विभाजन रेखाएँ : इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूँ है? दुर्भाग्य से यह सवाल कोई नहीं उठाता
विभाजन रेखाएँ : इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूँ है? दुर्भाग्य से यह सवाल कोई नहीं उठाता

विभाजन रेखाएँ मिटाने की चाह | Want to erase divider lines
माहौल कुछ ऐसा है कि सोचने वाले को सोच विचार से डर लगे, हवा के झोंके से जिस के बदन के रौएँ थरथराते हो, वह अपनी संवेदनशीलता से भयभीत हो उठें। हर कोई सोचता है - सिर्फ मैं तकलीफ में हूँ और मुझे तकलीफ पहुँचाने ‘वो सारे’ कोशिश में लगे हैं। ‘वो’ कौन हैं, इस पर विवाद हो सकता है। वास्तव में सवाल यह उठना चाहिए कि -
इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यूँ है?
लेकिन दुर्भाग्य से यह सवाल कोई नहीं उठाता।
शहर, गाँव, बस्ती, महल, झुग्गी झोपड़ी, आप कहीं भी जाएँ, हर जगह, हर शख्स परेशान है। हर आदमी दूसरे से ड़रा हुआ है। उसे किसी भी बात पर का भरोसा नहीं है, कोई चीज उसे दिलासा नहीं पहुंचा सकती। इन सब के मूल में हैं विभाजन रेखाएँ – अंतरराष्ट्रीय राजनीति से लेकर अपनी बेडरूम तक फैली हुई, समूचे संसार को शत खंडित करती अनगिनत विभाजन रेखाएँ ! उन्हें किस ने बनाया, क्यों बनाया, किस ने उन्हें अधिक गहराई प्रदान की, इस पर बातचीत हो सकती है। वैसे वह दबी ज़ुबान में होती भी है (कारण वही, ईश्वर की तरह सर्व व्यापी भय)। सवाल इतना ही है कि हम सब जाने-अनजाने इन विभाजन रेखाओं को बनाने-गहरा करने की प्रक्रिया में शामिल हो रहे हैं और इस बात की किसी को खबर तक नहीं। परिणामस्वरूप मानव जात की एकता में विश्वास करनेवाले सभी लोग दिन-ब-दिन और भी अकेले और असहाय हो रहे हैं।
अमरीका का राष्ट्राध्यक्ष-उपराष्ट्राध्यक्ष कौन बना, दो अलग जात-संप्रदाय के लोगों ने सोच समझ कर शादी रचायी या किसी जोड़े ने अपनी शादी सोच समझ कर या अविचार से तोड़ दी, किस औरत का बलात्कार हुआ या किसी ने ख़ुदकुशी की – घटना चाहे जो भी हो, उस के प्रति हमारी प्रतिक्रिया क्या हो, यह भी अब इन विभाजन रेखाओं पर निर्भर होने लगा है। (किसी घटना को महसूस कर, उस पर सोचना समझना, फिर अभिव्यक्त होना यह बात तो काफी पीछे छुट गयी है।) ‘वह’ व्यक्ति विभाजन रेखा के किस ओर खड़ा है, यह भाँप कर ही लोग अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। हम सब के मन किसी सामूहिक मन के साथ जुड़ गए हैं; ऐसा सामूहिक मन, जो किसी न किसी के खिलाफ है। इसलिए हर हादसे के बाद सोशल मीडिया से लोग अनाप शनाप बकते हैं, गाली-गलौच पर उतरते हैं, औरतों को बलात्कार की धमकियाँ देते हैं। ऊपर से यह दलील भी देते हैं कि ‘ऐसा करना हमारे स्वभाव में नहीं है। लेकिन क्या करें, यही भाषा ‘उन’ की समझ में आती है।’ पहले ऐसा नहीं होता था, यह ‘खेल’ गत कुछ सालों से खेला जा रहा है, यह बात सच है। लेकिन इस के नेपथ्य की रचना में हम सब लोग कुछ दशकों से शामिल थे, इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता। इसलिए हम सब – व्यक्ति, संस्थाएं, संगठन, समाज, देश – इस खेल को बड़े चाव से और प्रतिद्वंद्विता के भाव से खेल रहे हैं।
लोकतंत्र के माने बहुमत का राज्य ? State of majority considered in democracy?
