विधानसभा चुनाव : राजनीति का वीभत्स चेहरा सामने, नतीजा कुछ भी हो हालात बदलने के आसार नहीं
विधानसभा चुनाव : राजनीति का वीभत्स चेहरा सामने, नतीजा कुछ भी हो हालात बदलने के आसार नहीं
इस बीच भक्तों के लिए खुशखबरी है कि नई विश्वव्यवस्था के ग्लोबल हिंदुत्व के ईश्वर रात ग्यारह बजे दुनिया के चार नेताओं से बात करने के बाद भारत के नेतृत्व से बतियाए। ओबामा के लंगोटिया यार को डान डोनाल्ड ने भाव कुछ कम दिया है, ऐसा भी न सोचें। असल में हम तो उन्हीं के प्रजाजन हैं और वे स्वंय मनुमहाराज हैं। सबसे बड़े उपनिवेश को और चाहिए भी तो क्या, बताइये। लाइव देखिते रहिये चैनल वैनल।
यह भी मत कहिये कि भाई, हद है कि बलि, जब ट्रम्प ने यूएस इलेक्शन जीता था, तब मोदी उन्हें सबसे पहले फोन करने वाले नेताओं में शामिल थे।
अभी 2014 के बाद नरसंहारी अश्वमेध अभियान तेज जरूर हुआ है लेकिन हालात दरअसल 2014 से पहले कुछ बेहतर नहीं थे।
नरसंहार के सिलसिले में यह फासिज्म का राजकाज कारपोरेट नरसंहार का हिंदुत्व एजंडा ग्लोबल है। प्रगति यही है।
हजारों बार पिछले पच्चीस सालों से घटनाओं का सिलसिलेवार ब्यौरा हम देते रहे हैं। उन्हें दोहराये बिना सिर्फ इतना कहना है कि हम एक के बाद एक नरसंहार के घटनाक्रम से होकर पंजाब की पांचों नदियां खून से लबालब, सारा का सारा गंगा यमुना नर्मदा ब्रह्मपुत्र कृष्णा कावेरी गोदावरी के उपजाऊ मैदानों से लेकर हिमालय, समुदंर, अरण्य, विंध्य, अरावली, सतपूड़ा, रेगिस्तान रण के साथ साथ एक एक जनपद को मरघट में तब्दील होने के नजारे देखते हुए मौजूदा मुकाम पर निःशस्त्र मौनी बाबा जय श्री जयश्री बजंरगी केसरिया हो चुके हैं।
पच्चीस साल के मुक्तबाजार के सफरनामे में फर्क सिर्फ यही है।
सारी विचारधाराओं का आत्मसमर्पण उपलब्धि है।
मौलिक अधिकारों का हनन उपलब्धि है।
सारे माध्यमों का, विधाओं, विषयों का अवसान है।
बहुलता विविधता सहिष्णुता अमन चैन का विसर्जन है।
दसों दिशाओं में आगजनी, हिंसा की दंगाई राजनीति है।
इतिहास के अंधेरे ब्लैकहोल में गोताखोरी है और ज्ञान मिथकों में सीमाबद्ध है।
नागरिक और मानवाधिकारों का हनन उपलब्धि है।
संविधान और कायादे कानून का कत्लेआम का नवजागरण है।
सारे राष्ट्रीय संसाधनों संपत्तियों का निजीकरण नीलामी विनिवेश उपलब्थि है।
बिल्डर प्रोमोटर माफिया राज उपलब्धि है।
रोजगार संकट आजीविका संकट पर्यावरण जलवायु संकट उपलब्धि है।
फिलवक्त कैशलैस डिजिटल इंडिया का फाइव जी स्टार पेटीएम जिओ बाजार बम बम है। हर बम परमाणु बम है। आगे भुखमरी मंदी और हिरोशिमा नागासाकी महोत्सव हैं।
फर्क यही है कि मुक्तबाजार में सबसे बड़ा रुपइया है, न बाप बड़ा है न भइया और न मइया। नोटबंदी के पहले जो हाल रहा है, अब भी वहीं हाल है।
नोटबंदी से पहले और बाद में भी डिजिटल कैशलैस इंडिया में नकदी की क्रयशक्ति हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता है और हम परिवार से बेदखल हो गये हैं तो बच्चे लावारिस हो गये हैं और समाज संस्कृति सिरे से लापता हैं और हमारा सारा कामकाज और राजकाज मुक्तबाजार है। हम किसी देश के नहीं मुक्त बाजार के लावारिश गुलाम प्रजाजन हैं।
पंजाब में अस्सी के दशक से भी भयानक संकट सर्वव्यापी नशा है तो बाकी देश में भी नशा के शिकंजे में नई पीढ़ी है।
