अब मीडिया का जनविकल्प मोबाइल नेटवर्किंग!
मोबाइल से ही जनता की आवाज सुनी जायेगी!
सुविधा के मुताबिक जनांदोलन, इसीलिए पोलावरम बांध पर खामोशी।
पलाश विश्वास
मीडिया के अच्छे बहुत पहले से शुरु हैं।
पेड न्यूज से रातोंरात मालामाल हो रहे हैं मालिक। जिनका अपना प्रेस नहीं है, पेरोल नहीं है। भूतहा प्रकाशन है। वे मालामाल ही नहीं हो रहे हैं, बल्कि अब मीडिया आइकन बन गये हैं। जनपदों के समाचारपत्रों और चैनलों पर धनवर्षा का आलम उत्तराखंड में केदार त्रासदी की लीपापोती में देखा जा चुका है तो नमो सुनामी सृजन का वारा न्यारा अलग गौरवगाथा है। इसी के मध्य शत प्रतिशत प्रत्यक्ष विनिवेश मार्फत देशी मीडिया का अंत सामने है। मीडिया कर्मी अपना वजूद बचाने की भी हालत में नहीं है। मीडिया के जनविकल्प के बारे में नई सोच के अलावा कोई राह नजर नहीं आ रही है।
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के केसरिया सलवा जुड़ुम एकाधिकार क्षेत्र में मोबाइल मीडिया के स्वरुप के बारे में अभी धुंआ सा का काफी है। फंडिंग के बारे में भी स्थिति बहुत साफ नहीं है। हमने वैकल्पिक मीडिया के साथियों से इस सिलसिले में बात की है। वे वहां क्या और कैसे कर रहे हैं, इस विवाद में न जाकर इस तकनीक का कैसे इस्तेमाल किया जा सके जनपक्षधर मोर्चे के हक में और जल्द से जल्द पोलावरम जैसे मुद्दे को लेकर आदिवासी भूगोल और बाकी अस्पृश्य भारतखंड को जोड़ते हुए सर्वस्वहाराओं का एकताबद्ध राष्ट्रीय जनांदोलन की दिशा बनायी जा सके और लाल नील अंतर्विरोध के समाधान जरिये बहुसंख्य भारतीयों को गोलबंद किया जा सके, इस पर हमें सोचना ही होगा।
अब मीडिया का जनविकल्प मोबाइल नेटवर्किंग, मोबाइल से ही जनता की आवाज सुनी जायेगी। छत्तीसगढ़ में यह प्रयोग कामयाबी से लगातार व्यापक होता जा रहा है। सूचना क्रांति ने जनता को सूचनाओं से ब्लैक आउट कर दिया है और सारी चकाचौंध बाजार को लेकर है। अंधेरा का कोई कोना भी रोशन नहीं हो रहा है।
मोबाइल क्रांति ने बाजार को देहात के दूरदराज के इलाके तक विस्तृत कर दिया है। मोबाइल धारकों के मार्फत अत्याधुनिक उपभोक्ता संस्कृति देश के चप्पे चप्पे में है और मुक्त बाजार के शिकंजे में हैं जंगल, पहाड़, मरुस्थल, रण और समुंदर। लेकिन अगर इसी मोबाइल क्रांति को मीडिया का जनविकल्प तैयार कर दिया जाये तो हालात बदल भी सकते हैं।
कम से कम छत्तीसगढ़ में गोंड भाषा में गोंडवाना के आदिवासियों की जनसुनवाई मोबाइल नेटवर्क जरिये करके इसे संभव बना दिया है जनपक्षधर लोगों ने।
नवउदार भारत में तकनीक और प्रसार के लिहाज से मुख्यधारा के मीडिया का विकास हैरतअंगेज है। जबकि मीडिया में जनोसरकार और जनमत की क्या कहें, श्रमकानून और आंतरिक स्वायत्तता और लेकतंत्र सिरे से लापता है। अगर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) से मिले आंकड़ों पर गौर करें तो इसमें कमी के बावजूद प्रिंट मीडिया उद्योग ने जोरदार वापसी दर्ज की है। आईआईपी के आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल में समाचार पत्र उत्पादन में 56.7 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई, जबकि कुल औद्योगिक वृद्धि एक साल पूर्व की इसी अवधि के 5.3 फीसदी की तुलना में महज 0.1 फीसदी रही।
