राष्ट्र या धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद कुछ बिगाड़ नहीं सकता
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है

हमने लड़ाई अभी शुरु भी नहीं की है, और हार मानकर हाथ पांव छोड़ दिये। डूब रहे हैं तो तैरने की कोशिश भी तो करनी चाहिए।
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है। फासिज्म के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जबतक न हम उसे मुकम्मल शिकस्त नहीं दे पाते।
वीरेनदा को लाल नील सलाम।
पलाश विश्वास
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है। फासिज्म के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जबतक न हम उसे मुकम्मल शिकस्त नहीं दे पाते।
वीरेनदा को लाल नील सलाम।
लिख तो दिया हमने, क्योंकि लिखना उतना मुश्किल भी नहीं है। लेकिन अपनों को विदा करने के बाद जिंदगी के ढर्रे पर वापसी बेहद मुश्किल होती है।
वीरेनदा के जाने के बाद मन मिजाज काबू में नहीं हैं कतई।
कल रात अपने डा. मांधाता सिंह ने कहा कि भड़ास खुल नहीं रहा। तो पहले तो सोचा कि जैसे मेरे ब्लाग डिलीट हो रहे हैं, वैसा ही कुछ हो रहा होगा या फिर दलित वायस की तरह ससुरा साइट ही हैक हो गया होगा।
डा साहब ने कहा कि यशवंत को फोन लगाकर देखिये।
लगा दिया फोन। उधर से उसकी आवाज लगाते ही, मैंने दन से गोला दाग दिया, यह क्या कि वीरेनदा के जाते ही मोर्चा छोड़कर भाग खड़े हुए?
उसने कहा कि मन बिल्कुल ठीक नहीं है। नई दिल्ली में वीरेनदा इतने अरसे से कैंसर से जूझ रहे थे और बरेली जाकर उनने इस तरह दम तोड़ा। हम फिलहाल कुछ भी लिख पढ़ नहीं पा रहे हैं और न भड़ास अपडेट करने की हालत में हैं।
कल सुबह ही वीरेनदा के ही नंबर पर रिंग किया था। प्रशांत और प्रफुल्ल के नंबर हमारे पास नहीं हैं।
सविता बोली कि वह फोन तो चालू होगा। बच्चों से और भाभी से बात तो कर लो।
फोन उठाया बड़ी बहू, प्रशांत की पत्नी रेश्मा ने। वह मुझे जानती नहीं है। बोली कि मां तो बाथरूम में हैं।
मैं भाभी जी के निकलने के इंतजार में अपनी बहू से बातें करता रहा तो उसने बहुत दुःख के साथ कहा कि वे बरेली आना चाहते थे और एक दिन भी बीता नहीं, अस्पताल दाखिल हो गये। बहुत मलाल है कि हम उन्हें बरेली ले आये।
उनके अस्पताल में दाखिल होते ही मैंने दिनेश जुयाल से पूछा भी था कि वीरेनदा को दिल्ली वगैरह किसी और अस्पताल में शिफ्ट करने की कोई गुंजाइश है या नहीं।
दिनेश ने तब कहा था कि हालत इतनी कृटिकल है कि उन्हें शिफ्ट कराने का रिस्क ले नहीं सकते। वैसे इस अस्पताल में सारी व्यवस्था है और आपरेशन के बाद खून बहना रुक गया है और बीपी भी ट्रेस हो ही है। वे सुधर भी रहे हैं।
उनके अवसान से एक दिन पहले जुयाल ने कहा कि एक दो दिन में उन्हें आईसीयू से निकालकर बेड में दे देंगे। इलाज में व्यवधान न हो, इसलिए हम घर वालों से बात नहीं कर रहे थे।
अगले ही दिन वीरेनदा चले गये।
मेरे ताउजी का आपरेशन दिल्ली में हुआ। भाई अरुण वहीं हैं। हम जब मिलने गये तो ताउजी ने कहा कि अब मुझे घर ले चल। मैं बसंतीपुर में ही मरना चाहता हूं।
मैंने कहा कि मैं घर जा रहा हूं और वहां जाकर सारा बंदोबस्त करके आपको वहीं लिवा ले जायेंगे।
ताउजी ने मेरे घर पहुंचने से पहले दम तोड़ दिया।
मैंने यशवंत और रेश्मा, दोनों से यही कहा कि वीरनदा की आखिरी इच्छा बरेली आने की थी। वह पूरी हो गयी। उनकी आखिरी इच्छा पूरी न हो पाती तो अफसोस होता। मैंने अपने पिता को कैंसर के दर्द में तड़पते हुए तिल तिल मरते देखा है। उनका या वीरेनदा का दर्द हम बांट नहीं सकते थे। वीरेनदा अगर बरेली लौटे बिना दिल्ली में दम तोड़ देते तो यह बहुत अफसोसनाक होता। वैसा हुआ नहीं है।
वीरेनदा तो बहुत बहादुरी के साथ कैंसर को हरा चुके थे क्योंकि दरअसल वे सच्चे कवि थे और कविता को कोई हरा ही नहीं सकता। कैंसर भी नहीं।
हम शुरु से वीरेनदा से यही कहते रहे हैं कि आपकी कविता संजीवनी बूटी है। आपकी दवा भी वही है और आपके हथियार भी वहीं।
वीरेनदा ने दिखा दिया कि कैंसर को हराकर कविता कैसे समय की आवाज बनकर मजलूमों के हकहकूक के हक में खड़ी होती है।
इससे पहले अपने दिलीप मंडल की पत्नी हमारी अनुराधा ने भी दिखा दिया कि कैंसर को कैसे हराकर सक्रिय जीवन जिया जा सकता है।

जनपद के कवि वीरेनदा, हमारे वीरेन दा कैंसर को हराकर चले गये!लड़ाई जारी है इंसानियत के हक में लेकिन, हम लड़ेंगे साथी!
