विष्णु प्रभाकर का साहित्य का मूल स्रोत

सिर पर गांधी टोपी और शरीर पर ख़द्दर का कुर्ता-पाजामा। एक गांधीवादी लेखक। जो सादगी की जीती-जागती मिसाल थे। विष्णु प्रभाकर का संपूर्ण साहित्य सामाजिक सरोकारों और मानवीय मूल्यों की रचनात्मक अभिव्यक्ति है। विष्णु प्रभाकर के साहित्य का मूल स्रोत राष्ट्रप्रेम और मानवतावादी दृष्टिकोण है। विष्णु प्रभाकर का साहित्य लोगों में सामाजिक चेतना जगाने का काम करता है। ख़ास तौर से महिलाओं के लिए उन्होंने खूब साहित्य रचा। उनकी समस्याओं एवं परेशानियों को समझा और उन्हें अपनी आवाज़ दी। विष्णु प्रभाकर का अपनी कहानी कला के बारे में कहना था, "मैं न आदर्शों से बंधा हूं और न सिद्धांतों से। बस भोगे हुए यथार्थ की पृष्ठभूमि में उस उदात्त की ख़ोज में चलता चला आ रहा हूं। मेरे पास वह कला भले ही न हो, जो कहानी को कहानी बनाती है, पर झूठ का सहारा मैंने कभी नहीं लिया।"

विष्णु प्रभाकर की जीवनी (Biography of Vishnu Prabhakar in Hindi)

21 जून, 1912 को उत्तर प्रदेश के मुजफ़़्फ़रनगर जिले स्थित मीरापुर गांव में जन्मे विष्णु प्रभाकर का वास्तविक नाम (Real name of Vishnu Prabhakar) विष्णु गुप्त था। उन्हें बचपन से ही लेखन में रुचि थी। 'विष्णु', 'विष्णुगुप्त', 'विष्णुदत्त' और 'प्रेम-बंधु' आदि छद्म नामों से वह कहानियां लिखते थे। साल 1934 में उन्होंने हिंदी साहित्य की 'प्रभाकर' की परीक्षा पास की और इसके बाद वह अपने नाम के साथ प्रभाकर लगाने लगे। साल 1931 में महज़ उन्नीस साल की उम्र में विष्णु प्रभाकर की पहली कहानी 'दीवाली के दिन', लाहौर के 'हिंदी मिलाप' में प्रकाशित हो गई थी। लेकिन उनका नियमित लेखन 1934 से शुरू हुआ और इसके बाद, फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

महान कथाकार प्रेमचंद ने अपने अख़बार और साहित्यिक पत्रिका 'हंस' में उनकी कहानियां प्रकाशित कीं। यही नहीं उस दौर की हिंदी साहित्य की सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं 'अलंकार', 'विशाल भारत', 'सरस्वती', 'माया', 'सुधा', 'माधुरी', 'कहानी', 'धर्मयुग' आदि में विष्णु प्रभाकर की कहानियां छपीं और उन पर खूब चर्चा हुई।

मूल रूप से कहानीकार थे विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर ने गद्य की सभी विधाओं में लिखा, लेकिन वह मूल रूप से कहानीकार ही थे। उन्होंने तक़रीबन तीन सौ कहानियां लिखीं। 'धरती अब भी घूम रही है', 'मुरब्बी', 'जज का फ़ैसला', 'अधूरी कहानी', 'मेरा वतन', 'पुल टूटने से पहले', 'अभाव', 'ठेका', 'हिमालय की कहानी' उनकी कालजयी कहानियां हैं। 'धरती अब भी घूम रही है' समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता को बड़े ही ख़ूबसूरती से उकेरती है। बच्चों के पात्रों के ज़रिए उन्होंने व्यवस्था पर कड़े प्रहार किए हैं। इस कहानी ने विष्णु प्रभाकर को काफ़ी लोकप्रियता दिलाई। कहानी का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। विष्णु प्रभाकर ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर कई प्रभावशाली कहानियां लिखी हैं। भारत का विभाजन उन्होंने अपनी आंखों से देखा था। साम्प्रदायिक दंगों से दो सम्प्रदायों के बीच जो अविश्वास और दुराग्रह पैदा हुए, इन समस्याओं की शिनाख़्त और इनका निराकरण वे अपनी कहानियों के माध्यम से करते हैं। 'अधूरी कहानी', 'मेरा बेटा', 'तांगेवाला', 'मेरा वतन' आदि कहानियों में उन्होंने बंटवारे के बाद के समाज और उसकी मनोविज्ञानिक स्थितियों का मार्मिक चित्रण किया है। यह कहानियां इतनी भावनात्मक हैं कि नफ़रत भरे दिलों में भी बदलाव ला दें।

