विश्व आर्थिक संकट की आहट
विश्व आर्थिक संकट की आहट

The last Monday of August undoubtedly proved to be a Black Monday for the financial markets.
अगस्त का आखिरी सोमवार बेशक वित्तीय बाजारों के लिए काला सोमवार साबित हुआ। शंघाई शेयर बाजार के कंपोजिट इंडैक्स में आए आठ फीसद से ज्यादा गिरावट के भूकंप से उठी सुनामी ने दुनिया भर में शेयर बाजारों को ध्वस्त कर दिया। भारत में सेंसेक्स ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी गिरावट झेली और 1625 अंक लुढ़क़ गया। कहा जाता है कि इस एक झटके से निवेशकों के 7 लाख करोड़ रुपए डूब गए। उधर रुपए में भी डालर के मुकाबले 82 पैसे की भारी गिरावट दर्ज हुई।
निवेशकों की चिंता से हिली सरकार
झटका इतना जबर्दस्त था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न सिर्फ विशेष बैठक बुलाकर हालात की समीक्षा करनी पड़ी बल्कि निवेशकों को तसल्ली देने के लिए इसका भरोसा भी दिलाना पड़ा कि सरकार मुनाफे बढ़ाने वाले आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए तथा देश में आर्थिक गतिविधियों को ऊपर उठाए रखने के लिए सार्वजनिक खर्च में तेजी लाने के कदम उठाएगी। इसके साथ ही विदेशी संस्थागत निवेशकों यानी एफआइआइ द्वारा उल्लेखनीय पैमाने पर बिकवाली के बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली से लेकर रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन तक, इसका भारोसा दिलाने में जुट गए कि भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत है और निवेशकों को चिंतित होने की जरूरत नहीं है।
जेटली ने खासतौर पर जोर देकर यह दावा किया कि भारत पर, विश्व बाजार की उठा-पटक का ही असर दिखाई दे रहा है और जो भी हो रहा है कि उसके कारण पूरी तरह से बाहरी हैं। संक्षेप में यह कि यह एक बहुत ही अस्थायी विचलन था, जिसकी ज्यादा परवाह करने की जरूरत नहीं थी।
गौरतलब है कि सोमवार के भूकंप के बाद रही सारी डगमगाहट के बावजूद, मंगलवार को दुनिया भर में वित्तीय बाजारों ने पिछले दिन के अपने नुकसान के कम से कम एक अंश की भरपाई कर ली। बांबे स्टॉक एक्सचेंज का सेनसैक्स, 1.1 फीसद ऊपर चढ़ा और डालर के मुकाबले रुपए के मूल्य में भी निश्चित सुधार दर्ज हुआ। यह दूसरी बात है कि हफ्ते भर बाद ही, 1 सितंबर को सेनसैक्स फिर 500 अंक से ज्यादा नीचे बैठ गया।
वैसे विश्व वित्त व्यवस्था के सोमवार के जबर्दस्त झटके से अगले ही दिन कुछ हद तक उबार चुके होने के पीछे भी चीन के ही कदमों की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जा रही थी। कहने की जरूरत नहीं है कि वित्त बाजार में गिरावट के इस चक्र की शुरूआत चीन से हुई थी और इस पृष्ठïभूमि में सिर्र्फ निवेशकर्ताओं द्वारा ही नहीं बल्कि दूसरी सभी सरकारों द्वारा भी चीनी अधिकारियों से हालात संभालने के लिए कदम उठाने की मांग की जा रही थी। चीन के हस्तक्षेप में दो कदम खास थे। एक तो उसने अपनी प्रमुख दरों में 25 बेसिस पॉइंट की कटौती कर दी। दूसरे, बड़े व्यापारिक बैंंकों के लिए जरूरी संचित कोष की दर में 50 बेसिस पॉइंट की कमी कर दी। इस तरह वित्त को कुछ और ढील दे दी गयी। कहा जा रहा था कि इन कदमों से भी महत्वपूर्ण यह था कि इस तरह चीन ने यह दिखा दिया था कि वह स्थिति संभालने के लिए, बाजार के अनुकूल हस्तक्षेप करने के लिए तैयार है!