शुरुवात व्यापक सवालों से करते हैं। इस बार अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष के चुनाव का मुक़ाबला बहुत कांटे का रहा। अपने यहाँ म. प्र., राजस्थान, बिहार, उस से पहले गोवा - इन राज्यों के विधान सभा चुनावों में भी बराबरी की टक्कर थी। अगर तीन-चार प्रतिशत वोट यहाँ से वहाँ हो जाते, तो नतीजे बराबर उल्टे आते। लेकिन सब लोग विजेताओं की आरती उतारने और पराजितों को ताने देने में इतने व्यस्त रहे, कि इस राजनैतिक द्विखंडितता की चर्चा किसी ने नहीं की। ‘उस पार’ की आधी आबादी को, अपने ही आधे हिस्से को समझ लेने की ज़रूरत आखिर किसे महसूस क्यों नहीं हुई? ‘विजेता को सब कुछ, पराजित को ठेंगा’ या ’५१ प्रतिशत = १०० और ४९ प्रतिशत = ०’ इन सूत्रों पर किसी ने सवाल क्यों नहीं उठाया? राजनीति का उद्देश ‘कुछ भी कर के’ आवश्यक वोटों की सीमारेखा को लांघना यही हो, तो ध्रुवीकरण से बचा नहीं जा सकता। लोकतन्त्र के माने जब ‘बहुसंख्यकों का राज्य’ हो जाता है, तब अल्पमत का अनादर तो होना ही है। वहाँ से अगला पड़ाव अल्प संख्यकों को बेदखल करना या उन्हें पांवो तले रोंदना यही हो सकता है। यह सूत्र फिर अपने जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश करता है। सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं, राजनैतिक संगठन, हाउसिंग सोसायटी, छोटे-छोटे समूह – हर जगह उसी का इस्तेमाल कर ‘उन’ को अल्पसंख्यक बना कर लोग छोटे-मोटे सत्ता स्थान हासिल करते हैं। हारने वाले भी चुप नहीं बैठते। किसी न किसी तरह से बहुसंख्या का ‘जुगाड़’ करने के रास्ते वे अपनाते हैं। इसी तरह देश से लेकर गाँव तक और फिर अपने मित्र-समूह और चौके-बेडरूम तक ये विभाजन रेखाएँ गहराती जाती हैं।
समाज का अर्थ होता है एक-दूसरे से सुख-दुख से बंधा हुआ समूह। ऐसा बंधन न हो, तो सिर्फ जमाव बचता है, जो प्राकृतिक रूप से हिंस्र होता है। हम जिसे अपना समाज कहते हैं, वह सही अर्थ में समाज कहलाने लायक है या नहीं, इस बात पर आशंका उपजे, ऐसे वाकियात रोज सामने आने लगे हैं। कुछ महीनों पहले हमारे देश में एक युवा अभिनेता ने ख़ुदकुशी की। वह बहुत ही उम्दा नौजवान था, जिस से लोगों को बहुत सारी अपेक्षाएँ थी। उस का इस कदर इस दुनिया से चले जाना यह सब को शोकाकुल और बेचैन करने वाली बात थी। ऐसे वक़्त किसी भी स्वस्थ समाज से क्या उम्मीद की जा सकती है? – आत्महत्या के कारण स्पष्ट होने तक संयम बरते, उस के नजदीकी लोगों के शोक में शामिल हो, तथा ख़ुदकुशी के कारण स्पष्ट होने के बाद सही विचार और कृति करें; ताकि ऐसे वाक़ियात फिर ना हो। लेकिन हम थे, जिन्होंने इस बहाने उस के नजदीकी लोगों को या हम जिन्हें ‘वो’ मानते हैं, उन सब को कटघरे में खड़ा कर दिया। उन पर मीडिया ट्रायल चलायी, सजा भी सुनवाई। अगर उस की मृत्यु बेहद अकेलेपन की पीड़ा से उपजी हो, तो हम ने इस पर गौर करना चाहिए था कि हजारों की भीड़ से घिरा आदमी इतना असहाय और अकेला क्यों हो जाता है। अगर इस के पीछे कोई मानसिक बीमारी है, तो शारीरिक बीमारी की तरह उस के उपचार के बारे में खुल कर बातचीत होनी चाहिए, उस से जुड़े अपराध बोध को मिटाने की कोशिशें होनी चाहिए। लेकिन हम ने इन घटनाओं का इस्तेमाल विभाजन रेखा के पार के ‘उन’ लोगों पर तीर चलाने के लिए किया।
बात चाहे किसान आंदोलन (Peasant movement) की हो, किसी महिला पर हुए बलात्कार की, या किसी को मिले पुरस्कार या सम्मान की, हमारे नज़रिया का दिशा दिग्दर्शन तथ्य या मुद्दे नहीं, बल्कि विभाजन रेखाएं करती हैं। हम उस वक़्त इस बात को भूल जाते हैं कि ऐसी अच्छी या बुरी घटना हमारे अपने साथ भी घटित हो सकती है। अगर हम धर्म के नाम पर विभाजन रेखा खींचते हैं, तो कल कोई जाति या किसी अन्य नाम पर अलग विभाजन रेखा खींच कर हमें ‘उस पार’ वाला घोषित कर सकता है। एक समय बाद किसी सॉफ्टवेअर प्रोग्राम (Software program) जैसी ये विभाजन रेखाएँ अपने आप खींची जाती है, गहराती जाती हैं; बस जेहन में आप-पर भाव का कोई स्टिम्युलस (संकेत) होना उस के लिए काफी होता है। हमारे घर की दहलीज को लांघ कर वे हमारे चौके-चूल्हे और बेडरूम तक के अवकाश को भी विभाजित करती हैं। उदाहरण एक ढूंढो, हजार मिल जाएंगे।
विभाजन रेखाओं को परास्त कैसे करें? | How to defeat the dividing lines?