नारी ज़िंदगी की विवशता एवं उसके अंतर्द्वंद्व पर विष्णु प्रभाकर ने कई कहानियां लिखीं। 'सच मैं सुंदर हूं', 'एक और दुराचारिणी', 'एक मौत समंदर किनारे', 'हिमालय की बेटी', 'शरीर से परे', 'आश्रिता', 'क्रांति', 'एक और कुंती', 'ज़िंदगी एक रिहर्सल' ऐसी ही कुछ कहानियां हैं। इन कहानियों की नायिका जीवन की परेशानियों के लिए अपने भाग्य को ज़िम्मेदार मानकर, ज़िंदगी से नहीं हार जातीं, बल्कि संघर्ष और एक नई सोच के साथ उन विकराल परिस्थितियों से मुक़ाबला करती हैं। उन पर विजय प्राप्त करती हैं। महिलाओं की स्वतंत्रता के भी वह पक्षधर थे। नारी नियति की बहुआयामी त्रासदी, विष्णु प्रभाकर के उपन्यासों का केन्द्रीय कथ्य है। महिला समस्याओं के प्रति उनकी संवदेनशीलता और सहानुभूति इन उपन्यासों में स्पष्ट दिखाई देती है। उपन्यास 'अर्धनारीश्वर' में वे पाठकों को स्त्री-उत्पीड़न के विविध पक्षों से साक्षात्कार करवाते हैं। 'अर्धनारीश्वर' के लेखन में विष्णु प्रभाकर ने संवाद, विवेचन, पत्र, डायरी आदि विविध शैलियों का कलात्मक इस्तेमाल किया है। 'तट के बंधन' में उपन्यास में उन्होंने देश विभाजन और साम्प्रदायिक हिंसा की विभीषिका से पीड़ित स्त्रियों की व्यथा कथा को बेहद संवेदनशीलता से बुना है। 'संकल्प' और 'कोई तो' उपन्यास भी महिलाओं की समस्याओं को प्रमुखता से उठाते हैं।

विष्णु प्रभाकर ने साहित्य की तक़रीबन सभी विधाओं कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, एकांकी, जीवनी, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, बाल कहानियां, बाल नाटक, अनुवाद, विचार-निबंध आदि में जमकर लिखा। उनकी किताबों की संख्या सौ से ऊपर है। देश-विदेश की कई भाषाओं में इन किताबों का अनुवाद हुआ है। विष्णु प्रभाकर ने अपनी आत्मकथा भी लिखी, जो तीन खंडों में है। ज़िंदगी की शुरुआत में कुछ साल सरकारी नौकरी करने के बाद, वह हमेशा मसीजीवी ही रहे। पूर्णकालिक लेखक के तौर पर ही उन्होंने काम किया। सिफ़र् लेखन भर से उन्होंने अपना और अपने परिवार का गुज़ारा किया।

विष्णु प्रभाकर ने आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र पर नाट्य निर्देशक के रूप में भी कार्य किया। रेडियो में काम करने के दौरान उन्होंने कई रूपक, एकांकी और नाटक लिखे। जिनका रेडियो से तो प्रसारण हुआ ही, बाद में किताब के रूप में प्रकाशित भी हुए। स्कूल-कॉलेजों की पाठ्य-पुस्तकों में उन्हें शामिल किया गया। 'नया कश्मीर' और 'लाल किला' विष्णु प्रभाकर के न भुलाए जाने वाले रूपक और 'स्वराज की नींव', 'युगे-युगे क्रांति', 'जज का फ़ैसला', 'श्वेत कमल', 'युग-संधि', 'प्रकाश और परछाई', 'नव प्रभात', 'कुहासा और किरण' आदि चर्चित एकांकी, नाटक हैं। इन रूपक और एकांकियों में उन्होंने अनेक विषयों जनशिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, देश के स्वतंत्रता आंदोलन और स्त्रियों की समस्याओं को प्रभावी ढंग से उभारा। उनकी एकांकी सामाजिक जीवन से जुड़ी हुई हैं और श्रोताओ-पाठकों में सामाजिक, राजनीतिक चेतना जगाने का काम करती हैं। उन्हें शिक्षित करती हैं।

