शहीद भगत सिंह के मामले में केंद्रीय विधान परिषद में 12 और 14 सितंबर, 1929 को जिन्ना का भाषण

भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों का स्वास्थ्य जेल में लंबे अनशन के कारण बुरी तरह गिर गया था। उनमें से लगभग सबकी हालत ऐसी हो गयी थी कि वे अदालत में पेश नहीं किये जा सकते थे। ऐसे में उनके खिलाफ सुनवाई उनकी गैरमौजूदगी में संभव नहीं थी। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के प्रावधानों के अनुसार अदालत में मुकदमे के दौरान उस व्यक्ति का उपस्थित होना जरूरी था जिस पर मुकदमा चलाया जा रहा हो। दूसरी तरफ अंग्रेज सरकार जल्द से जल्द अदालती कार्रवाई पूरी कर इन क्रांतिकारियों को सजा देने पर आमादा थी। इसके लिए जरूरी था कि इंडियन क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में एक नया संशोधन जोड़ा जाय। इसके लिए सरकार ने एक विधेयक तैयार किया। इस विधेयक पर बहस के दौरान राष्ट्रीय एसेंबली के सदस्य मुहम्मद अली जिन्ना ने जोरदार शब्दों में इन क्रांतिकारियों के पक्ष में दलील दी और सरकार की भर्त्सना की। जिन्ना के उस ऐतिहासिक भाषण को "समकालीन तीसरी दुनिया" ने अपने मार्च 2012 के अंक में प्रकाशित किया था। वहाँ से आभार सहित हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं - सं.

(August 10,2016 11:42)

सर, पिछले वक्ता ने मुझे बड़े पशोपेश में डाल दिया है। यह उनका पहला भाषण था और सदन की परंपरा रही है कि यदि कोई सदस्य अपना पहला भाषण कर रहा है तो उस पर तीखी प्रतिक्रिया नहीं की जाती। मैं इस परंपरा को नहीं तोड़ना चाहता, क्योंकि मेरा मानना है, यह स्वस्थ परंपरा बनी रहनी चाहिए। लेकिन मैं यह जरूर याद दिलाना चाहूँगा कि वक्ता महोदय ने अपने भाषण के अंतिम दौर में कहा था कि माननीय सदस्यों में लाहौर केस के अभियुक्तों के प्रति प्रशंसा और हमदर्दी की भावना हो सकती है।

मेरा ख्याल है कि मैं एक बहुत बड़ी जनसंख्या के प्रतिनिधि के रूप में यहाँ बोल रहा हूँ और यही कहना चाहता हूँ कि यदि अभियुक्तों के प्रति हमदर्दी और प्रशंसा का भाव है तो वह केवल इस हद तक है कि ये अभियुक्त सरकारी तंत्र के शिकार हुए हैं।

ऐसा नहीं है कि यदि अभियुक्त दोषी है, जो कि अभी तय होना बाकी है, तो भी हम उनके कृत्यों की सराहना करेंगे। यदि उन पर लगाये गये आरोप सही पाए जाते हैं तो निश्चित रूप से हम उनकी सराहना नहीं करने वाले। लेकिन इसके विपरीत, मेरे ख्याल में एक बहुत बड़ी तादाद यह महसूस करती है कि स्थिति कितनी ही उत्तेजक रही हो, इन नौजवानों ने वे कार्य भटकाव में आकर किए जिनके लिए वे अभियुक्त हैं।

सर, माननीय होम मेम्बर ने सदन से कहा है कि हम इस सवाल पर निष्पक्ष होकर बिना पूर्वाग्रहों के प्रतिक्रिया दें।

मुझे पूरा विश्वास है कि माननीय होम मेम्बर ने ठीक इसी सिद्धांत का अनुसरण किया है लेकिन इस मुद्दे को सदन में उठाकर क्या वे इस सिद्धांत का अनुसरण करने में सफल रहे हैं? क्या तथ्यों से ऐसा अहसास होता है? पिछले वक्ता, जिनके विरुद्ध मुझे कुछ नहीं कहना है, ने यह कहकर कि भूख हड़ताल इस बिल को पास करके ही तोड़ी जा सकती है, लगभग हार ही मान ली।

माननीय सदस्य द्वारा जेल में विभिन्न श्रेणियों के कैदियों को किस तरह रखा जा रहा है, के बारे में जो जानकारी दी गयी, फिलहाल इससे मेरा सरोकार नहीं है, लेकिन जो बात बिल्कुल स्पष्ट है उसे मैं आपके सामने रखना चाहूँगा।

