वित्तीय नीति की जगह अब धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ने ले ली है।
वित्तीय नीति की जगह अब धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ने ले ली है।
संपूर्ण निजीकरण के लिए बहुत बड़ा विनिवेश लक्ष्य- धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद
संपूर्ण निजीकरण के एजंडे को अंजाम देने के लिए अगले वित्त वर्ष में बहुत बड़ा विनिवेश लक्ष्य तय किया गया है।
एक तरफ सेबी ने नयी कंपनियों को जनता की जेब से पैसे निकालने की दे दी छूट और नयी कंपनियों को आम जनता से शेयरों के मार्फत पूंजी वसूलने के लिए शेयर बाजार में पंजीकरण के नियमों में ढील दे रही हैं तो दूसरी तरफ बाजार नियामक सेबी अपनी बढी जिम्मेदारियों के तहत और अधिक खुदरा निवेशकों को पूंजी बाजार में आकर्षित करने, गतिशील बांड बाजार विकसित करने तथा सभी व्युत्पन्न खंडों के लिए समान नियामकीय प्रणाली बनाने के लिए एक नये खाके पर काम कर रहा है।
किस्सा यह है कि ई-कॉमर्स कंपनियां शेयर बाजार से पैसा जुटाने के लिए सेबी से आईपीओ के नियमों में ढ़ील देने की मांग कर रही हैं। कहा जा रहा है कि सेबी अभी इन कंपनियों को आईपीओ में कोई ढील देने के लिए तैयार नहीं है। सेबी का कहना है कि वह निवेशकों के हितों के रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। कंपनियों को शेयर बाजार से पैसा जुटाने के लिए विस्तृत जानकारी देना जरूरी है साथ ही इसमें वही कंपनियां शामिल हो सकती हैं जिनकी वित्तीय स्थिति मजबूत है।दूसरी ओर,लिस्टिंग के नियमों में ढील भी दी जा रही है।
बाजार नियामक का यह कदम इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सरकार अगले वित्त वर्ष में घोषित लक्ष्य के मुकाबले बहुत ही ज्यादा करीब 10 अरब डालर का विनिवेश लक्ष्य तय किया है।कहने को इसके तहत सार्वजनिक कंपनियों के शेयरों का और बडा हिस्सा आम निवेशकों को दिलवाने पर जोर होगा।दरअसल ये सरकारी उपक्रमों को औने पौने दाम पर देशी विदेशी निजी कंपनियों को बेचने की साजिश है और सत्ता में बैठे तमाम कारपोरेट दलाल इस एजंडे को अंजाम देने लगे हैं।
नया रोडमैप सरकार तथा अन्य भागीदारों से विचार विमर्श से तैयार किया जा रहा है।नये बगुला पैनल का गठन विनिवेश के अधूरे एजंडे के तेजी से अमल के मकसद से किया गया है, जाहिर है।
तिलिस्म इतना घना है
मुक्तबाजारी तिलिस्म इतना घना है और सूचनाओं पर जंजीरें इतनी जकड़ी हुई है कि भारतीय जनगण को भारत बांग्लादेश मैच में रोहित शर्मा के मैच के अलावा आज कुछ दूसरा दीखेगा नहीं। सुबह अखबारों को पढ़ते हुए और टीवी चैनलों को देखते हुए क्रिकेट कार्निवाल की चकाचौंध रौशनी में भारत के भविष्य पर मंडराती काली छाया कहीं नजर नहीं आयी।
दूसरी ओर,अर्थव्यवस्था का हाल यह है कि आंकड़ों में विकास दर बल्ल बल्ले।मुद्रास्फीति शून्य है और उत्पादन के आंकड़े भी बेहतर हैं।
मजा देखिये कि मुद्रास्फीति शून्य है और बुनियादी जरुरतें,खाद्य सामग्रियां,बुनियादी सेवाएं,बिजली पानी ईंधन से लेकर शिक्षा चिकत्सा सबकुछ महंगी है।
मुक्तबाजार में दाने दाने को मोहताज है बहुसंख्य जनगण।
आजीविका रोजगार खत्म है।