प्रकाशन, प्रिंटिंग और पुनरुत्पादन सहित समूचे मीडिया क्षेत्र की वृद्धि शानदार 52.7 फीसदी रही। वित्त वर्ष 2011-12 के दौरान 10.78 फीसदी भार वाले इस खंड की वृद्धि 29.6 फीसदी रही।
आईआईपी में 0.2 फीसदी हिस्सेदारी वाले मोबाइल हैंडसेट और अन्य टेलीफोन उपकरणों के उत्पादन में अप्रैल में 30 फीसदी की तेजी दर्ज की गई।
बीबीसी के मुताबिक-
छत्तीसगढ़ के ज़िले कवर्धा में एक वनरक्षक ने जब कुछ बैगा आदिवासियों से कथित तौर पर 99 हज़ार रुपए रिश्वत ली, तो स्थानीय लोगों ने मोबाइल रेडियो स्टेशन ‘सीजीनेट स्वर’ पर इसकी शिकायत कर दी। शिकायत का पता चलते ही वन अधिकारी को पैसे लौटाने पड़े और उन्होंने माफ़ी भी मांगी। मामले की अब जांच हो रही है।
ये ताक़त है लोकल कम्यूनिटी नेटवर्क की, जिसने स्थानीय लोगों को अपनी आवाज़ सत्ता-प्रशासन में बैठे लोगों तक पहुँचा पाने का एक विश्वास दिया है।
सीजीनेट स्वर मध्य भारत के आदीवासी क्षेत्रों पर केंद्रित और मोबाइल पर आधारित एक रेडियो स्टेशन है। लोग अपना संदेश फ़ोन के ज़रिए रिकॉर्ड करते हैं और यह संदेश प्रारंभिक जांच के बाद वेबसाइट पर प्रकाशित कर दिया जाता है साथ ही इन्हें मोबाइल पर भी सुना जा सकता है। मोबाइल पर सुनने के लिए श्रोताओं को बस एक नंबर पर कॉल करना होता है।
बीबीसी ने भी इस पर विस्तृत रपट जारी की है तो बांग्ला में एई समय ने एडवर्ड स्नोडेन की तरह यथास्थिति तोड़ने की मोबाइल पहल करने के सूत्रधार शुभ्रांशु चौधरी का इंटरव्यू संपादकीय पेज पर छापकर इस संभावना के द्वार खोल दिये हैं।
शुभ्रांशु चौधरी गोंडवाना में पले बढ़े और वहां से ही पत्रकारिता की। वे हमारी तरह ऐरे गैरे पत्रकार भी नहीं हैं। बीबीसी से जुड़े रहे हैं। उनका मानना है कि कथित मुख्यधारा की मीडिया में जनता के मुद्दों को आवाज़ नहीं मिलती।
शुभ्रांशु बेहिचक मानते हैं कि दडकारण्य और गोंडवाना में नब्वे फीसद आदिवासी माओवाद के समर्थक हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के किसी भी स्तर पर अपने दुःख दर्द की सुनवाई से वंचित हैं। मोबाइल नेटवर्क से उन्होंने इस जन सुनवाई को आदिवासियों की उनकी ही भाषा में अंजाम देने का बीड़ा उठाया ताकि कम से कम वैकल्पिक मीडिया के जरिये आदिवासियों के साथ एक संवाद सेतु तो तैयार किया जा सकें और संचार क्रांति के मार्फत ही उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल किया जा सकें। शुभ्रांशु के मुताबिक इस देश में नीति निर्धारण करने वाले लोग आदिवासी क्या चाहते हैं और उनकी क्या मांगें हैं, इसे समझते ही नहीं हैं। गोंड, भील या संथाल मुंडा जनभावनाओं को समझने के लिए उनसे कम्युनिकेट करना बेहद जरुरी है। हमें ऐसा मंच जरूर बनाना चाहिए, जहां जनता की समस्याओं, शिकायतों की सुनवाई हो।
