गाँधी: एक पुनर्मूल्‍यांकन-भाग-2
गाँधी उत्‍पादक शक्तियों के निरंतर विकास और तदनुरूप उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों में बदलाव के साथ युग-परिवर्तन की ऐतिहासिक गति की कोई समझ नहीं रखते थे। पूँजीवाद की तमाम विभीषिकाओं के लिए गाँधी उत्‍पादन के साधनों के निजी स्‍वामित्‍व और माल-उत्‍पादन (मुनाफे के लिए उत्‍पादन) को जिम्‍मेदार मानने की जगह कारखाना-उत्‍पादन में उन्‍नत तकनोलॉजी, मशीनों और स्‍वचालन को‍ जिम्‍मेदार मानते थे और इसके विकल्‍प के तौर पर छोटे पैमाने के उत्‍पादन (हस्‍तशिल्‍प, कुटीर उद्योग, ग्रामीण किसानी अर्थव्‍यवस्‍था) पर बल देते थे। हालाँकि उनके इस सिद्धान्‍त और व्‍यवहार का एक अहम अन्‍तरविरोध यह था कि भारत के जो बड़े पूँजीपति कांग्रेस के और गाँधी की विभिन्‍न संस्‍थाओं के वित्‍तपोषक थे, उनमें से एक को भी गाँधी छोटे पैमाने के उत्‍पादक उपक्रमों की ओर नहीं मोड़ सके। उल्‍टे #गाँधी के जीवनकाल में कांग्रेस समर्थक भारतीय पूँजीपतियों के स्‍वामित्‍व वाले बड़े उद्योगों का लगातार तेज गति से विकास हुआ। बहरहाल, सिद्धान्‍त और व्‍यवहार के इस अन्‍तरविरोध को दरकिनार करके हम गाँधी के इस आर्थिक चिन्‍तन की पड़ताल करें। विज्ञान और तकनोलॉजी का विकास उत्‍पादक शक्तियों के निरंतर विकास की नैसर्गिक प्रक्रिया का अंग है जो मानव सभ्‍यता के प्रारम्‍भ काल से ही निरंतर जारी है। उत्‍पादन की प्रक्रिया के दौरान मनुष्‍य सुनिश्चित उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों में बँधते हैं और यही उत्‍पादन सम्‍बन्‍ध जब उत्‍पादक शक्तियों के विकास को अवरुद्ध करने लगते हैं तो उत्‍पादक शक्तियाँ उन्‍हें नष्‍ट कर नये उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों का निर्माण करती हैं और इतिहास नये युग में प्रवेश करता है। इतिहास की इसी स्‍वाभाविक गति से सामन्‍ती उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों को तोड़कर पूँजीवादी उत्‍पादन-सम्‍बन्‍ध अस्तित्‍व में आये। पूँजीवाद के अन्‍तर्गत समस्‍या वे मशीनें नहीं हैं जो सामूहिक तौर पर लोगों को बड़े पैमाने पर उत्‍पादन में सक्षम बनाती हैं, बल्कि समस्‍या उत्‍पादन और वितरण के वे सम्‍बन्‍ध हैं जिनके अन्‍तर्गत उत्‍पादन के साधनों के स्‍वामी सामाजिक उपयोगिता को नहीं बल्कि मुनाफे को केन्‍द्र में रखकर उत्‍पादन करते हैं, नयी-नयी मशीनों का इस्‍तेमाल केवल उत्‍पादक वर्गों से ज्‍यादा से ज्‍यादा अधिशेष निचोड़ने और मुनाफे की दर को बढ़ाने के लिए करते हैं तथा लूट की आपसी होड़ में युद्धों और पर्यावरण की तबाही को जन्‍म देते हैं। पनचक्‍की, करघा, रहट आदि भी मशीनें ही हैं, फर्क बस यह है कि वे पुराने ज़माने की मशीनें हैं। गाँधी पूँजीवाद की आन्‍तरिक गतिकी को नहीं समझ पाने के कारण, तमाम पूँजीवादी विभीषिकाओं का कारण मशीनों