भगत सिंह और (बटुकेश्वर) दत्त ने जो बयान दिए हैं, जो कि स्थापित सत्य बन चुके हैं और पिछले वक्ता के भाषण से भी यही संकेत मिला है, उनसे यह साफ पता चलता है कि उनके साथ जो बर्ताव हो रहा है वह रंगभेद की बुनियाद पर न सही लेकिन खाने और जीवन की अन्य बुनियादी जरूरतों के लिए जो मानदंड यूरोपीय लोगों के लिए तय हैं, उन पर खरा नहीं उतरता।

सवाल केवल यह नहीं है कि उनके साथ वही बर्ताव किया जाय जो किसी यूरोपियन के साथ किया जाता है। दरअसल माननीय होम मेम्बर जो सत्ता की ओर से आखिरी वक्ता थे, के बयानों से जो मुझे लगा है वह यह है कि भगत सिंह और दत्त टोप पहनते हैं और उनकी तस्वीरें नेकर में छपी हैं। इसलिए उनके साथ किसी यूरोपियन जैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए।

मेरे माननीय दोस्त श्री नियोगी की परिभाषा से इत्तफाक करते हुए माननीय मेम्बर ने कहा कि व्यक्ति यूरोपियन हो या भारतीय, यदि वह टोप पहनता है तो जेल के नियमों के दायरे में वह यूरोपियन है। तो भगत सिंह और दत्त जो कि टोप और यूरोपियन कपड़े पहनते हैं, उनके साथ भी यही बर्ताव क्यों न किया जाय।

पंजाब की सरकार उनके साथ वह बर्ताव क्यों नहीं करती है जिसके वे हकदार हैं। वे टोप पहनते हैं और ऐसे बर्ताव के हकदार हैं।

जो बयान पढ़कर सुनाया गया है उसमें इन लोगों ने जो कहा है वह यह हैः

‘‘हम भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को असेम्बली बम केस, दिल्ली में 19 मई, 1929 को सजाए मौत दी गयी थी। जब तक हम दिल्ली जेल में थे, हमारे साथ अच्छा बर्ताव किया जाता था और हमें अच्छा खाना मिलता था लेकिन जबसे हमें दिल्ली जेल से मियाँवाली जेल और लाहौर सेंट्रल जेल लाया गया-

(व्यवधान) यह जेल पिछले वक्ता के क्षेत्र में है। पंजाब तो बड़ी खतरनाक जगह मालूम होती है।

मियाँ मुहम्मद शाह नवाज़ (पश्चिम केन्द्रीय पंजाब) : तो आप वहाँ मत जाइए।

जिन्नाः बिल्कुल नहीं जाऊंगा। यह तो सुन लीजिए यह लोग आगे क्या कहते हैं -

‘‘हमारे साथ आम अपराधियों जैसा बर्ताव किया जा रहा है।’’

यानी दिल्ली में उनके साथ बहुत अच्छा बर्ताव किया जा रहा था और पंजाब में उनके साथ आम अपराधियों जैसा बर्ताव किया जा रहा है।

सर, निश्चित रूप से पंजाब सरकार में जरा भी राजनैतिक विवेक होता और उनके पास कुछ दिमाग होता तो उसने इस समस्या के हल को आसानी से और बहुत पहले निकाल लिया होता।

सर, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसपर मैं जितना गौर करता हूँ, जितना इसका विश्लेषण करता हूँ, मुझे युद्ध की घोषणा ही प्रतीत होता है। जहाँ तक पंजाब सरकार का सवाल है, सरकार की इसमें रुचि ही नहीं है कि इन लोगों को न्याय पीठ के समक्ष लाकर आरोपित किया जाय। सरकार ने तो इन व्यक्तियों के विरूद्ध युद्ध छेड़ रखा है। ऐसा लगता है कि सरकार यह ठान चुकी है कि ‘‘हम हर संभव प्रयास करके, कोई भी तरीका अपनाकर यह सुनिश्चित करेंगे कि तुम फाँसी के तख्ते तक पहुँच कर रहो और इस बीच हम तुम्हारे साथ इंसान जैसा बर्ताव भी नहीं करेंगे।’’

सर, इसके पीछे केवल यही भावना है और इसके अलावा कुछ भी नहीं। एक क्षण के लिए भी मेरे कहने का अर्थ नहीं है कि सरकार कटिबद्ध नहीं है।

दरअसल यह सरकार का कर्तव्य है कि वह अपराधियों पर मुकदमा चलाए।

मैं यह भी नहीं कहना चाहता कि सरकार जुर्म साबित करने में अपनी सारी शक्ति न लगाए। लेकिन क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि आपकी जंग किससे है। इन कुछ नौजवानों के साधन क्या-क्या हैं जिन्होंने आपके मुताबिक कुछ जुर्म किए हैं।

आप इन्हें अभियुक्त बनाना चाहते हैं और आवश्यक मुकदमे के बाद इन पर जुर्म साबित करना चाहते हैं। लेकिन जब तक इन पर जुर्म साबित न हो जाय इस पर कोई बहस की गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए कि आप इनकी बुनियादी आवश्यकताओं की माँग को फौरन स्वीकार न कर लें, क्योंकि जहाँ तक लाहौर केस के कैदियों का ताल्लुक है, वे निश्चित रूप से राजनैतिक कैदी हैं और अभी केवल विचाराधीन ही हैं।

आप पूछ सकते हैं कि राजनैतिक कैदी से मेरा अर्थ क्या है?