आज लिखा जायेगा नहीं कुछ भी क्योंकि गिर्दा की विदाई के बाद फिर दिल लहूलुहान है। दिल में जो चल रहा है, लिखा ही नहीं जा सकता। न कवि की मौत होती है और न कविता की क्योंकि कविता और कवि हमारे वजूद के हिस्से होते हैं। वजूद टूटता रहता है। वजूद को समेटकर फिर मोर्चे पर तनकर खड़ा हो जाना है। लड़ाई जारी है।
कैंसर से लड़ते हुए सोलह मई के बाद की कविता के मुख्य स्वर वीरेनदा रहे हैं तो सोलह मई के खिलाफ , इस मुकम्मल फासिज्म की लड़ाई हमारी है।
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है।
आज प्रवचन दे नहीं पाया। वीरेनदा अपराजेय हैं, जैसा कि मंगलेशदा ने लिखा है। लेकिन हम उनके भाई बंधु उतने भी अपराजेय नहीं हैं।
निजी गम, निजी तकलीफों से निजात कभी मिलती नहीं है। उनमें उलझते ही जाना है। गौतम बुद्ध सिद्धार्थ से गौतम बने तो इसीलिए कि दुःख रोग शोक ताप का नाम ही जीवन है।
यह उनकी वैज्ञानिक सोच थी कि उन्होंने इस पर खास गौर किया कि दुःख रोग शोक ताप हैं तो उनकी वजह भी होगी।
उनने फिर सोच लिया कि दुःख रोग शोक ताप का निवारण भी होना चाहिए। इसके जवाब में उनने अपने मोक्ष, अपनी मुक्ति का रास्ता नहीं निकाला। सत्य, अहिंसा, प्रेम और समानता का संकल्प लिया।
हम गौतम बुद्ध को भगवान मानकर उनकी पूजा करते हैं उनकी मूर्ति बनाकर, लेकिन उनके अधूरे संकल्पों को पूरा करने की सोचते भी नहीं हैं। हम भारत को बौद्धमय बनाना चाहते हैं और न पंचशील से हमारा कोई नाता है और न हम अपने को बौद्धमय बना पाये।
लोग इस देश में पगला गये हैं क्योंकि धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का सियासती मजहबी और हुकूमत त्रिशुल हर किसी के दिलोदिमाग में गढ़ा हुआ है और कत्ल हो गया है मुहब्बत का। फिजां ऩफरत की बाबुंलंद है तो चारों तरफ कत्लेआम है, आगजनी हैं।
जाहिर सी बात है कि हम न गौतम बुद्ध हैं और न बाबासाहेब अंबेडकर। बाबासाहेब ने भी निजी सदमों और तकलीफों को कभी तरजीह नहीं दी।
सदमा बाबासाहेब डा. भीमराव अंबेडकर को मौलिक जो लगा जाति व्यवस्था, मनुस्मृति राजकाज, असमता और अन्याय की व्यवस्था से, तजिंदगी वे उसके खिलाफ गौतम बुद्ध की तरह समता, न्याय और स्वतंत्रता का संकल्प लेकर जाति उन्मूलन का एजंडा लेकर जो भी वे कर सकते थे, अपनी तमाम सीमाबद्धताओं के बावजूद वही करने की उनने हरसंभव कोशिश की।
हमने लड़ाई अभी शुरू भी नहीं की है, और हार मानकर हाथ पांव छोड़ दिये। डूब रहे हैं तो तैरने की कोशिश भी तो करनी चाहिए।
यक्ष प्रश्न जितने थे, युधिष्ठिर को संबोधित, वे धर्म की व्याख्या ही है।
संत रैदास ने तो टूक शब्दों में कह दिया कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। धर्म के लिए, आस्था के लिए न किसी धर्मस्थल की जरुरत है। न पुरोहित ईश्वर के सेल्स एजंट हैं किसी भी मजहब में।
हर धर्म के रस्मोरिवाज अलग अलग हैं।
हर धर्म की उपासना पद्धति अलग अलग हैं।
धर्मस्थल अलग अलग हैं।
भूगोल और इतिहास अलग अलग हैं।
धर्म चाहे कुछ हो, पहचान चाहे कुछ हो, मनुष्य की बुनियादी जरुरतें एक सी हैं। रोजनामचा एक सा है। हमारी धड़कनें, सांसें एक सी हैं।
रोजगार के तौर तरीके भी अलग अलग नहीं हैं।
यह दुनिया अगर कोई ग्लोबल विलेज है तो वह गांव साझे चूल्हे का है। जिसमें रिहाइश मिली जुली है। सूरज की रोशनी एक है। अंधियारा एक है। खुशी और गम के रंग भी एक से हैं।
दर्द तड़प और तकलीफें भी एक सी हैं।
