबाद की सड़कों पर काँच की बोतलों पर लड़कियां नंगी करके नचाई जाती हों और उनसे सामूहिक बलात्कार की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती हो, जहाँ गुलबर्ग सोसाइटी, नरोदा पाटिया और बेस्ट बेकरी कांड के हत्यारे शासक हों, जहाँ बेलछी, लक्ष्मणपुर बाथे आबाद हों, जहाँ 1984 के सिखों के कातिल अभी तक छुट्टा घूम रहे हो, जहाँ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हों, जिस मुल्क की लगभग चालीस फीसदी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे रह रही हो, क्या यही लोकतंत्र है? अगर यही लोकतंत्र है जिसकी रक्षा करने का दावा किया जा रहा है तो ऐसे लोकतंत्र को जितना जल्दी हो सके आग के हवाले कर देना चाहिए।

इस बात को समझना होगा कि नक्सलवाद विचार है और विचार बन्दूकों से कुचले नहीं जाते भले ही वे “सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है” वाले विचार ही क्यों न हों। इसके लिए खुद सत्ता में बैठे लोगों को इस व्यवस्था में सुधार करना होगा। सरकार को एनजीओ की भूमिका छोड़ कर कल्याणकारी राज्य की भूमिका निभानी होगी और विकास का पैमाना बदलना होगा विस्थापन की बुनियाद पर विकास नहीं चलेगा। अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि नक्सली पैदा होता नहीं है बल्कि यह व्यवस्था बनाती है। नक्सलियों का हिंसा का रास्ता एकदम गलत है, लेकिन उनका उद्देश्य कैसे गलत कहा जाए? इसलिए छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों का सामूहिक नरसंहार समस्या का हल कभी नहीं बन सकेगा। मत भूलिए कि मौजूदा माओवादी हिंसा का एक बड़ा कारण सलवा जुड़ूम भी है.....