राजनैतिक कैदी की व्याख्या करना काफी मुश्किल काम है। लेकिन यदि आप सामान्य समझ को ले लें और दिमाग लगाकर सोचें तो आप इस केस के संदर्भ में इस नतीजे पर पहुँचेंगे ही कि ये लोग राजनैतिक कैदी हैं और हम उन्हें उपयुक्त सुविधाएँ देना नहीं चाहते। हम इनके साथ अभियुक्तों की तरह व्यवहार करना चाहते हैं यदि हमने ऐसा कहा होता तो सवाल का हल पहले ही निकल चुका होता।

आप इन पर मुकदमा चलाना चाहते हैं या इन पर अत्याचार करना चाहते हैं?

सर, इस बिल के विरोध का आधार मैं बुरे बर्ताव के मुद्दे को नहीं बनाना चाहता क्योंकि यह मुद्दे का केवल एक पक्ष है... या यूँ कहा जाय कि हमारे समक्ष प्रस्तुत बिल का एक पक्ष है।

मेरी समझ के अनुसार बिल को तीन आयामों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। आपराधिक न्याय शास्त्र की दृष्टि से, राजनैतिक दृष्टि अथवा बिल की नीति की दृष्टि से, और आरोपित व्यक्तियों पर जब मुकदमा चल रहा हो तो उनके साथ किए जाने वाले बर्ताव की दृष्टि से।

मेरा मानना है कि इसे स्वीकार किया जायगा।

माननीय होम मेम्बर ने भी माना था कि जो बिल वे सदन के समक्ष लाए हैं उसके द्वारा वे एक सिद्धांत प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि अभूतपूर्व स्वरूप का फौजदारी कानून से संबद्ध सिद्धांत है।

सर, मैं नहीं समझता कि किसी भी सभ्य देश में कोई ऐसा न्याय शास्त्र है जिसमें ऐसा सिद्धांत मौजूद है जैसा कि इस बिल में है। कुछ ऐसे माननीय सदस्य भी होंगे जो कि वकील न होने की वजह से इस बिल के नतीजों को पूरी तरह समझ नहीं सकेंगे। इस बिल के तहत अभियुक्त की मुकदमे में हाजिरी ही गैर लाजिमी बना दी जायेगी। इस बिल के जरिए क्या-क्या हो सकता है उसकी एक तस्वीर मैं आपके सामने रखूँगा।

इस बिल के तहत सरकार उस मजिस्ट्रेट को, जिसके समक्ष जाँच चल रही है, आवेदन देगी और कहेगी,

‘‘यह है कानून जो हमने विधायिका से लिया है। अभियुक्तों ने स्वयं कोर्ट में मौजूद रहने में असमर्थता व्यक्त की है इसलिए आप अभियुक्तों की हाजिरी गैर लाजिमी करार दें। इसके बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष जाँच एकतरफा चलेगी। जबानी और दस्तावेजी गवाही पेश की जाएगी जिन पर कोई जिरह नहीं होगी। दस्तावेजी गवाही तो उन अभियुक्तों की नजरों से भी नहीं गुजरेगी जिनके खिलाफ यह गवाही पेश की जा रही है। जरा यह तो बतायें कि अभियुक्तों की गैर मौजूदगी में उनकी शिनाख्त कैसे की जायगी। इसके अलावा हम, विशेषकर जो वकील हैं, अच्छी तरह जानते हैं कि मुकदमे के लिए गवाही तैयार कर लेने के बाद अपराध दण्ड संहिता की धारा 209 के तहत मजिस्ट्रेट को अभियुक्तों से यह दरयाफ्त करना जरूरी है कि जो गवाही उसने अभियुक्तों के विरुद्ध दर्ज की है उनके संदर्भ में क्या उन्हें कुछ कहना है। ऐसा बयान मिल जाने के बाद ही मजिस्ट्रेट को अधिकार है कि वह अभियुक्तों को सजा दे या रिहा कर दे। धारा 209 के तहत अभियुक्तों का बयान लेना मजिस्ट्रेट के लिए लाजिमी है। मजिस्ट्रेट के पास इसके अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय की नजर में इस प्रक्रिया के बिना पूरा मुकदमा ही दिशाहीन हो जाएगा। इस बिल के तहत पहले से ही एकतरफा गवाही के संदर्भ में अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान देने के लिए मौजूद ही नहीं रहेंगे।

