श्रीराम तिवारी
भारतीय मुद्रा का निरन्तर अवमूल्यन हो रहा है, आयात-निर्यात का असन्तुलन भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट किये जा रहा है, महँगाई, बेकारी और भ्रष्टाचार अपने चरम पर हैं और ये सभी विषय अर्थशास्त्र से जुड़े हैं और हमारे देश के प्रधानमन्त्री महान अर्थशास्त्री हैं। हम चीन, जापान, अमेरिका की कोई भी अच्छाई तो ग्रहण भले न कर पाये हों किन्तु इन देशों के कूड़े-कबाड़े को गले से लटकाये हुये गा रहे हैं ...हो रहा भारत निर्माण .....!

इस अर्थशास्त्र को कोई अमेरिका का बताता है कोई मनमोहन सिंह का बताता है और कोई कहता कि स्व. नरसिंम्हाराव का है। अटलजी, शौरी जी और यशवंत सिन्हा जी भी इसे मुफीद मानते थे और इसी से उनका 'शाइनिंग इण्डिया' और 'फील गुड' फ़ेल हो चुका है। अब नरेन्द्र मोदी बताये देश को कि वे कौन सा अर्थशास्त्र पढ़े हैं और कौन सा लागू करेंगे। रही बात गुजरात की तो वो तो सारे देश को मालूम है कि कैसे कितना और कब उसका विकास हुआ ? कौन सा अर्थशास्त्र वहाँ विगत सौ साल से लागू है। लेकिन जिस तरह शिमला-अबूझमाड़ नहीं हो सकता, नैनीताल जैसलमेर नहीं हो सकता या डल झील हिन्द-महासागर नहीं हो सकती, जापान भारत नहीं हो सकता, उसी तरह गुजरात-बिहार नहीं हो सकता और मोदी नितीश नहीं हो सकते ...! लालू भी नहीं हो सकते ...! अटलजी होने का तो सवाल ही नहीं उठता...! मनमोहन सिंह जरूर हो सकते हैं क्योंकि देश-विदेश का कॉरपोरेट जगत जिस तरह पहले मनमोहनसिंह का मुरीद था उसी तरह इन दिनों देश - विदेश का पूँजीपति वर्ग और कॉरपोरेट जगत नरेन्द्र मोदी का मुरीद है और जब ये सरमायादारी उनके साथ है तो आम जनता का नहीं इन पूँजीपतियों के अर्थशास्त्र पर ही चलना होगा मोदी को। यदि वे प्रधानमन्त्री पद पाकर बौराए नहीं तो कम से कम पूँजीपतियों का भला तो कर ही सकेंगे। आम आदमी को कोई उम्मीद नहीं रखना चाहिये नरेन्द्र मोदी और उनके अर्थशात्र से। ये बात देश की जनता के सामने क्यों नहीं रखी जा रही ? सूचना एवं संचार माध्यमों की महती कृपा से उपलब्ध जानकारियों और निरन्तर गतिशील फिर भी एक 'ठहरे' हुये राष्ट्र की सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन्तता में आ रहे गतिरोध के परिणाम स्वरूप मुझे भी अपने देश के 'अन्ध-राष्ट्रवादियों' की तरह कभी-कभी लगता है कि पड़ोसी देशों-चीन-पाकिस्तान इत्यादि से मेरे मुल्क को खतरा है, कभी कभी वामपंथियों की वैज्ञानिक समझ से इत्तेफाक़ रखते हुये लगता है कि एलपीजी < Libralization Privatization - Globelization > और प्रणेता पूँजीवाद से मेरे इस 'महानतम-प्रजातान्त्रिक-राष्ट्र' को खतरा है, कभी विपक्षी नेताओं की भाँति लगता है कि जो सत्तासीन लोग हैं उनसे ही इस मुल्क को खतरा है, कभी सत्तापक्ष की सोच सही लगती है कि 'विपक्ष' से इस मुल्क को खतरा है, कभी तीसरे मोर्चे की तरह लगता है कि काँग्रेस और भाजपा दोनों ही बड़ी पार्टियों से ही देश को खतरा है, कभी-कभी अराजकतावादियों और नक्सलवादियों की इस अवधारणा पर यकीन करने को दिल करता है कि ये जो वर्तमान 'व्यवस्था' है अर्थात् तथाकथित "बनाना-गणतन्त्र" इस देश में मौजूद है उसी से इस 'मुल्क' को सबसे बड़ा खतरा है।