बांग्ला अखबारों में, चैनलों में रोज-रोज सिलिसलेवार ब्यौरा किसी न किसी टीनएजर या नवयुवा के नशे के शिकंजे में बाप, भाई, मां या दादी को मार देने या विवाहित युवक द्वारा पत्नी और बच्चों को निर्मम तरीके से मार देने का छप दीख रहा है।
कलेजा चाक होने के बदले लोगों को इस खतरनाक खेल से मजा आ रहे है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके बच्चे सही सलामत हैं और रेस में सबसे तेज दौड़ रहे हैं। हालात उलट हैं।
टुजी थ्रीजी फोर जी फाइव जी दरअसल जी नहीं, उपभोक्ता वाद के चरणबद्ध स्टार है। हमारे बच्चे हत्यारों में, अपराधियों में, बलात्कारियों में शामिल हो रहे हैं।
यह संचार क्रांति भी नहीं है। विशुध उपभोक्ता क्रांति है। अपराध क्रांति भी है यह।
सूचना, जानकारी ज्ञान सिरे से लापता हैं।
तकनीक को छोड़ सारे विषय उपेक्षित हैं।
उच्च शिक्षा शोध के बदले तकनीक और सिर्फ तकनीक है।
ज्यादा से ज्यादा कमाने, ज्यादा से ज्यादा खर्च करने और ज्यादा से ज्यादा भोग की आपाधापी भगदड़ है। सुरसामुखी बेरोजगारी है। नशा है और बेलगाम अपराध बाहुबलि राज है। सारे बच्चे इस अपराध जगत के वाशिंदे बना दिये जा रहे हैं। हम बेपरवाह हैं।
हम बेपरवाह है कि हमारे बच्चे लावारिस भटक रहे हैं।
हर विधा माध्यम में मनोरंजन भोग कार्निवाल है।
अर्थव्यवस्था या उत्पादन प्रणाली के प्रबंधन के बजाय सत्ता वर्ग के लिए रंगबिरंगी योजनाओं में खैरात बांटकर लोकलुभावन बजट या मौके बेमौके मुआवजा, लाटरी या पुरस्कार सम्मान भत्ता के जरिये या फिर खालिस घोषणाओं से, टैक्स राहत, कर्ज-पैकेज के ऐलान से सरकारी खर्च से वोटबैंक मजबूत बनाकर नकदी बढ़ाकर बाजार में आम जनता कासारा पैसा बचत जाममाल झोंककर अनंतकाल तक इलेक्शन जीतने का मौका है।
बजट इसीलिए वित्तीय प्रबंधन नहीं वोटबैंक प्रंबंधन है। नोटों की वर्षा है।
सेवा जारी है। तकनीक ब्लिट्ज है और मनोरंजन भारी है।
देश के संसाधनों का संसाधनों का क्या हो रहा है, मेहनतकशों और बहुजनों, बच्चों और औरतों के क्या हाल हैं, बुनियादी सेवाओं और जरुरतो का किस्सा क्या है, रोजगार और आजीविका का क्या बना, उत्पादन प्रणाली या अर्थव्यवस्था की सेहत के बारे में सोचने समझने की मोबाइल नागरिकों को कोई परवाह नहीं है।
मसलन वित्तीय घाटे के सरकारी आंकड़ों पर सीएजी ने सवाल खड़े कर दिए हैं। सीएजी का अनुमान है कि वित्तीय वर्ष 2016 में वित्तीय घाटा सरकारी अनुमान से 50, 000 करोड़ रुपये ज्यादा हो सकता है। सीएजी के मुताबिक चालू वित्त वर्ष में वित्तीय घाटा बढ़ने का अनुमान है, जबकि वित्त वर्ष 2016 में जीडीपी का 4.31 फीसदी वित्तीय घाटा होगा। वहीं सरकार का वित्तीय घाटा, जीडीपी का 3.9 फीसदी रहने का अनुमान है।
और आम नागरिक बल्ले-बल्ले हैं। छप्पर फाड़ सुनहले दिनों की उम्मीद में हम मजा लूटने के मकसद से रातों रात केसरिया फौज में शामिल हो गये हैं।
रथी महारथियों के चेहरे बदल भी जायें तो जल जंगल जमीन आजीविका रोजगार नागरिकता मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर मेहनतकशों के हक हकूक और बुनियादी सेवाओं, जरुरतों और पहचान और वजूद से बेधखल बंचित बहुजनों की रोजमर्रे की जिंदगी में बदलाव के आसार कम ही हैं।
आजादी के बाद, गणतंत्र लागू होने के बाद एक और गणतंत्र दिवस के उत्सव से पहले तक बुनियादी अंतर समानता, न्याय और स्वतंत्रता के लक्ष्यों के मद्देनजर कभी नहीं आया है।
हालात आजादी से पहले थे, उससे कहीं बदतर हैं।