सर, इसके बाद हम एक महत्वपूर्ण धारा की ओर मुड़ते हैं।

धारा 287 के तहत भी बयान सेशन कोर्ट के समक्ष दिया जाना चाहिए। वहाँ भी अभियुक्त मौजूद नहीं होंगे। गवाही एकतरफा तौर पर सेशन कोर्ट के समक्ष रिकॉर्ड की जाएगी और यदि जूरी मौजूद है तो जूरी से फैसला सुनाने को कहा जायगा।

यदि पर्यवेक्षक मौजूद हैं तो उनसे अपनी राय देने को कहा जाएगा और जज अपना फैसला सुना देगा।

मैं माननीय होम मेम्बर और माननीय लॉ मेम्बर से पूछना चाहता हूँ कि यह मुकदमा कहा जाएगा या तमाशा।

(व्यवधान) सर, ब्रोजेन्द मित्तर (लॉ मेम्बर): कोई तमाशा नहीं अगर चाहें तो अभियुक्त कोर्ट जा सकते हैं।

गया प्रसाद सिंहः लेकिन जो गवाही अभियुक्त की गैर मौजूदगी में पहले ही ली जा चुकी है उसका क्या होगा?

जिन्नाः मुझे खुशी है कि माननीय लॉ मेम्बर ने मुझे कोई जवाब तो दिया। तो आप वाकई इस बिल के द्वारा भूख हड़ताल तोड़ना चाहते हैं। आप चाहते हैं कि यह सदन आपको एक ऐसे विधान से लैस कर दे जिसमें इस केस के लिए आपराधिक कानून के सिद्धांत का प्रावधान हो जिससे कि लाहौर केस में भूख हड़ताल तोड़ने में आप उसका इस्तेमाल कर सकें।

याद रखें कि आपके पास इसकी कोई नजीर मौजूद नहीं है। एक घटना परंपरा नहीं बन जाती। यह लाहौर केस है।

आप अच्छी तरह जानते हैं कि ये नौजवान जान देने पर आमादा हैं। यह कोई मजाक नहीं है।

मैं लॉ मेम्बर को बताना चाहूँगा कि भूखा रह कर जान दे देना हर किसी के बस की बात नहीं है। कोशिश करके देखिए आपको अंदाजा हो जाएगा।

सर, मेरे सम्मानीय दोस्त जमनादास मेहता ने जिस अमेरिकी केस का जिक्र किया उसे छोड़ कर क्या दुनिया भर में भूख हड़ताल की कोई दूसरी मिसाल मिलती है। जो इंसान भूख हड़ताल करता है उसकी एक आत्मा होती है। उसे उसकी आत्मा झकझोरती है और उसे विश्वास रहता है कि उसके उद्देश्य में सच्चाई है। वह कोई आम अपराधी नहीं होता जिसने बेदर्द हत्याएँ की हों, घिनौने अपराध किए हों।

मैं फिर कहना चाहूँगा कि भगत सिंह ने जो कुछ किया मैं उससे सहमत नहीं हूँ और मैं इसे सदन के पटल पर कह रहा हूँ।

मुझे अफसोस है कि, सही हो या गलत आज भारत का नौजवान तबका आंदोलित हो चुका है। और जब देश की आबादी 30 करोड़ से ऊपर हो तो ऐसे अपराधों को रोका भी नहीं जा सकता, भले ही आप उनकी भर्त्सना करें और उन्हें भटके हुए लोग कहें।

लोग इस व्यवस्था, सरकार की इस घृणित व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश में हैं। आप सख्त तार्किक हो सकते हैं लेकिन मैं तो ठंडे दिमाग वाला इंसान हूँ। मैं सत्ता पक्ष को मनाने, प्रभावित करने के लिए बड़े ठंडे दिमाग से लंबे-लंबे भाषण कर सकता हूँ। लेकिन यह मत भूलिए कि सदन से बाहर हजारों नौजवान मौजूद हैं।

भारत अकेला देश नहीं है जहाँ ऐसी कार्रवाइयाँ चल रही हैं। ऐसा दूसरे देशों में भी हुआ है और नौजवानों ने नहीं अधेड़ों ने भी देशभक्ति से उद्वेलित होकर गंभीर जुर्म किए हैं। आयरलैंड के प्रधानमंत्री श्री कांग्रेव के साथ क्या हुआ। महामहिम की सरकार द्वारा जाकर शर्तें तैयार करने के निमंत्रण पाने के दो हफ्ते पूर्व उन्हें सजाए मौत सुनाई गयी थी। क्या वे नौजवान थे। कॉलिंस को आप क्या कहेंगे?