शिक्षा, चिकित्सा, पेयजल, ईंधन,परिवहन जैसी बनियादी सेवाएं दिनोंदिन बाजार के हवाले हैं।
फिर भी आप चाहे तो मोदी से भी बेशकीमती सूट और परिधान किश्तों पर खरीद सकते है। उपभोक्ता बाजार बल्ले-बल्ले।
ईटेलिंग के अलावा अब ई फैशन भी उफान पर है तो रंगभेदी सौंदर्य उद्योग की क्या कहें।
न किसी को बच्चों के कुपोषण की चिंता है और न असहाय लोगों की बेरोजगारी और भुखमरी की, न आपदाओं की, न चौपट होती खेती की, लेकिन शौचालय अभियान जारी है।
स्त्री उत्पीड़न रोकने के बजाय स्त्री को बाजार में खड़ा करने का कारोबर जोरों पर है और शौचालय उनका सुरक्षा कवच बताया जा रहा है।
कितनी आसानी से बहल जाते हैं हम।
किसी भी पोपुलर हथकंडे से बुनियादी मुद्दों को भूल जाते हैं हम।
टिकट पांच का, प्लेटफार्म टिकट लेकिन दस रुपये का
अर्थव्यवस्था का प्रबंधन ऐसा है कि न्यूनतम रेलवे टिकट पांच रुपये का है और प्लेटफार्म टिकट दस रुपये का।
आम जनता खबरों को आत्मसात करने से पहले निजी दिनचर्या के अनुभवों को सच की कसौटी बना लें तो भी यह तिलिस्म टूट सकता है। लेकिन कार्निवाल संस्कृति के बीच सामाजिक यथार्थ सिरे से लापता है।
पहली बार ऐसा हुआ है कि अमेरिकी फेड बैंक के ब्याज दरों में वृद्धि की आशंका से भारत की अर्थव्यवस्था थरथरा रही है और निवेशकों की आस्था डगमगा गयी।
भारत की अर्थव्यवस्था अब कुल मिलाकर निवेशकों की आस्था है, जिसे बहाल रखने के लिए नरसंहाक की निरम्मता से भी बाज नहीं आ रहा है राष्ट्र।
इसीलिए सैन्य राष्ट्र तेजी से रेडियोएक्टिव होता जा रहा है।
क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था कुल मिलाकर अब निवेशकों की आस्था है।
क्योंकि वहां के निवेशक एफआईआई के माध्यम से शेयर बाजार में निवेश करेंगे। क्योंकि थोड़ी सी भी हानि की आशंका में वे भारतीय अर्थव्यवस्था को मंझधार में फंसाकर अपने पैसे को निकाल कर चलते बनेंगे।
इससे शेयर मार्केट के तेजी से गिरने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसलिए अर्थव्यवस्था में सुधार के बिना ज्यादा निवेश आना अच्छा संकेत नहीं है।
लेकिन अर्थव्यवस्था में बुनियादी सुधार या मृत उत्पादन प्रणाली में प्राण फूंकने का कोई प्रयास डाउ कैमिकल्स और मनसेंटो की बिजनेस फ्रेंडली सरकार करना नहीं चाहती, जिसका सारा जोर अबाध विदेशी पूंजी प्रवाह और एफडीआई राज पर है।
लेकिन सारा जोर दूसरे चरण के आर्थिक सुधार लगाकर मेकिंग इन अमेरिका के पीपीपी माडल विकास पर है।
वित्तीय नीति की जगह अब धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ने ले ली है।
उसी तरह विदेशनीति की जगह भी धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ने ले ली है।
इसी के साथ साथ भारत में आर्थिक प्रबंधन का कार्यभार तेजी से रिजर्व बैंक के हाथों से छीनकर सेबी को हस्तांतरित करने की तैयारी है।मसलन सरकार आरबीआई की सरकारी बॉन्ड्स को रेग्युलेट करने की पावर उससे छीनकर सेबी को देने की तैयारी कर रही है।
माना जा रहा है कि सरकार के इस कदम से आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन और सरकार के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है। मुद्रा बाजार से संबंधित अन्य पावर्स आरबीआई के पास ही रहेंगी।
पलाश विश्वास