पहले कमसकम ख्वाब थे, ख्वाबों को अंजाम देने के विचार थे। जनांदोलन थे। अब सिर्फ मुक्तबाजार है। मौकापरस्ती है।
अमेरिका के हर शहर में महिलाओं की अगुवाई में लाखों महिलाओं के सड़कों पर उतर आने पर सविता बाबू ने सवाल किया कि ये लोग मतदान के दौरान क्या कर रहे थे।
संजोगवश खुद जिनके खिलाफ यह जनविद्रोह है, उन्हीं डोनाल्ड ट्रंप का सवाल भी यही है।
मुद्दे की बात तो यह है कि वियतनाम युद्ध के बाद सत्ता के खिलाफ अमेरिकी नागरिकों के इतने बड़े विरोध प्रदर्शन का कोई इतिहास नहीं है।
बहुमत जनादेश के बावजूद आधी आबादी और आधा से जियादा अमेरिका को नये राष्ट्रपति को अपना राष्ट्रपति मानने से इंकार किया है।
वाशिंगटन मार्च का नारा है, यह मैराथन दौड़ है, फर्राटा कतई नहीं है।
राजनीति भी दरअसल मैराथन दौड़ है, फर्राटा है नहीं।
बहुमत और जनादेश के दम पर जनता के हकहकूक को कुचलने रौंदने का हक हुकूमत को नहीं है।
यह कोई दासखत नहीं है कि एकदफा वोट दे दिया तो पांच साल तक चूं भी नहीं कर सकते।
सबसे बड़ी बात जो हम शुरू से बार बार कह रहे हैं, वह यह है कि जब तक आधी आबादी उठ खड़ी नहीं आजाद, तब तक लोकतंत्र की हर लड़ाई अधूरी है।
ऐसा भी कतई नहीं है कि अमेरिकी महिलाएं भारत की महिलाओं की तुलना में दम खम में कुछ ज्यादा मजबूत हैं या उनकी औसत शिक्षा भारत की महिलाओं से कुछ कम है।
पितृसत्ता और मनुस्मृति के दोहरे बंधन में भारत की महिलाएं जो सबसे ज्यादा मेहनतकश हैं, सिरे से या दासी , या शूद्र या अस्पृश्य या बंधुआ या देवदासी हैं या सिर्फ देवी हैं और उनका कोई वजूद नहीं है।
मतलब यह है कि आजादी से पहले हो गये सती प्रथा उन्मूलन, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा जैसे क्रांतिकारी सुधारों के बावजूद भारत में स्त्री सशक्तीकरण की कोई जमीन नहीं है। कुछ महिलाओं के सितारे की भांति चमक दमक के बावजूद भारत में स्त्री अभी अपने पांवों पर खड़ी नहीं हो सकती। सबसे पहले हकीकत की यह जमीन बदलने की अनिवार्यता है, जिसके बिना लोकतंत्र की कोई खेती सिरे से अंसभव है।
जब आधी आबादी पूरीतरह बंधुआ है और पंचानब्वे फीसद बहुजनों को जाति धर्म नस्ल भूगोल जीवन के हर क्षेत्र से हर हकहकूक से बेदखल कर दिया गया है, तब लोकतंत्र की खुशफहमी के सिवाय हमारी राजनीति क्या है, इस सबसे पहले समझ लें।
इस अल्पमत वर्चस्व की रंगभेदी पितृसत्ता के खिलाफ हमारी मर्द राजनीति खामोश है, इसलिए प्रतिरोध की जमीन कहीं बन ही नहीं रही है और न बहुमत के सिवाय अल्पमत की कहीं कोई सुनवाई है और न बंधुआ बहुजनों या आधी आबादी स्त्रियों की किसी भी स्तर पर कोई सुनवाई या रिहाई है।
हिंदुत्व की मुख्यधारा से एकदम अलहदा आदिवासी भूगोल और हिमालयी क्षेत्रों में प्रतिरोध की संस्कृति शुरू से है क्योंकि वहां पितृसत्ता हो न हो, स्त्री का नेतृत्व स्थापित है।
उत्तराखंड, मणिपुर, झारखंड और छत्तीसगढ़ के अलावा पूरे आदिवासी भूगोल में स्त्री की भूमिका नेतृत्वकारी है तो राष्ट्र और सत्ता के दमन के खिलाफ भी उनकी हकहकूक की आवाजें हमेशा बाबुलंद गूंजती रही हैं।
देश के बाकी भूगोल में यह लोकतंत्र अनुपस्थित है।
क्योंकि पितृसत्ता के भूगोल में कोई स्त्रीकाल नहीं है।
भारत में हालात बदलने के लिए गांव-गांव से, हर जनपद से राजधानी की ओर स्त्री मार्च का मैराथन शुरू करना जरूरी है।