इसलिए ऐसे तर्क देने का कोई फायदा नहीं। समस्या आपके सामने है। समाधान आपको ढूँढना ही पड़ेगा लेकिन ऐसे आपराधिक कानून के बुनियादी सिद्धांतों की तह में जाकर आप बडे़ आराम से कह दें कि ‘‘वह तो ठीक है लेकिन यह तो कॉमन सेंस की बात है।’’

कानून कॉमन सेंस तो है लेकिन यह किसी एक व्यक्ति का कॉमन सेंस नहीं हो सकता।

अध्यक्षः मैं माननीय सदस्य से अनुरोध करूँगा कि वे अपना भाषण कल सुबह पूरा करें।

पंडित मदन मोहन मालवीयः सर, क्या हम और 15 मिनट नहीं बैठ सकते।

अध्यक्षः 15 मिनट बैठकर क्या फायदा होगा। सदन अगर 6 बजे तक बैठे तो बात अलग है लेकिन 15 मिनट बैठने का कोई फायदा नहीं।

(सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी गयी। अगले दिन जिन्ना ने अपना भाषण पूरा किया।)

सर, जब सदन की कार्यवाही स्थगित की गयी थी उस समय मैं बिल के संदर्भ में फौजदारी कानून के दृष्टिकोण से बोल रहा था और सदन का ध्यान इस ओर आकर्षित कर रहा था कि यदि बिल पास हो गया तो इस केस में चल रहे मुकदमे पर अथवा किसी भी अन्य केस पर इसका क्या असर पडे़गा।

जैसा कि मैंने कहा मुकदमा कानून का मजाक बनकर रह जाएगा।

जरा इस बिंदु पर और गौर करें। मुकदमा अभियुक्तों की गैर मौजूदगी में चलेगा। मैं होम मेम्बर से पूछना चाहूँगा कि क्या कोई जज अथवा जूरी है जो यह महसूस करे कि इस केस में वह कानून और इंसाफ का पालन कर रहे हैं।

बिल जैसे ही पास होता है, मुकदमा कोर्ट में पहुँच जाएगा और कहा जाएगा, ‘‘अभियुक्तों ने स्वयं कोर्ट में आने में असमर्थता जाहिर की है इसलिए अब कार्यवाही एकतरफा चलाई जा सकती है।

ध्यान रहे सर, एक विशेष परिस्थिति में शुरू से ही यह प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। अभियुक्त की याचिका ही दर्ज न होगी, चाहे वह मुजरिम हो या न हो। इसके बाद जज को जूरी का गठन करने को कहा जाएगा और जज जूरी बना देगा। न्यायपीठ पर जज होगा और उसके साथ जूरी। वे करेंगे क्या?

वे एकतरफा गवाही, मौखिक और लिखित दोनों ही सुनेंगे। मेरा सवाल होम मेम्बर से है, सदन से है, कि आप उस जज अथवा उस जूरी के बारे में क्या सोचेंगे, जो विधिवत रूप से गंभीरतापूर्वक बैठ कर हत्या के मुकदमे की सुनवाई का स्वाँग महामहिम की अदालत में भर रहे होंगे। इन परिस्थितियों में जूरी किस नतीजे पर पहुँचेगी इसका अंदाजा है आपको? कैदी पहले ही अपराधी बना दिया गया।

मैं समझता हूँ कि कोई भी जज जिसके पास विवेक है और इंसाफ का जरा भी ख्याल है, इस किस्म के मुकदमे का हिस्सा बनकर बिना अपनी ईमानदारी को ठेस पहुँचाए मौत की सजा नहीं सुना सकता।

यही वह तमाशा है जो आप इस प्रावधान के तहत खेलना चाहते हैं?

कोई ऐसा जज जिसमें ईमानदारी है और दिमागी मजबूती, विवेक है और आजादी भी तो वह निश्चित रूप से कहेगा, ‘‘यह ठीक है कि कानून का पालन होना चाहिए। मेरा कर्तव्य है कि मैं मुकदमे के एकतरफा चलने का आदेश दूँ, लेकिन यह इंसाफ के साथ खिलवाड़ होगा और मैं इसका भागीदार नहीं बन सकता। इसलिए मैं इस केस को अगले आदेश तक के लिए स्थगित करता हूँ।’’

क्या ऐसा आपने सोचा? मैं समझता हूँ कि नहीं सोचा। मुझे ऐसा लगता है कि ब्रिटिश न्याय शास्त्र के महान आधार आधारभूत सिद्धांत, जो कि आचार संहिता और फौजदारी कानून में शामिल किए गए हैं, के तहत इस देश के फौजदारी कानून तैयार करते समय बड़ी सूझबूझ का परिचय देते हुए ऐसे बकवास प्रावधान नहीं रखें।