इस तरह, कुछ उठने के बाद बाकी हफ्तेभर वित्तीय बाजार अपनी सामान्य गति से चल रहे थे। इसलिए, सब कुछ देखते हुए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि हाहाकारी सोमवार को जो हुआ क्या वह सिर्फ वित्तीय बाजार की एक बड़ी किंतु तात्कालिक फिसलन भर थी? या इसमें किसी वास्तविक संकट के संकेत छुपे हुए हैं? क्या इसमें भारत के लिए भी कोई सबक है।
चीन के शेयर बाजारों में भारी झटके से डगमगाई वैश्विक अर्थव्यवस्था (Global economy shaken by heavy shock in China's stock markets)
यह तो खैर सभी जानते हैं कि काले शुक्रवार की लुढ़कन, चीन के शेयर बाजारों में भारी झटके से शुरू हुई थी। जैसा कि शेयर बाजारों का कायदा ही है, विश्व अर्थव्यवस्था में चीन के वजन को देखते हुए, इसने देखते-देखते दुनिया भर के शेयर बाजारों में भगदड़ का रूप ले लिया। यह भी आम तौर पर लोगों को पता ही है कि चीन के शेयर बाजारों में लुढक़न, वास्तव में चीनी मुद्रा युवान का अगस्त के पहले पखवाड़े के अंत में रुक-रुककर अवमूल्यन किए जाने से हुई थी। इसकी शुरूआत 11 अगस्त को युवान के 2 फीसद अवमूल्यन से हुई थी। बहरहाल, चीनी अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढऩे की आम धारणा के ओट में, यह सचाई आम तौर पर लोगों की नजरों से छुपी ही रही है कि चीन के लंबे अर्से बाद, अपनी मुद्रा का सीमित अवमूल्यन करने की नौबत क्यों आयी?
बेशक, पश्चिमी मीडिया वित्तीय संकट के ताजातरीन चक्र का दोष चीन पर ही डालने की कोशिश में, इसे अपनी आर्थिक मुश्किलों से निकलने के लिए चीन के बदहवासी में हाथ-पांव मारने की तरह ही दिखाता रहा है। बहरहाल, ऐसा करते हुए इस सचाई को छुपा लिया जाता है कि पिछले करीब दस साल से चीनी युआन का डालर के मुकाबले और इसलिए, दुनिया की अधिकांश मुद्राओं के मुकाबले मूल्य लगातार बढ़ता रहा था। इसे देखते हुए, चीनी आर्थिक प्रशासन की इस क्रमिक अवमूल्यन की इस सफाई को किसी तरह से बहाना नहीं कहा जा सकता है कि उसने तो सिर्फ युआन का मूल्य बाजार से कहीं ज्यादा निर्धारित होने की दिशा में एडजस्टमेंट किया था।
यह दर्ज करने वाली बात है कि डॉलर के मुकाबले युआन का ट्रेड भारित मूल्य (The trade weighted value of the yuan against the dollar), 2005 से उक्त अवमूल्यन तक पूरे 50 फीसद बढ़ा था। यहां तक कि 2009 में युआन के मूल्य में डालर के मुकाबले उल्लेखनीय बढ़ोतरी होने के बाद से भी, युआन का मूल्य पूरे 20 फीसद बढ़ा था।
सभी जानते हैं कि किसी भी मुद्रा के विनिमय मूल्य का बढ़ना, उसके निर्यातों को उसी अनुपात में महंगा बनाकर, व्यावहारिक मानों में संबंधित अर्थव्यवस्था के निर्यातों का एक हिस्सा दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के ही हवाले कर रहा होता है।
इस लिहाज से चीन के अपनी विनिमय दर को उक्त बढ़ोतरी की हद तक घटाने को अनुचित नहीं बल्कि सामान्य दुरुस्ती ही कहा जाएगा। फिर भी यह सवाल तो अपनी जगह रहता ही है कि जब डालर के मुकाबले युआन के मूल्य का बढ़ना लंबे अर्से से जारी था, चीन को अभी अवमूल्यन का सहारा लेने की जरूरत क्यों पड़ी? या यह भी कह सकते हैं कि क्या वजह थी कि चीन ने पिछले दो दशकों तक युआन के अवमूल्यन से हाथ क्यों खींचे रखा और इस तरह अपने हिस्से के विदेश व्यापार का एक हिस्सा दूसरी अर्थव्यवस्थाओं में जाने दिया?
