शराब की दुकानों के आवंटन में लागू हो, सामाजिक और लैंगिक विविधता
शराब की दुकानों के आवंटन में लागू हो, सामाजिक और लैंगिक विविधता
गत 20 मार्च को लखनऊ से प्रकाशित होने वाले अधिकांश अखबारों के फ्रंट पेज पर छपी एक खबर लोगों की दृष्टि अलग से आकर्षित की थी. वह खबर थी.‘ शराब व बीयर तथा मॉडल शॉप के 2018-19 में व्यवस्थापन को सोमवार को प्रथम चरण की ई –लॉटरी से 20,860 दुकानों का आवंटन हुआ है. इसके लिए राज्य में मंडलवार 6 चरणों में प्रक्रिया पूरी की गयी. प्रथम चरण के लिए विभाग को लगभग दो लाख 40 हजार आवेदन मिले थे. एनआईसी की वेब पोर्टल पर लोड आठ मार्च की अपेक्षा कम कर देने की युक्ति सफल रही और सभी मंडलों में समयावधि में ही ई – लॉटरी का आयोजन आवेदकों व शासन के उच्चाधिकारियों की मौजूदगी में हुआ. आबकारी विभाग ने सुबह नौ बजे से शाम सात बजे तक विभिन्न मंडलों में शराब, बीयर दुकानों व मॉडल शॉप की ई-लॉटरी के लिए तकनीकी रूप से सभी इंतजाम किये थे. यूपी शराब एसोसियेशन के महामंत्री कन्हैया लाल का कहना है कि पहले वह लोग लॉटरी सिस्टम से भयभीत थे, लेकिन जिस तरह से दुकानों का आवंटन हुआ उसमें पूरी पारदर्शिता का ख्याल रखा गया. एसोसियेशन ने प्रशासन को निष्पक्ष लॉटरी के लिए बधाई दी है. ‘
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19 मार्च को 20,860 दुकानों के आवंटन के बाद ही बाकी 8 हजार से कुछ अधिक दुकानों के लिए ऑनलाइन आवेदन की प्रक्रिया शुरू हो गयी और सप्ताह भर के अन्दर ही उन दुकानों का वितरण हो जायेगा, ऐसी खबर 21 मार्च के कई अख़बारों में छपी.बहरहाल प्रथम चरण में लगभग 21 हजार दुकानों के आवंटन के बाद जिस तरह शराब एसोसियेशन की ओर से दुकानों के आवंटन पर संतोष जताया गया है, उससे निश्चय ही योगी सरकार खुश हो सकती है. पर, योगी सरकार यदि अपने विवेक को जाग्रत रखते हुए अपनी विकास की पालिसी –‘सबका साथ, सबका विकास’ - शराब की दुकानों के आवंटन को परखे तो उसे अवश्य ही ग्लानि होगी.
इसमें कोई शक नहीं कि शराब ख़राब है: बावजूद इसके नीतीश जैसे कुछ अपवाद नेताओं को छोड़ दिया जाय तो शराब की बिक्री के प्रति सभी की ही सहमति रही है.कारण, यह सरकारों के लिए राजस्व का अन्यतम बेहतरीन जरिया रहा है. क्योंकि भले ही सज्जन लोग शराब की बुरा कहें लेकिन इसके शौक़ीनों की तादाद दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है. जाहिर है शराब की बिक्री से सरकार के साथ-साथ शराब की दूकान चलाने वालों को भारी आय होती है. इसमें आय की प्रचुर सम्भावना के कारण ही बिक्री का अधिकार पाने के लिए लोग गोली तक चलाने की जोखिम लेते रहे हैं. ऐसा इसलिए कि दुकानों का लाइसेंस पाने वाले की आर्थिक स्थिति में आश्चर्यजनक बदलाव आ जाता है. शायद आय की प्रचुर सम्भावना के कारण ही 15-20 हजार रूपये का आवेदन शुल्क होने के बावजूद यूपी में देशी और अंग्रेजी दारू, बीयर, भांग इत्यादि की 29 हजार के करीब दुकानों के लिए लगभग तीन लाख आवेदन पड़े. इससे सरकार के राजस्व में सिर्फ आवेदन शुल्क से ही पचासों हजार करोड़ आ गए होंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है. यह बतलाता है कि शराब की दुकानें सरकार और शराब कारोबारियों के लिए कितनी फायदेमंद हैं. इन पक्तियों के लिखे जाने के दौरान राजस्थान में भी देशी और अंग्रेजी दारू तथा बीयर की दुकानों के लिए ऑनलाइन आवेदन की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, जहाँ आवेदन शुल्क यूपी से भी कही ज्यादा: औसतन 22 हजार रूपये है. शराब की दुकानें वहां राजस्व का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत हैं.