होम मेम्बर ने कहा कि फौजदारी कानून का यह स्पष्ट सिद्धांत है कि जब तक जुर्म साबित न हो जाय तब तक व्यक्ति निर्दोष माना जाएगा। मैं उन्हें फौजदारी कानून और फौजदारी कानून ही क्यों दीवानी कानून का एक और बुनियादी सिद्धांत याद दिलाना चाहूँगा और वह यह कि किसी व्यक्ति को सुनवाई के बगैर सजा नहीं दी जा सकती।

सर, इसमें कोई शक की गुँजाइश नहीं कि हम एक ऐसे आधारभूत सिद्धांत पर विचार कर रहे हैं जिसे इस देश के फौजदारी कानून में शामिल किया जाना है। सचमुच यह एक क्रांतिकारी, अभूतपूर्व परिवर्तन है जो हमारे देश के फौजदारी कानून में किए जाने के लिए प्रस्तावित है।

मुझे मालूम है कि होम मेम्बर मुझसे कहेंगे, ‘‘हाँ यह सच है कि सिद्धांत कहता है कि सुनवाई के बगैर किसी को सजा नहीं दी जा सकती लेकिन यह तो अभियुक्तों का स्वयं का फैसला है, यदि किसी ने स्वयं तय कर लिया है कि वह सुनवाई नहीं करवाएगा तो यह उसकी गलती है।’’

सर, यह सवाल नया नहीं है। इंग्लैंड में इस सवाल पर गौर किया जा चुका है। एक पूरा इतिहास है इस सवाल का। और यदि आप इतिहास पर नजर डालें तो पाएँगे कि पुराने दिनों में कैदी की सुनवाई रिकॉर्ड करने में सख्त औपचारिकता बरती जाती थी। यदि कैदी खामोशी अख्तियार कर ले तो कोर्ट बुलाकर आरोपित किया जाता था और उससे सवाल किया जाता था कि उसने अपराध किया है या नहीं और उसे अपना पक्ष रखना ही पड़ता था।

ऐसी भी परिस्थितियाँ आयी हैं जब कैदी ने बोलने से इंकार कर दिया। ऐसी स्थिति में पुराने कानून के तहत (हालाँकि इंग्लैंड भी आधुनिकता की ओर बढ़ा है), कैदी को सजा दी जाती है चाहे मौत की सजा हो या कैद की।

ई. एल प्राइस (बम्बई, यूरोपियन) : यातना।

जिन्नाः मुझे खुशी है कि आपको पता है। मुझे मालूम है। मैं केवल यह कह रहा हूँ कि कैदी को कैदी की सजा या मौत की सजा सुनाई जाती थी। ऐसी स्थिति में जब मामला गंभीर समझा जाता था और कैदी की खामोशी उसे मौत या कैद की सजा दे सकती थी तो उसे यातना देकर बुलवाया जाता था।

इसी के साथ मेरे उन फाजिल दोस्त का सवाल जुड़ा हुआ है, जो शायद बार के मेम्बर भी हैं, कि कैदी को यातना दी जाती थी, यातना किस लिए? इसलिए कि वह मुंह खोले। इसलिए नहीं कि एकतरफा मुकदमा शुरू किया जाए।

अभी आप इस बिल के जरिए यहाँ यही करना चाहते हैं कि मुकदमा एकतरफा चले। एक समय पर पुराना कानून बदल दिया गया क्योंकि यातना के तरीके बड़े जालिम किस्म के थे और कई कैदी जान से हाथ धो बैठे थे। मैं स्टीफॅन के ‘हिस्ट्री ऑफ क्रिमनल लॉ’ से एक हिस्सा आपको सुनाना चाहूँगा।

‘‘यदि अपराध गंभीर स्वरूप का है तो कैदी को यातना दी जाती थी। खींच कर, नंगा कर के, सीधा लिटा कर, बर्दाश्त की हद से भी ज्यादा उस पर लोहे का वजन रख कर, हर दूसरे दिन उसे सड़ा हुआ खाना और गंदा पानी दे कर फिर यही प्रक्रिया दुहरा कर यातना पहुँचाई जाती थी। यह प्रक्रिया तब तक चलती थी जब तक कि कैदी मुँह न खोले या फिर दम न तोड़ दे।’’

लेकिन एकतरफा मुकदमा नहीं चलाया जाता था। इसके अलावा एक पुराना तरीका सत्य परीक्षा का था। इसे समाप्त कर दिया गया क्योंकि क़ैदी को जो कुछ कहना होता था उसका एक निश्चित तरीका था। उससे कहा जाता था कि वह कहे कि उस पर मुकदमा ‘‘ईश्वर और उसके देश के नाम पर’’ चलाया जाय। सत्य परीक्षा के आधार पर मुकदमा चलाने का यही तरीका था।