इसका सीधा संबंध इस तथ्य से है कि अब तक चीन में परिसंपत्तियों के बाजार में बने बुलबुले ने आर्थिक गतिविधियों के स्तर को ऊपर उठाए रखा था। ऐसे में अपने विशाल विदेश बाजार के एक हिस्से की वह आसानी से कुर्बानी दे सकता था। लेकिन, अब जबकि परिसंपत्तियों के बाजार का बुलबुला बैठ चुका है, इसके धक्के से अपनी आर्थिक गतिविधियों के स्तर की रक्षा करने के लिए, उसे अपने संभावित निर्यात बाजार का एक-एक कोना चाहिए।
बहरहाल, जैसा कि काले सोमवार ने जबर्दस्त झटका देकर दिखा दिया है, यह सिर्फ चीन के संकट का मामला नहीं है। यह दूसरी बात है कि कई चतुर सुजानों ने तो इस संकट में भी इसके ख्वाब दिखाने का मौका खोज लिया है कि चीन के मौजूदा संकट का फायदा उठाकर भारत, विश्व अर्थव्यवस्था में उसकी जगह ले सकता है!
मुद्दा सिर्फ चीन के तुलनात्मक आर्थिक वजन का भी नहीं है, जिस तक पहुंचने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को कई गुना बढ़ना होगा। मुद्दा ऐसे ख्वाब देखने वालों के इस संकट से निकलने वाली चुनौतियों को ही नासमझी में या जान-बूझकर अनदेखा करने का है।
असली समस्या यह है कि चीन की इस तरह निर्यात व्यापार का अपना हिस्सा बढ़ाने की कोशिश, अन्य अर्थव्यवस्थाओं द्वारा भी ऐसा ही किए जाने की ओर ही ले जा सकती है। इस तरह, मुद्रा युद्ध का वह खतरा अब और नजदीक आ गया है, जिसकी ओर रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन काफी समय से ध्यान खींचते रहे हैं।
लेकिन, रघुराम राजन भी इसका जिक्र करने से कतराते हैं कि यह खतरा, विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के साथ लगे उस गहरे संकट से निकला है, जिसका संबंध नवउदारवादी दौर में असमानताओं के पहले से भी बढऩे और इसके चलते विश्व मांग में गतिरोध बने रहने या वास्तव में मंदी ही आने से है। अगर कुल रोटी छोटी होगी तो उसके लिए छीन-झपट बढ़ेगी ही। आवारा पूंजी के दौर में यह छीन-झपट कैसे चौतरफा संकट भडक़ा सकती है, इसका नमूना अगस्त के काले सोमवार को मिल गया है। लेकिन, दुर्भाग्य से हमारी सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था से और कसकर बांधने के जरिए, इस संकट के लिए दरवाजे और खोलने में ही लगी है। विदेशी पूंजी को लुभाने में ही लगे वित्त मंत्री को तो रघुराम राजन का बार-बार इसकी याद दिलाना तक नागवार गुजरता रहा है कि विकास के लिए घरेलू मांग को मजबूत करने पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है। याद रहे कि चीन ठीक यही करवट ले रहा है।
0 राजेंद्र शर्मा