और स्‍वचालन को मान बैठते थे और इतिहास के चक्‍के को ठेलकर पीछे ले जाने की वकालत करते थे। यह एक प्रतिक्रियावादी यूटोपिया था। गाँधी से काफी पहले, ऐसा ही यूटोपियाई नज़रिया उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के पूर्वार्द्ध में स्विस अर्थशास्‍त्री सिसमोंदी ने और फिर फ्रांसीसी अर्थशास्‍त्री जोसेफ प्रूधों ने (गाँधी से अधिक परिष्‍कृत तर्कों के साथ) प्रस्‍तुत किया था और फिर इन्‍हीं विचारों का नया संस्‍करण उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के उत्‍तरार्द्ध में रूस में नरोदवादियों ने प्रस्‍तुत किया था। निम्‍न पूँजीवादी दृष्टिकोण से पूँजीवाद की समालोचना प्रस्‍तुत करने वाला सिसमोंदी आर्थिक विज्ञान के क्षेत्र में स्‍वच्‍छंदतावाद (रोमैण्टिसिज्‍़म) का एक 'टिपिकल' प्रतिनिधि था जो मानता था कि पूँजीवाद के अन्‍तर्गत मेहनतकश जनता की तबाही और आर्थिक संकट अपरिहार्य हैं, लेकिन पूँजीवाद के बुनियादी अन्‍तरविरोधों और आन्‍तरिक गतिकी को नहीं समझ पाने के कारण, समाधान के तौर पर वह छोटे पैमाने के उत्‍पादन की ओर लौटने की बात करता था और इसतरह इतिहास-चक्र को पीछे की ओर लौटाने का नुस्‍खा सुझाने लगता था। सिसमोंदी, प्रूधों और नरोदवादियों के विचारों की विस्‍तृत आलोचना मार्क्‍स-एंगेल्‍स, प्‍लेखानोव और लेनिन ने प्रस्‍तुत की थी। निम्‍न-पूँजीवादी राजनीतिक अ‍र्थशास्‍त्र के इन प्रतिनिधियों का पद्धतिशास्‍त्र द्वैतवादी और सारसंग्रहवादी तथा दृष्टिकोण प्रत्‍ययवादी था। सामाजिक उत्‍पादन-प्रणाली के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया को नहीं समझ पाने के कारण ये अर्थशास्‍त्री उसकी बुनियाद "अच्‍छा" और "न्‍याय" जैसे नैतिक आदर्शों में ढूँढ़ने की कोशिश करते थे। उनके इस प्रतिक्रियावादी यूटोपिया के बरक्‍स यूटोपियाई समाजवादियों का यूटोपिया प्रगतिशील था जो मानता था कि मेहनतकश जनता का उसके श्रम के सम्‍पूर्ण उत्‍पाद पर अधिकार है और इसी लक्ष्‍य-प्राप्ति के लिए सामाजिक ढॉंचे का पुनर्गठन अनिवार्य है। गाँधी का यूटोपिया सिसमोंदी और प्रूधों के प्रतिक्रियावादी यूटोपिया का एक भोंडा भारतीय संस्‍करण था। आगे चलकर चरणसिंह ने अपनी पुस्‍तकों 'गाँधियन पाथ' और 'इकोनॉमिक नाइटमेयर ऑफ इण्डिया' में इसी गाँधीवादी यूटोपिया को अधिक परिष्‍कृत ढंग से प्रस्‍तुत किया लेकिन वे भी सिसमोंदी और नरोदवादियों के तर्कों से रंचमात्र भी आगे नहीं बढ़ पाये।