1827 में एक अध्यादेश के ज़रिए यह तरीका समाप्त कर दिया गया और कहा गया कि ऐसी परिस्थितियों में अपराध न स्वीकारा जाना समझा जाय। सर, इस अध्यादेश के पास होने के पहले का एक केस मैं सदन के सामने लाना चाहता हूँ जिससे यह पता चलेगा कि पुराने जमाने में भी स्वरूप और प्रक्रिया को कितना महत्व दिया जाता था।

मुझे मालूम है कि मेरे अजीज दोस्त सर डारसी लिंडसे कहेंगे कि ऐसे केस कॉमन सेंस द्वारा कोई एक व्यक्ति, जैसे कि वे स्वयं, सुलझा सकता है।

सर, मैं उन्हें कुछ याद दिलाना चाहूँगा, क्योंकि वे शांतिप्रिय व्यक्ति हैं। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे हम शांतिप्रिय हो भी जाते हैं और कॉमन सेंस अक्सर शांतिप्रिय दिमाग़ से ही आता है।

मैं उन्हें याद दिलाना चाहूँगा कि कानून कुछ और नहीं कॉमन सेंस का निचोड़ है, ज्ञान, सैकड़ों सदियों और पुश्तों के व्यवहार और अनुभवों का खुलासा है। शायद सदन मुझसे इस बात पर सहमत हो। सर जेम्स स्टीफन भी इस बात की तसदीक करेंगे कि यदि यह कानून कॉमन सेंस के निचोड़ के रूप में और सदियों के अनुभव की बुनियाद पर तैयार किए गए हैं तो आसानी से उनसे नाता नहीं तोड़ा जा सकता।

आज इस सदन में क्या चल रहा है? क्या हमारे पास और तरीके नहीं हैं और क्या हम उनका गुलामों की तरह पालन नहीं कर रहे हैं? किसी बाहरी के लिए यह तौर तरीके पहली नज़र में काफी बेतुके और कॉमन सेंस के खिलाफ मालूम होंगे।

यदि वक्ता और आपके बीच से यूँ ही कोई गुजर जाय तो उसे सदन के तौर तरीकों का उल्लंघन माना जायगा और आप फौरन उसे टोक देंगे। ऐसा क्यों? क्या इसकी कोई वजह नहीं, कोई मतलब नहीं। क्या ऐसा करने के पीछे पुराना कोई अनुभव नहीं। यह कॉमन सेंस क्या है? भला कोई बीच से गुज़र क्यों नहीं सकता।

इसलिए मेरा कहना है कि इन मामलों को सतही तौर पर न लिया जाय और यह न कहा जाय कि हम हर समस्या एक व्यक्ति के कॉमन सेंस से सुलझा लेंगे। जो उदाहरण मैं देने जा रहा था वह एक केस के रूप में हैः

‘‘मिस्टर पाइक ने कुछ दस्तावेज़़ पेश किए हैं जिनसे यह पता चलता है कि एडवर्ड प्रथम के दौर में जो लोग मुकदमे की प्रक्रिया से जुड़ने से इंकार करते थे, उन्हें फाँसी दे दी जाती थी।

.....

मुकदमे की प्रक्रिया से जुड़ने से इंकार करने वालों को फाँसी दे देना बेहतर है, बजाय इसके कि एकतरफा मुकदमे का स्वाँग रचा जाय।

‘‘. . .लेकिन यह तरीका उस अध्यादेश के खिलाफ था जिसमें ‘गंभीर अपराधों’ तथा उन अपराधों के लिए जो साफ-साफ घृणित हैं, उनके लिए यदि अपराधी राजा के न्यायालय में उपस्थित होने से मना करता है तो उसे कड़ी सजा दी जानी चाहिए।’’

इसके बाद एक ऐसे केस का उदाहरण दिया गया है जिसमें शायद सदन की रुचि हो।

‘‘ . . . लेकिन यह बात उन कैदियों पर लागू नहीं होती है जो कि किसी छोटे-मोटे संदेह के आधार पर पकड़े गये हैं। बैरिंगटन के अनुसार इसका अर्थ यह हुआ कि वे कैदी जो कि सुनवाई में आने से इन्कार करते हैं उन्हें भूखा रख कर मार दिया जाय लेकिन उन्हें यातना नहीं दी जाय। (जिसका अर्थ यह हुआ कि कानून में बदलाव लाया गया)। इसके बाद एक ऐसा उदाहरण दिया गया है जिसमें एडवर्ड-3 के काल में एक औरत को, जिसने जेल के अंदर बगैर खाना-पानी के 40 दिन गुजार दिये थे, माफ कर दिया गया, क्योंकि इसे एक चमत्कार माना गया।’’