बहरहाल चूँकि शराब की दुकानें आय का अन्यतम बेहतरीन स्रोत हैं, इसलिए इसके आवंटन में सभी सामाजिक समूहों को अवसर सुलभ कराना भारतीय राज्य का कर्तव्य था.पर, चूँकि आजाद भारत की सरकारों पर नियंत्रण उन विशेषाधिकारयुक्त तबकों का रहा है, जिनका आज धनार्जन के स्रोतों पर प्रायः90 % से ज्यादा कब्ज़ा है, इसलिए सरकारों ने शराब की दुकानों का लोकतान्त्रिकरण करने अर्थात एससी/एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यकों इत्यादि को भी हिस्सेदारी देने का उचित प्रावधान नहीं किया. यदि ऐसा किया होता, निश्चय ही उद्योग-व्यापार से बहिष्कृत तबकों के लिए आय का एक प्रभावी स्रोत सुलभ होता तथा आर्थिक विषमता के खात्मे में कुछ मदद मिलती. किन्तु विशेषाधिकार युक्त तबकों के हित में ही राजसत्ता का सद्व्यवहार करने के अभ्यस्त आजाद भारत के हुक्मरानों ने आय के इस खास स्रोत में वंचितों को हिस्सेदार बनाने का मन नहीं बनाया. चूँकि योगी-मोदी सरकार जोर गले से ‘सबका साथ-सबका विकास’ का दावा करती रही है, इसलिए एक क्षीण सी उम्मीद थी कि वह शराब की दुकानों के बंटवारे में अलग कदम उठाकर वंचित समुदायों को भी अवसर सुलभ कराएगी. अफ़सोस शराब की दुकानों के आवंटन में मोदी-योगी सरकार का ‘सबका साथ-सबका विकास’ की उच्च उद्घोषणा महज जुमला साबित हुई .
वैसे भारत में जिस तरह टॉप की 10% आबादी के हाथ में 90 % से ज्यादा धन-संपदा आ गयी है, इससे निश्चय ही देश में विस्फोटक स्थिति पैदा हो गयी है. इस खतरनाक स्थिति का आंकलन करते हुए ही संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर, 1949 को चेताते हुए कहा था कि हमें निकटतम समय के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होगा नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से से तैयार किया है. यदि आजाद भारत के हुक्मरानों को लोकतंत्र की चिंता होती, वे धनार्जन के तमाम स्रोतों का वाजिब बंटवारा भारत के प्रमुख सामाजिक समूहों- सवर्ण,ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरुषों के मध्य कराने का उपक्रम चलाये होते. किन्तु देश के वर्णवादी शासक स्व-जाति/वर्ण के स्वार्थ में अंधे होकर वाजिब बंटवारे का उपक्रम न चला सके. आज जबकि पानी सर से ऊपर बह चला है: केंद्र से लेकर राज्यों तक की सरकारों का अत्याज्य कर्तव्य बंनता है कि वे मिलिट्री,न्यायपालिका सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की हर प्रकार की नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग-परिवहन, फिल्म -मीडिया इत्यादि धनार्जन के सभी स्रोतों का प्रमुख समाजों के स्त्री-पुरुषों के मध्य वाजिब बंटवारा करने की योजना पर काम करें. ऐसा करने के क्रम में वे शराब की दुकानों के बंटवारे में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन की बात हरगिज न भूलें.
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)