रगों में दौड़ता खून भी एक सा है। लाल चटख और अनंत अंतरिक्ष नीला यह फलक है। उड़ान के लिए आसमां है तो तैरने के लिए समुंदर हैं। स्वर्ग की सीढ़ी हिमालय है।
हिंदुत्व के झंडेवरदार कर्म के सिद्धांत को मनुस्मृति शासन, जातिव्यवस्था, जनमतजात विशुद्धता अशुद्धता और वर्ण, पुनर्जन्म, जन्म से मृत्यु तक के संस्कार, धर्मस्थल और देवमंडल के तमाम देवदेवियों के आर पार मनुष्यता के सरोकार और सभ्यता के सरोकार, कायनात की बरकतों और नियामतों के नजरिये से देख पाते तो हमारा राष्ट्रवाद हिंदुत्व का नहीं होता।
हो सके तो रामचरितमानस दोबारा बांच लें।
अपने-अपने धर्मग्रंथ दोबारा बांच लें।
संतों फकीरों की वाणी फिर जांच लें।
गोस्वामी तुलसीदास, दादु, संत तुकाराम, चैतन्य महप्रभु, कबीर, सुर, तुलसी, रसखान, मीराबाई, ललन फकीर किसी दैवी सत्ता या किसी धर्मराष्ट्र की जयगाथा कहीं नहीं सुना रहे हैं। बल्कि राष्ट्र की सत्ता के खिलाफ देव देवियों का मानवीकरण उनका सौंदर्यबोध है।
आप संस्कृत को सबकी भाषा बताते हैं। संस्कृत का मतलब तंत्र मंत्र यंत्र तक सीमाबद्ध नहीं है। संस्कृत साहित्य की विरासत है और आप यह भी बताइये कि किस संस्कृत भाषा या साहित्य में धर्मराष्ट्र या फासिज्म का जनगणमन या वंदेमातरम हैं?
बहुत चर्चा की जरूरत भी उतनी नहीं है।
संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम में सत्ता के खिलाफ लोकतंत्र के उत्सव को समझ लीजिये।
खजुराहो से लेकर कोणार्क के सूर्य मंदिर के भाष्कर्य में खालिस मनुष्यता के उकेरे हुए पाषाण चित्रों को गौर से देख लीजिये।
महाकवि कालिदास का कोई भी नाटक पढ़ लीजिये।
अभिज्ञान शाकिंतलम् में दुष्यंत के आखेट के विरुद्ध तपोवन का वह सौंदर्यबोध समझ लीजिये और विदा हो रही शकुंतला की विदाई के मुहूर्त में मुखर उस प्रकृति के विछोह को याद कर लीजिये और सत्ता के दुश्चक्र में नारी की दुर्दशा कहीं भी, किसी भी महाकाव्य में देख लीजिये अमोघ निर्मम पितृसत्ता के पोर पोर में।
मेघदूत फिर निर्वासित यक्ष का विरह विलाप है, जो विशुद्ध मनुष्यता है राष्ट्र और तंत्र की शिकार। कुमार संभव भी पितृसत्ताविरुद्धे।
फिर संस्कृत काव्यधारा के अंतिम कवि जयदेव के श्लोक में बहते हुए लोक पर गौर कीजिये।
छंद और अलंकार तक में देशज माटी की गंध महसूस कर लीजिये और दैवी सत्ता को मनुष्यता में देख लीजिये जो राष्ट्र और राष्ट्रवाद के उन्माद के विरुद्ध अपराजेय मनुष्यता का जयगान है।
उन तमाम कवियों और उनकी कविताओं का फासिज्म के इस दौर में राष्ट्र या धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद कुछ बिगाड़ नहीं सकता जैसे कवि वाल्तेयर को मृत्युदंड देने सुनाने वाली राजसत्ता और दार्शनिक सुकरात को जहर की प्याली थमाने वाली सत्ता या अपने भारत मे ही बावरी मीरा को मौत की नींद सुलाने वाली पितृसत्ता मनुष्यता के इतिहास में कहीं दर्ज नहीं हैं, लेकिन वाल्तेयर आज भी जीवित हैं और सुकरात को पढें बिना कोई भी माध्यम या विधा की गहराई तक पैठना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं। मीरा के भजन भी हैं।
उन्हें मौत के घाट उतारने वाला राष्ट्र और सत्ता कहीं नहीं है।
वीरेनदा चले गये तो क्या, वीरेनदा की लड़ाई जारी है। फासिज्म के खिलाफ हमारी लड़ाई तब तक जारी रहेगी जबतक न हम उसे मुकम्मल शिकस्त नहीं दे पाते।
वीरेनदा को लाल नील सलाम।
पलाश विश्वास