फिर क्या हम हम वैचारिक भूमिका लेना छोड़ दें, या सार्वजनिक जीवन में किसी भी व्यक्ति-संगठन-विचारधारा का विश्लेषण करना बंद करें? कतई नहीं, हम जांच-पड़ताल-विश्लेषण ज़रूर करें, लेकिन उन में ‘वे’ कैसे चरित्रहीन और ‘हम’ कैसे ऊंचे चरित्र वाले, ऐसा रुख ना अपनाएं। समीक्षा जरूरी हो, तो अपने समाज के सर्वांगीण पतन की करें, और उस की शुरुवात आत्म-समीक्षा से करें। यह ना भूलें कि जीवन में काले-सफ़ेद के अलावा सैकड़ों रंग हैं और हर सवाल के एक से अधिक पहलु हुआ करते हैं। हमारे कल के साथीदार आज ‘दुश्मन नंबर एक’ बनते हैं, तो हमारे समूह के टूटने में वैचारिक मुद्दे और व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता इन दोनों का क्या योगदान है, इस बात को भी टटोल लें। हर व्यक्ति अपने आप में अनूठा होता है; किसी को कबीर और तुलसीदास, कंगन रनौट का अभिनय और कुनाल कामरा की स्टैंड अप कॉमेडी दोनों एक साथ भा सकते हैं, कोई आयुर्वेद का समर्थक गिहात्यबंदी का विरोधक भी हो सकता है, इस बात को कभी न भूलें।
हमारे समाज में विभाजन रेखाओं के निर्माण के साथ साथ उन्हें मिटाने की भी सशक्त परंपरा भी रही है। भक्ति संप्रदाय और सूफियों ने सांस्कृतिक धरातल पर यह कार्य सदियों तक किया है। सौ साल पहले गांधी ने जाति और धर्म की विभाजन रेखाओं से शत खंडित इस देश को बहुविधता के धागों में पिरोकर एक खुले आइडिया ऑफ इंडिया की नींव रखी। ‘सामाजिक बदलाव बनाम राजनैतिक आज़ादी’ के छद्म द्वंद्व का निरास कर दोनों क्षेत्र में परिवर्तन की धारा को तेज किया। उस के बाद अनगिनत नेता-कार्यकर्ता-विचारक-साधारणजन ने अपने अपने स्तर पर संवाद को आगे बढ़ाया, मतभेदों को मनभेदों में परिवर्तित होने से बचाया। अगर हम किसी ‘गणवेशधारी समाज’ का हिस्सा बनना नहीं चाहते, तो हम में से हर एक को यह बीड़ा आज उठाना पड़ेगा। उस के लिए सब से पहले अपने मन में स्थित कई सारी ‘वाघा बॉर्डर’ को मिटाना होगा। अपने परिवार के सदस्य, दोस्त, रिश्तेदार, स्कूल-कॉलेज के सहपाठी, कार्यालय के सहकारी, समूह-संगठन के साथी, जो द्वीप बन कर एक दूसरे से कटे-कटे से बैठे हैं, उन्हें जोड़ना होगा। अपने छोटे-बड़े बंद समूहों को खुली हवा का एहसास दिलाना होगा। उस के लिए उन के मानस में छिपी असुरक्षा की भावना को मिटाना होगा। स्वतंत्र विचार के लोग जो आज अकेले पड़े हैं, उन के पीछे अपनी ताकत खड़ी करनी होगी। ये सारी बातें करनी हो, तो उस के लिए अ-लोकप्रिय होने की जोखिम उठानी होगी। अगर हम यह करने से चूकते हैं, तो बाहर से आनेवाला फासिज्म हमारे अंदर पनपने वाले कट्टरता से कब हाथ मिलाएगा, इस का हमें पता भी नहीं चलेगा। इसलिए, साथियों, सावधान!
रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ
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