कभी-कभी अमेरिका के इस निष्कर्ष को मान्यता देने को जी चाहता है कि इस देश के सनातन 'भुखमरे' अब ज्यादा खाने-पीने लगे हैं सो इस खाऊ 'अवाम' से देश को खतरा है, कभी-कभी बाबाओं- स्वामियों और साम्प्रदायिक उन्मादियों पर यकीन करने को जी चाहता है कि-भगवान् इस मुल्क से नाराज है सो भगवान् से इस मुल्क को खतरा है क्योंकि 'भगवान्' के इस मुल्क में जो प्रतिनिधि है उनके 'विशेषाधिकार' पर हमले हो रहे हैं सो ईश्वर-अल्लाह-ईसु <कहने को तो सब एक हैं> इत्यादि सभी इस देश के अवाम से नाराज हैं और इसीलिये इस देश को 'इन धर्म सम्प्रदायों; और उनके अवतारों से ख़तरा है। कभी-कभी मन में सवाल उठता है कि जो माध्यम या सूचना तन्त्र हमें ये ज्ञान दनादन दे रहे हैं हैं कहीं उन्हीं से तो इस मुल्क को खतरा नहीं है ?

एक बहुत छोटी सी घटना इन दिनों देश के विमर्श के केन्द्र में है -क्रिकेट की आईपीएल श्रृँखला में एक-दो खिलाड़ियों की बचकानी हरकत पर सारे देश में मानों ख़बरों की सुनामी आ गयी है। इन खिलाड़ियों ने कोई सट्टे-वट्टे वालों से अवैध रूप से कुछ रूपये लेकर देश को और क्रिकेट को तथाकथित रूप से बर्बाद कर दिया है। कम-से-कम दिल्ली पुलिस कमिश्नर का तो यही ख्याल है, इन कमिश्नर महोदय ने अपने कार्यकाल में दिल्ली में 'गैंग रेप' के कीर्तिमान बनवा डाले हैं, इन को जब जनता ने ललकारा और नारा दिया कि "त्यागपत्र दो या महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करो" तो इन महानुभाव ने बड़ी निर्लज्जता से जनता की पुकार को हवा में उड़ा दिया। पुलिस के आला अफसर हैं तो जनता की नब्ज और देश के भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का कब्ज बखूबी जानते हैं इसीलिये ज्यों ही आईपीएल के सट्टे में खिलाड़ियों की लिप्तता का 'शोशा' हाथ लगा तो देश के सामने उद्धारक के रूप में पेश हो कर जनता के आक्रोश को पुलिस और सरकार से हटाकर क्रिकेटर्स और आईपीएल के खिलाफ कर दिया। मीडिया ने भी उनके बयान के आधार पर सारे ज्वलन्त प्रश्नों पर चलने वाले परम्परागत विमर्शों से पल्ला झाड़ा और अधिकाँस खबरची 'हेंचू-हेंचू' करने लगे। कतिपय चैनलों के उद्गार तो ऐसे थे मानो 'हा हा हा दुर्दैव भारत दुर्दशा देखि न जाये। इस क्रिकेटी अरण्य रोदन से उनकी टीआरपी में कितना इजाफा हुआ और व्यवसाय गत प्रतिस्पर्धा के लिये कितनी प्राण वायु प्राप्त हुयी यह अभी जाहिर होने के लिये प्रतीक्षित है। पाकिस्तान में हमारे खिलाफ क्या चल रहा है? ,चीन हमें कहाँ-कहाँ पछाड़ चुका है? हम सूखे के लिये क्या कर रहे हैं ? मुद्रा स्फीति, महँगाई, बेकारी, हिंसा, गैंग-रेप को रोकने के लिये क्या उपाय किये जा रहे हैं ? इन तमाम सवालों पर मीडिया कवरेज और अवाम की वैचारिक चेतना नितान्त नकारात्मक और "सुई पटक सन्नाटे जैसी" क्यों हो गयी है, सरकारी अफसरों और मन्त्रियों द्वारा की गयी लूट पर बंदिश के लिये अवाम को क्या कदम उठाने चाहिये ? इस विमर्श को एक खेल विशेष की किसी नगण्य घटना के बहाने जान बूझकर हाशिये पर तो नहीं धकेला जा सकता ! मीडिया को और जनता को राष्ट्रीय सुरक्षा के सरोकारों से सम्बन्धित बैठक में पृथक-पृथक नेताओं की भूमिका और उनके राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की पड़ताल करनी चाहिये थी किन्तु इस विमर्श से परे किसी एक नेता को विशेष हाईलाईट करना क्या बे मौसम की टर्र-टर्र नहीं है ?