वैकल्पिक मीडिया अब तक बुद्धिजीवी मध्यवर्गीय अभिव्यक्ति का माध्मम रहा है। वंचित तबके के लिए वैकल्पिक मीडिया का दरवाजा खोलने के लिए यह एक चामत्कारिक पहल है और हमें इसको विस्तृत करने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए।
इसी बीच मेरा पीसी फिर क्रैश कर गया है। पंद्रह दिन में दूसरी बार। कंगाली में आटा गीला है। मेरा इरादा इस मामले को अगले महीने तक टालने का था। लेकिन दो दिन से घर में सिर्फ पढ़ाई करते देखकर सविता को मालूम पड़ गया कि फिर कंप्यूटर खराब है। नेट का कनेक्शन भी कटा था। पिछले महीने के बिल मय समाचार पत्र और बिजली बिल का भुगतान अभी हुआ नहीं है। इस पर भी सविताबाबू के दबाव में आज नेट का कनेक्शन फिर जोड़ा है और इंजीनियर रविवार को आयेगा।
जाहिर है कि वेब का मामला बेहद खर्चीला है और नेट प्रयत्नों के नतीजे भी बेहद सीमाबद्ध हैं। हम लंबे समय तक माइक्रोसाफ्ट की दादागिरी के मध्य नेट पर मौजूद नहीं रह सकते और रहें तो भी सत्ता वर्ग को संबोधित करके कुछ हासिल नहीं कर सकते।
दरअसल हम एकदम शुरुआती दौर से यानी जबसे इंटरनेट का प्रचलन हुआ, अविराम नेट पर लिख रहे हैं। यह हमारी मजबूरी भी है कि जो बात हम कहना चाहते हैं, वह कहने का मंच हकीकत की जमीन पर कहीं है नहीं। नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के समय में शुरु से ही हम जैसे लोग हाशिये पर हैं। हम नेट के जरिये महज अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं और शायद खुद के जीवित होने का सबूत भी पेश कर रहे हैं। लेकिन हो कुछ नहीं रहा है।
शरणार्थी समस्या पर डाक्यूमेंटेशन का अभाव था, उसे पूरा करने में करीब दो दशक लगा दिये। लेकिन शरणार्थियों को उनके वजूद के संकट में हम किसी भी स्तर पर गोलबंद नहीं कर सकें।
सबसे ज्यादा समस्या आदिवासियों और बाकी बहुजनों को संबोधित करने की है। बहुजन साहित्य और राजनीति के नाम पर पैसा कमा चुके लोगों ने इतना लिख दिया है कि नई आवाज सुनने को कोई बहुजन तैयार नहीं है। दूसरी ओर, आदिवासी जो जल जंगल जमीन से बेदखल है, उन्हें आप न नेट से, न अखबार से और न अन्य माध्यमों से संबोधित कर सकते हैं।
आज सरदार सरोवर और नर्मदा बचाओ से लेकर कुड़नकुलम को लेकर बड़े-बड़े जनांदोलन हो रहे हैं लेकिन वही आंदोलनकारी दंडकारण्य के पांच राज्यों के लाखों आदिवासी और शरणार्थी परिवारों को डूब में विसर्जित करने के अध्यादेश और प्रस्तावित कानून के खिलाफ चुप्पी साधे हुए हैं। जबकि कम से कम ओड़ीशा और छत्तीसगढ़ सरकार ने इस परियोजना का लगातार विरोध किया है।
कारपोरेट फ्रेंड नवीन पटनायक तो ओड़ीशा में बहुसंख्य आदिवासियों की जनसुनवाई न होने के राजनीतिक नतीजे से वाकिफ 2007 से इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं तो छत्तीसगढ़ की सलवा जुड़ुम सरकार भी आदिवासी इलाकों को डूब में शामिल होते देख नहीं सकती। तेलंगाना ने भी इस परियोजना का विरोध शुरु कर दिया है। सीमांध्र में भी विरोध हो रहा है। सिर्फ महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में खामोशी है।
