नरेन्द्र कुमार आर्य

बिहार की राजनीति में पिछले चौबीस घंटे तूफानी उठापटक, षड्यंत्र, धोखे, स्वार्थसिद्धि और दिन-दहाड़े छुरा घोंपने की घटनाओं से भरे एक राजनीतिक थ्रिल्लर की तरह रहे. नीतीश कुमार ने महागठबंधन के सहयोगियों को इसकी भनक तक नहीं लगने दी कि वो कौन सा राजनैतिक षड्यंत्र उनके खिलाफ रच रहे हैं. विश्लेषकों को ही नहीं सामान्य जागरूक आदमी को भी नीतीश के विमुद्रीकरण के मोदी के फैसले के समर्थन, कोविंद की उम्मीदवारी के समर्थन इत्यादि से, ये अंदाजा लग तो गया था कि नीतीश ज़ल्दी ही ब्राह्मणवादी भाजपा की ज़द में गिरफ्तार आने वाले हैं लेकिन किसी ने नहीं सोच था ये सारा घटनाक्रम इतनी जल्दी घटित हो जाएगा. नीतीश के इस्तीफे से शुरू हुआ ड्रामा उनके पदग्रहण से समाप्त हो गया जिसमे राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने अपने 'ऐतिहासिक चरित्र' के अनुरूप संविधान के नियमों और निर्णयों को धता बताते हुए 'भाजपाधारित विवेक' के अनुसार संचालित होते हुए एक भाजपाई एजेंट के तौर पर नीतीश कुमार को शपथ दिला कर नाटक का पटाक्षेप कर दिया.

कल जब बिहार के कार्यवाहक राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी पटना विश्वविद्यालय के उच्चीकृत पुस्तकालय का उद्घाटन करने आये, तो लोगों को लगा ये कार्यवाहक राज्यपाल की महज़ एक दस्तूरी यात्रा है. मगर इस यात्रा के सूत्र गहरे खोजे जाने चाहिए. जिस तरह से हर चीज़ इतनी तेज़ी और तय तरीके से अंजाम दी गयी, उससे पता चलता है कि इसके सूत्र नीतीश की पिछली कई बैठकों से जुड़े हैं.

नीतीश भाजपा और मोदी के साथ हुई कई अपनी पिछली बैठकों में संकेत भी दे रहे थे और रणनीति भी बना रहे थे कि राजद से किनार कर सकते हैं. नीतीश का अचानक इस्तीफ़ा, केसरीनाथ त्रिपाठी का पटना दौरा, लालू का तीन दिनों का सीबीआई जाँच के सिलसिले में पटना से बाहर रांची में रहना, मोदी का नीतीश के समर्थन में ट्वीट इत्यादि घटनाएँ सारा घटनाचक्र एक पूर्वनियोजित रणनीति का हिसा लगते हैं

नीतीश बिहार के आरएसएस नेताओं के साथ नजदीकियां बनाकर रखते हैं और कई महीने पहले से ही आरएसएस के शीर्ष नेताओं की तरफ से संकेत मिल रहे थे कि वे भाजपा के गले की हड्डी राजद प्रमुख लालू को सत्ताच्युत कर सकते हैं. नीतीश के लगातार भाजपा की तरफ बढ़ने के लिए लालू भी जिम्मेवार हैं. पिछले विधान सभा चुनावों में महागठबंधन को मिली अप्रत्याशित कामयाबी और उसमे राजद के सबसे बड़े दल के तौर पर उभरने के बाद से ही लालू की महत्वाकांक्षाएं बल मरने लगी थीं और 'घुन्ने' नीतीश को लालू अपनी जनसुलभ वाचालता से एक तरह से ब्लैकमेल करने लगे थे. लालू के नेतृत्व में 'यादववाद' कुछ उसी तरह से प्रदेश, प्रशासन और रोज़मर्रा के जीवन पर हावी होने लगा था जैसा अक्सर यूपी में मुलायम के सपा के सत्ता में आने के बाद होता है. लगभग ३५ वरिष्ठ आई ए एस अधिकारीयों ने राजद नेताओं के दबाब के चलते केंद्र में वापस जाने के निर्णय से मुख्यमंत्री नीतीश को अवगत कराया था.