कभी-कभी तो लगता है कि प्रकारान्तर से उपरोक्त सभी कारकों से इस देश को खतरा है क्योंकि इन सभी कारकों ने एक-दूसरे पर दोषारोपण करने के अलावा 'राष्ट्र' की सुरक्षा या आम जनता की दुश्वारियों के निवारण हेतु आज तक कोई रणनीति नहीं बनायी और न ही इनमें से किसी ने इस बावत अपने हिस्से की आहुति देने का प्रमाण दिया। हम भारत के जन-गण महाछिद्रान्वेशी हैं, सिर्फ 'अपनों' के अवगुणों पर हमारी नज़र है हमें अपने ही स्वजनों-सह्यात्रोयों और स्व-राष्ट्रबँधुओं का हित या अच्छा तो मानो सुहाता ही नहीं, कहीं किसी ने ज़रा सा सफलता हासिल की या कोई तुक का काम किया की हम लठ्ठ लेकर उसके पीछे पड़ जायेंगे, हम अपने हिस्से की जिम्मेदारी छोड़ 'शत्रु-राष्ट्र' के हिस्से की जिम्मेदारी पूरी करने में जुट जायेंगे। वास्तविक शत्रु को बाप बना लेंगे और अपने बँधु-बाँधवों पर लठ्ठ लेकर पीछे पड़ जायेंगे।

अभी सम्पन्न राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् में लगभग ऐसा ही वाकया पेश हुआ जब माननीय प्रधानमन्त्री जी ने भारत की मानक परम्परानुसार बैठक में उपस्थित सभी मुख्यमन्त्रियों और परिषद् सदस्यों से निवेदन किया कि' राजनैतिक अहम और दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर हमें 'नक्सलवाद-माओवाद' का डटकर मुकाबला करना चाहिये। देश की आतरिक सुरक्षा पर राजनीति से परे मिल-जुलकर काम करना चाहिये। वगैरह - वगैरह ...! उनके वक्तव्य की और परिषद् के तमाम सदस्यों के विचारों और सुझावों की 'ऐसी-तैसी' करते हुये बैठक में उपस्थित एक महान् मुख्यमन्त्री और नये-नये 'पी.एम. इन वेटिंग' ने बहती गंगा में हाथ धोते हुये न केवल बैठक के अजेंडे की अवहेलना की अपितु अपना व्यक्तिगत अजेंडा पेश करते हुये सीबीआई,आयकर विभाग और अन्य केन्द्रीय एजेन्सियों के दुरूपयोग के मार्फ़त उन्हें परेशान करने का अरण्यरोदन तो किया किन्तु नक्सलवाद के खिलाफ या उसके निदान विषयक एक शब्द नहीं कहा। ये स्वनामधन्य भाजपाई मुख्यमन्त्री महोदय इतने से ही सन्तुष्ट नहीं हुये और लगभग आसमान पर थूकने की मुद्रा में ने केवल केन्द्र सरकार अपितु कतिपय देशभक्त बुद्धिजीवियों और परिषद् सदस्यों को भी नक्सल्यों का सहोदर ठहराने से नहीं चूके। उनकी इस बिगड़ैल भाव-भँगिमा और ओजस्विता के अस्थायी भाव के पीछे शायद गुजरात के उपचुनावों में अभी-अभी मिली सफलता की अपार ख़ुशी थी या उनके अलायन्स पार्टनर नितीश- जदयू को बिहार के महराजगंज में मिली करारी हार का प्रतिशोधजनित आनन्द, ये तो वक्त आने पर ही मालूम हो सकेगा किन्तु उनकी राष्ट्र निष्ठा की असलियत तो इस बैठक में साफ़ दिख गयी है। प्रधानमन्त्री जी,गृह मन्त्री जी और तमाम मुख्यमन्त्रियों की देश की आन्तरिक सुरक्षा से सम्बंधित कोई सामूहिक रणनीति बनती कोई सर्वसम्मत निर्णय होता और मीडिया उसे 'जन-विमर्श' के माध्यम से सर्टिफाइड करता तो कुछ और बात होती किन्तु जब कोई अपने चरम अहंकार के वशीभूत होकर अजेंडे को ही दुत्कार दे तो बात न केवल चिन्तनीय अपितु निन्दनीय भी ही है।

देश की जनता और मीडिया को सोचना चाहिये कि जिस व्यक्ति पर इस दौरान सर्वाधिक विमर्श और फोकस किया जा रहा है वो व्यक्ति राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की बैठक में 'राष्ट्रीय 'हितों से ज्यादा अपने वैयक्तिक हित-अनहित के लिये ज्यादा चिन्तित है, जिसे गुजरात दंगों के भय-भूत ने जकड़ रखा हो और जो गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों की परछाई से मुक्त होने की छटपटाहट से आक्रान्त है, जो अपने अलायन्स पार्टनर्स की हार से खुश है जो अपने दल के वरिष्ठों के प्रति ही अनादर भाव से तुष्ट रहता हो वो यदि दुर्भाग्य से देश का प्रधान मन्त्री बन जाता है तो गुजरात की जनता का, देश की जनता का और समग्र भारत राष्ट्र के हितों की रक्षा कैसे कर सकेगा ?