ताज्जुब तो यह है कि पर्यावरण के नाम पर तूफान खड़ा करने वाले और आदिवासी हितों के स्वयंभू झंडेवरदार बाकी मामलों में प्रचंड मुखर होने के बावजूद पोलावरम मामले में खामोश हैं। ऐसे मुद्दे और उनपर पसरा देशव्यापी सन्नाटा साबित करता है कि वैकल्पिक मीडिया की खोज का सिलसिला अभी खत्म हुआ नहीं है और इसी सिलसिले में व्रात्य और अंत्यज लोगों की आवाज की गूंज सर्वत्र हो तो मोबाइल क्रांति के इस्तेमाल की छत्तीसगढ़ी पहल कितनी महत्वपूर्ण है।
असल बात तो यह कि हवाई बातों से कुछ हो ही नहीं सकता अगर हमारे पांव जमीन पर न हो। छत्तीसगढ़ में मोबाइल नेटवर्किंग के जरिये सीधे जनसुनवाई की जो पद्धति आजमाई जा रही है, उसे देश भर में मोबाइल क्रांति से जोड़ने में हमारे तकनीक दक्ष मित्र कुछ मदद कर सकें तो बेहतर नतीजे निकल सकते हैं। इसीलिए आज का यह रोजमामचा इसी मुद्दे पर।
अखबारों के मार्फत खुद पत्रकारिता पेशे से जुड़े लोगों की जनता के हक हकूक की आवाज उठाने की मनाही है। कारपोरेट प्रबंधन कारपोरेट हित में मीडिया की नीतियां तय करते हैं। संपादक अब सीईओ हैं तो मैनेजरों के पालतू गुलाम होकर घुट-घुटकर जी मर रही है जनपक्षधर पत्रकारिता।
अखबारों के प्रसिद्ध स्तंभकार के नियमित कालम में भी मीडिया मालिकों की इच्छा का मुताबिक रंगबिरंगा लेखन चल रहा है और मुक्तबाजार, विकास, आर्थिक सुधार, नमोमय शत प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, निजीकरण और विनिवेश, पीपीपी माडल, प्रोमोटर बिल्डर राज, जनसंहारी राजकाज के खिलाफ चूं तक करने की गुंजाइश नहीं है।
लघु पत्रिकाओं का जो आंदोलन सत्तर के दशक में वैकल्पिक मीडिया बतौर सामने आया था, वह भी अब पार्टीबद्ध सीमाबद्धता होते हुए अस्तित्व की लडा़ई में बाजार निर्भर है तो साहित्य कला के दायरे से वैचारिक राजनीतिक बहस के अलावा वहां भी कोई जनसुनवाई नहीं हो रही है।
सोशल मीडिया का कारोबार अब कमोबेश केसरिया है। मजीठिया अन्याय के खिलाफ क्रांति के आवाज के दम तोड़ने से यह साबित हो गया है कि मीडियाकर्मी किस तरह निःशस्त्र चक्रव्यूह में एकदम अकेले मारे जाने को अभिशप्त है।
निजी तौर पर ब्लाग लेखन और समूह संवाद को सर्च इंजन के जरिये खोजने की गुंजाइश वैसे भी नहीं रही और गंभीर लेखन जनप्रतिबद्ध लेखन मोबाइल कंप्यूटर से जनता के बीच पहुंचता ही नहीं है और न कोई गोलबंदी उसके जरिये अब संभव है।
रियल टाइम मीडिया फेसबुक ट्विटर से संपर्क तो तुरत फुरत मध्य वर्गीय नेटनागरिकों से हो सकता है, लेकिन उनके वर्गीय जातिगत हित उन्हें सीधे तौर पर जनसरोकारों से जोड़ते नहीं है।
दूसरी ओर, मोबाइल इंटरनेट और ब्रांड से आनलॉइन जुड़ने का प्रमुख जरिया बनता जा रहा है। इन्मोबी द्वारा तैयार मोबाइल मीडिया खपत रपट के मुताबिक मोबाइल मीडिया की मांग लगातार बढ़ रही है और मोबाइल सिर्फ उपभोक्ताओं के संचार की जरूरत ही पूरी नहीं कर रहा है बल्कि एक प्रमुख जरिया है बनता जा रहा है जिसके माध्यम से वे इंटरनेट और विभिन्न ब्रांड से आनलाइन जुड़ते हैं।
पलाश विश्वास।लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।