'आवारा मसीहा' ने लोकप्रियता दिलाई

विष्णु प्रभाकर का एक महत्त्वपूर्ण कार्य बांग्ला भाषा के चर्चित रचनाकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी 'आवारा मसीहा' लिखना है। यह उपन्यासपरक जीवनी है, जिसे उन्होंने चौदह साल के गहन शोध के बाद लिखा था। यह जीवनी इतिहास और उपन्यास का मिश्रण है। शरतचंद्र के जीवन और लेखन से जुड़े तथ्यों को उन्होंने रोचक भाषा और शैली में इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि यह जीवनी, उपन्यास होने का आभास और रस देती है। 'आवारा मसीहा' ने विष्णु प्रभाकर को खूब लोकप्रियता दिलाई। हिंदी में इस स्तर की प्रमाणिक जीवनियां बहुत कम लिखी गई हैं। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के अलावा विष्णु प्रभाकर ने और भी शिखर व्यक्तित्वों पर छोटी-छोटी जीवनियां लिखीं। इनमें प्रमुख हैं-स्वामी दयानंद सरस्वती, सरदार बल्लभभाई पटेल, गांधीवादी काका कालेकर, शहीद भगत सिंह, अहिल्याबाई होल्कर, बंकिमचंद्र चटर्जी और कमाल पाशा।

बाल साहित्य भी लिखा विष्णु प्रभाकर ने

विष्णु प्रभाकर ने बच्चों के लिए काफ़ी बाल साहित्य लिखा। वह बाल साहित्य को बहुत गंभीरता से लेते थे और इसे महत्वपूर्ण मानते थे। क्योंकि बच्चों के बालमन पर इसका गहरा असर होता है। बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए इस तरह के साहित्य की बड़ी भूमिका होती है। विष्णु प्रभाकर ने इस ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया। बच्चों के मनोविज्ञान को समझते हुए, उन्होंने उनके लिए ढेरों मनोरंजक कहानियां और नाटक लिखे। जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ वह उनको शिक्षा भी देते थे। बच्चों की पत्रिका 'पराग' में उनके बाल उपन्यास 'गजनंदन लाल' का धारावाहिक प्रकाशन हुआ। जिसे बाल पाठकों के बीच ख़ासी लोकप्रियता मिली। 'कहीं कुछ नहीं बदला', 'सबसे सुंदर लड़की', 'धन्य है आपकी परख', 'बाबू जी बरात में', 'अब्दुल्ला' आदि उनकी प्रमुख बाल कहानियां हैं। वहीं 'सुनो कहानी' के दो खंडों में उनकी कई मज़ेदार कहानियां संकलित हैं।

विष्णु प्रभाकर को मिले सम्मान

हिन्दी साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए विष्णु प्रभाकर कई पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित किए गए। उपन्यास 'अर्द्धनारीश्वर' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, तो भारत सरकार ने पद्मभूषण राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया। 'पाब्लो नेरूदा सम्मान', 'राष्ट्रीय एकता पुरस्कार', हिन्दी अकादेमी का 'शलाका सम्मान', भारतीय ज्ञानपीठ का 'मूर्ति देवी पुरस्कार' और 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' उन्हें मिले कुछ प्रमुख सम्मान हैं। विष्णु प्रभाकर को एक लंबी ज़िंदगानी मिली। उन्होंने समय के एक लंबे कालखंड को देखा, उसे आत्मसात किया और उसे प्रभावी ढंग से अपने लेखन में उतारा। अपने सात दशक के लेखन में कई अविस्मरणीय कहानियां और पात्र दिए। जिन्हें भूलना नामुमकिन है। 97 साल जीने के बाद, 11 अप्रैल 2009 को उन्होंने इस दुनिया से अपनी आख़िरी विदाई ली।

ज़ाहिद ख़ान

Vishnu Prabhakar's literature works to awaken social consciousness