विपक्ष की बेंगलुरू बैठक : एकजुटता के मुद्दे क्या?
आपकी नज़र | स्तंभ | हस्तक्षेप Opposition's Bengaluru meeting: What are the issues of unity? फासीवाद के विरूद्ध जनतंत्र की रक्षा के प्रति राजनीतिक दलों की गंभीरता ही जनतंत्र और जीवन के अधिकारों की रक्षा के प्रश्नों के प्रति आम जन को भी गंभीर बना सकती है।

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बेंगलुरू बैठक के संदर्भ में
विपक्ष की बेंगलुरू बैठक की पृष्ठभूमि में वर्तमान राजनीति की यह मूलभूत समझ है कि भारत में फासीवाद के उग्रतम रूप का ख़तरा साफ़ तौर पर मंडराने लगा है।
अगर इतने सारे विपक्षी दलों के एक साथ मिलने के पीछे यह बुनियादी कारण नहीं है तो इस बैठक का सचमुच कोई राजनीतिक महत्व भी नहीं है।
एक, दो या चंद नहीं, सचाई यह है कि आज भारतीय संघ की प्रत्येक पार्टी का अस्तित्व मात्र दांव पर है। इसमें भारत के राजनीतिक अथवा भौगोलिक नक़्शे के वैविध्य और विभाजन का भी कोई असर नहीं पड़ने वाला है।
क्षत्रप अपने प्रभुत्व के सपनों में आज भी खोए रह सकते हैं और दक्षिण भारत के नेता उत्तर भारत के नेताओं से तथा पूरब के नेता पश्चिम से अपने भेद का भ्रम पाले रख सकते हैं, पर उनकी इन सारी खुशफहमियों के विपरीत एक एकात्मवादी, निरंकुश फ़ासिस्ट तानाशाही की स्थापना के लिए राजसत्ता के अंगों में जिस शक्ति और विस्तार की ज़रूरत है, बीजेपी-आरएसएस ने इसी बीच सभी स्तर पर इसके कारक तत्वों की ठोस सिनाख्त कर ली हैं और उसके निर्माण की पूरी रूप-रेखा उसके सामने साफ़ है।
क्या क्षेत्रीय क्षत्रप भाजपा को अपने दम पर हरा सकते हैं?
आज भी जो पार्टियाँ या नेताओं के समूह मोदी के संघीय शासन में अपने स्वतंत्र अस्तित्व के भ्रम को पाले हुए हैं, और इसके लिए भाजपा से नाना प्रकार से भाव-तौल भी कर रहे हैं, उनकी इस भ्रमासक्ति के लिए इसके सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता है कि ‘बकरे की माँ आख़िर कब तक खैर मनायेगी’।
मसलन्, आंध्र प्रदेश के जगन मोहन रेड्डी या तेलुगुदेशम, तेलंगाना के केसीआर, ओड़िसा के नवीन पटनायक, महाराष्ट्र के अजित पवार, एकनाथ शिंदे और कुछ हद तक आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, यूपी के अखिलेश यादव और मायावती तथा पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी को भी लिया जा सकता है। इनमें से किसी को भी अगर अपने पर यह भरोसा है कि वे अकेले अपनी ताक़त के बल पर 2024 में जीत कर अपने अस्तित्व को बचाये रखेंगे, तो यह कसाई से रहम की उम्मीद करने जैसा मतिभ्रम ही कहलायेगा।
मोदी का 2024 में सत्ता में फिर से वापसी का क्या अर्थ होगा?
2024 में मोदी की सत्ता पर फिर से वापसी का अर्थ होगा भारत के संविधान को ताक पर रख देना, धर्म-आधारित तानाशाही राज्य की स्थापना, जनतांत्रिक और नागरिक अधिकारों का अंत, संवैधानिक और जनतांत्रिक संस्थाओं की समाप्ति और विपक्ष के प्रत्येक दल और नेता का घनघोर दमन।
भारत की आज़ादी से हमारे देश के लोगों ने न्याय और समानता के जो भी अधिकार अर्जित किसे हैं, वे सब एक-एक कर छीन लिए जायेंगे।
न सिर्फ़ दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण का अंत होगा, मज़दूरों के अधिकारों और किसानों की माँगों का खुला दमन होगा, बल्कि देश की एकता और अखंडता तथा लोगों के बीच का भाईचारा भी भारी ख़तरे में पड़ जायेगा।
मोदी की अमेरिका यात्रा के वक्त ओबामा ने भारतीय समाज के तनावों के अपने चरम तक पहुँच जाने की जो चेतावनी दी थी, वह सौ प्रतिशत सही साबित होगी।
बीजेपी के ही नेतृत्व में देश को टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित करने वाली नाना प्रकार की ताक़तें पूरी तरह से सक्रिय नज़र आने लगेंगी और उन ताक़तों के हवाले से ही केंद्रीय सत्ता का दमनचक्र हर बीतते दिन के साथ अपने चरम की ओर बढ़ता चला जायेगा।
राजसत्ता का राक्षसी रूप सामने आने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी।
नोटबंदी की तरह का सत्ता का पागलपन ख़तरनाक जन-हत्यारों की ख़ूँख़ार सत्ता के बिल्कुल नए रूप में दिखाई देगा।
आज जो ऊपर से नज़र आता है, उसमें ऐसा गुणात्मक परिवर्तन होगा कि उसकी अभी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
एक फ़ासिस्ट तानाशाह के दमनचक्र पर तालियाँ पीटने वालों की भी कोई कमी नहीं रहेगी।
ज़ाहिर है कि अभी सत्ता के लिए विपक्ष की चुनौतियां जितनी बढ़ेगी, उसी अनुपात में संघी फासीवाद की पैंतरेबाज़ी और ख़ूँख़ार गतिविधियाँ भी बढ़ती जाएगी।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अभी से परिस्थिति इतनी गंभीर हो चुकी है कि 2024 का चुनाव हमारे देश में जनतंत्र और फासीवाद, दोनों के लिए ही जीवन-मृत्यु का प्रश्न बन गया है।
बंगलुरू बैठक में हर दल को इस मौक़े की गंभीरता और नाजुकता के अहसास का परिचय देना होगा।
यहाँ तक कि जो तमाम दल अभी मोदी के तथाकथित एनडीए में शामिल होने की जुगत में हैं, उनसे भी संवाद क़ायम करके परिस्थिति की इस गंभीरता को प्रेषित करने की ज़रूरत है।
फासीवाद के विरूद्ध जनतंत्र की रक्षा के प्रति राजनीतिक दलों की गंभीरता ही जनतंत्र और जीवन के अधिकारों की रक्षा के प्रश्नों के प्रति आम जन को भी गंभीर बना सकती है।
-अरुण माहेश्वरी
Opposition's Bengaluru meeting: What are the issues of unity?