अब हम गाँधी के अहिंसा के सिद्धान्‍त पर आते हैं। इतिहास के तथ्‍य इस सत्‍य की गवाही देते हैं कि नयी सामाजिक व्‍यवस्‍था के जन्‍म में बल की भूमिका हमेशा से धाय की होती रही है। हेराल्‍ड लास्‍की के शब्‍दों का इस्‍तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि हर राजनीतिक-सामाजिक ढाँचागत बदलाव में हिंसा या हिंसा का तथ्‍य (फैक्‍ट ऑफ वॉयलेंस) अन्‍तर्निहित होता है। हर सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को शासक वर्ग के हितों की दृष्टि से राज्‍यसत्‍ता ही संचालित और नियंत्रित करती है। सामाजिक-आर्थिक ढाँचों को बदलने का काम शासित वर्ग पुरानी राज्‍यसत्‍ता का बलात् ध्‍वंस करके और नयी राज्‍यसत्‍ता का निर्माण करके ही कर सकते हैं। गाँधी के चिन्‍तन में सामाजिक संरचना और राज्‍यसत्‍ता के वर्ग चरित्र की ऐतिहासिक समझ नहीं थी। उनकी यह समझ थी कि कुछ सुनिश्चित आदर्शों को शासन करने वाले लोग य‍दि निजी जीवन की तरह सार्वजनिक जीवन में भी लागू करें तो आदर्श समाज का निर्माण किया जा सकता है। उनका प्रत्‍ययवादी चिन्‍तन समाज विकास के सुनिश्चित वस्‍तुगत नियमों की अनदेखी करके उसके अमूर्त नैतिक आदर्शों और उनका अनुपालन करने वाले व्‍यक्तियों के आचरण द्वारा संचालित और नियंत्रित होने में विश्‍वास रखता था और निजी जीवन के स्‍पेस और राजनीतिक जीवन के सार्वजनिक स्‍पेस के अन्‍तर को पूरी तरह मिटा देता था। गाँधी का इतिहास-बोध मूलत: धार्मिक विश्‍व-दृष्टिकोण पर आधारित था जो अमूर्त-निरपेक्ष नैतिक आदर्शों और उनका पालन करने वाले नायकों को इतिहास की चालक शक्ति के रूप में देखता था। यही कारण है कि अपने आन्‍तरिक तर्क और व्‍यवहार में उनका अहिंसा का सिद्धान्‍त तमाम अन्‍तर्विरोधों के मकड़जाल में उलझ जाता था। स्‍वयं गाँधी ही इस बात को मानते थे कि हिंसा का मतलब केवल रक्‍तपात ही नहीं होता, किसी भी रूप में य‍दि दबाव और बलप्रयोग किया जाता है तो वह हिंसा है। अहिंसा का सिद्धान्‍त केवल नैतिक दृष्टि से कायल कर देने या हृदय-परिवर्तन को ही सही ठहराता है। सत्‍याग्रह और उपवास को गाँधी इसी का साधन मानते थे। लेकिन व्‍यवहारत: गाँधी की राजनीति आद्यंत 'समझौता-दबाव-समझौता' की राजनीति ही बनी रही। गाँधी के ही नेतृत्‍व में किसी आन्‍दोलन ने अंग्रेजों को य‍दि रियायतें देने के लिए बाध्‍य किया तो इसका कारण अंग्रेजों का हृदय-परिवर्तन या नैतिक पराजय का अहसास नहीं था, बल्कि किसी संभावित देशव्‍यापी जनउभार और परिणतियों का भय था। अंग्रेज इस देश को हृदय-परिवर्तन या नैतिक पराजय के कारण छोड़कर नहीं गये, बल्कि उसके पीछे तत्‍कालीन विश्‍व-परिस्थितियों का और देशव्‍यापी उग्र जनसंघर्षों का बाध्‍यताकारी दबाव था। उपनिवेशवादी इस बात को समझ चुके थे कि य‍दि अब भी वे भारतीय बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस को सत्‍ता हस्‍तांतरित करके भारत को राजनीतिक आजा़दी नहीं देंगे तो उन्‍हें किसी उग्र जनक्रान्ति का सामना करना पड़ेगा।
O- कात्यायनी
कात्यायनी , लेखिका जानी-मानी कवयित्री व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
गाँधी: एक पुनर्मूल्‍यांकन- भाग-1
गाँधी का व्‍यक्तित्‍व विराट था और उनके व्‍यक्तित्‍व और चिन्‍तन के अन्‍तरविरोध भी उतने ही गहरे थे