लालू के संरक्षण एक फिर से फन उठाते बाहुबली शहाबुद्दीन जिसने नीतीश को खुली चुनौती दी थी, ने भी नीतीश के लिए अपने राजनैतिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एक विकल्प को ढूँढने के लिए विवश किया था. यादववाद और सत्त्लोलुप्ता की राजनीति के चलते फासीवादी ताक़तों को हराने वाला 'समाजवाद' संकीर्णताओं की भेंट चढ़ने के लिए विवश था. भाजपा और नीतीश ने प्रारंभिक रजामंदी के बाद मिल-जुल कर मोदी सरकार के अधीन पालतू 'सरकारी तोते' का इस्तेमाल किया. न सिर्फ लालू को फंसा गया बल्कि उनके पूरे परिवार को ही भ्रष्ट और दागी सिद्ध करने का प्रयास किया गया जिसमे सीबीआई संदिग्ध भूमिका रही. अंतत: नीतीश ने इसी बहाने का इस्तेमाल करते हुए राजद और कोंग्रेस दोनों की पीठ में छुरा घोंपा.हालंकि लालू भी कुछ केन्द्रीय नेताओं से मिलकर नीतीश की सरकार गिराने के चक्कर में थे.

ये इन नेताओं में जनता के किये गए विश्वास के साथ विस्वासघात तो है ही साथ ही साथ ये लोकतंत्र की भावना और प्रतिनिधित्व की मूल भावना के साथ भी खिलवाड़ है. एक ने उसे परिवारवाद की भेंट चढ़ दिया और दूसरे ने सत्तालोलुपता के नाम. बिहार की सामान्य जनता नेताओं की राजनैतिक नौटंकी को भलीभांती देख रही है.

भ्रष्टाचार को एक मुखोटे की तरह इस्तेमाल करते हुए और बिहार के विकास के जुमले को अपने अस्तित्व का हथियार बनाते हुए नीतीश ने महागठबंधन के वैचारिक प्लैटफार्म के साथ खुला खेल खेला. कांग्रेश ने भी आरोप लगे कि उसे नीतीश के गुप-चुप तरीके से से लिए गए निर्णय की कोई जानकारी नहीं थी. उन्ही की पार्टी के शरद यादव और अली नवर जैसे वरिष्ठ नेता ठगा महसूस कर रहे हैं.

महागठबंधन का जन्म जिस राजनैतिक ज़रुरत से हुआ था नीतीश ने उसकी परिपक्वता पाने से पहले ही भ्रूण हत्या कर दी है. वो राजनैतिक जरूरत थी साम्प्रदायिकता, धार्मिक व नस्लीय नफरत और हिंसा पर आधारित भाजपा और उसके दक्षिणपंथी संगठनों की फ़ासीवादी सोच को इस देश के लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नेस्तनाबूद होने से बचाना. भाजपा से हाथ मिला कर नीतीश ने कट्टरपंथी नस्लीय ताकतों से हाथ मिलाया है. ये नीतीश की इस सोच को दर्शता है कि उन्हें कट्टरपंथी राष्ट्रवादी नस्लीय तत्वों की हत्या उअर हिंसा की राजनीती से कोई गुरेज़ नहीं है. अपनी सत्ता की भूख को मिटने के लिए उन्हें मुसलमानों और दलितों के क़त्ल से सनी सरकार से भी हाथ मिलाना पड़े तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. महागठबंधन से कहाँ तो उम्मीद की जा रही थी कि लालू, नीतीश, शरद यादव और सोनिया गाँधी मिलजुल कर झूठ, हिंसा, क़त्ल, जातीय नफरत और दंगों की राजनीति करने वाली पूंजीपतियों की पालतू भाजपा सरकार के सम्मुख को मज़बूत देश व्यापी मोर्चा तैयार किया जा सकता है. नीतीश की पालाबदल-राजनीति से इस संभावना को गहरा धक्का लगा है.