सर, मैं जानता हूँ कि स्टीफन की ‘डाइजेस्ट ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर’ से एक हिस्सा इस सदन में उदाहरण के तौर पर पेश किया जा सकता है।

अजीब बात है कि भारत सरकार, जिसने सदन को 7 दिन का भी समय नहीं दिया और चाहती है कि यह सदन एक ऐसे सिद्धांत को सहमति दे जो अभूतपूर्व है, के पास स्टीफन का ‘लॉ ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर’ की एक ऐसी प्रति नहीं है जो 1883 के बाद प्रकाशित हुई हो।

और इस सदन से ऐसा कहा जा रहा है, ‘‘सरकार का मानना है कि गतिरोध की स्थिति पैदा कर दी गयी है, कानून बिखर चुका है और यह भी हो सकता है कि भारत सरकार भी गिर जाय। और इसलिए सांसदों से अनुरोध किया जा रहा है कि वे हमें बचायें।

हम मानते हैं कि यह अभूतपूर्व परिस्स्थिति है, हम जानते हैं कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, हमें यह भी मालूम है कि किसी न्याय शास्त्र में ऐसा पहले कभी कुछ नहीं देखा गया। लेकिन आप एक जिम्मेदार संस्था हैं, क्या आप इन चंद दिनों की नोटिस पर इस बिल को पास नहीं कर देंगे’’?

आपकी अपनी लाइब्रेरी में एक जानी-मानी कानून की किताब की 1883 के बाद की कोई प्रति मौजूद नहीं है। ऐसे में सदन से यह उम्मीद करना कि वह तुरत बिल पास कर दे, यह काफी बड़ी माँग है।

अब मैं वह हिस्सा पढ़ कर सुनाना चाहता हूँ जिसके यहाँ उद्धृत किये जाने की मुझे पूरी उम्मीद है। मैं सदन से अनुरोध करूँगा कि इससे वह बहकावे में न आये। लेकिन इससे पहले मैं लॉ मेम्बर से अनुरोध करूँगा कि मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ उस पर ध्यान दें। कानून की एक शाखा वह है जिसे अदालत की अवमानना कहा जाता है। हम जानते हैं कि इंग्लैण्ड में राजा की न्यायपीठ और भारत में उच्च न्यायालय का न्याय शास्त्र चार्टर के तहत तैयार हुआ है और इन्हें अदालत की अवमानना के मसलों में असीमित शक्ति हासिल है। यह कानून की एक ऐसी शाखा है जो कि विधिबद्ध भी नहीं है और न ही कोई अन्य कानून इस पर रोक लगा सकता है। अदालत की अवमानना के किसी भी केस के संदर्भ में हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जो बेहतर समझें, निर्णय ले सकते हैं। यह वह पक्ष है जो अदालत की अवमानना के कानून के सिद्धांत से ताल्लुक रखता है और इसमें भी एक तरफ न्यायालयों ने यह माना है कि अदालत की अवमानना के लिए दोषी व्यक्ति की सुनवाई न करने का अधिकार न्यायालय को है। लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि फौजदारी के केस में ऐसा कभी नहीं किया गया। मैं आपको यह हिस्सा पढ़ कर सुनाता हूँ:

‘‘यदि कोई कैदी दुर्व्यवहार करता नहीं दीखता तो यह उसका अधिकार है कि वह मुकदमे की सुनवाई के दौरान मौजूद रहे लेकिन आपराधिक रवैया दिखाने पर कोर्ट को यह अधिकार है कि ऐसे मामलों में, जिसमें हाई कोर्ट (महारानी की न्याय पीठ) में कैदी ने अभियोग स्वीकार किया है, मुकदमे की सुनवाई कैदी की गैरमौजूदगी में की जाय।’’

‘‘यदि कैदी इस प्रकार का व्यवहार करता है कि मुकदमे की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाना मुश्किल है तो कोर्ट को यह अधिकार है कि वह उसे कोर्ट से बाहर निकालने का हुक्म दे और उसकी गैर मौजूदगी में मुकदमा चलाये।’’

फुटनोट में कहा गया है:

‘‘मैंने ऐसी घटना न देखी है न सुनी है लेकिन लॉर्ड क्रैनवर्थ (उस समय राल्फ बी.) ने रश को, 1849 में नॉर्विच में हत्या के मुकदमे के दौरान धमकी दी कि यदि जिरह के दौरान उसने बदतमीजी जारी रखी तो उसे कोर्ट से निकाल दिया जायेगा। डॉर्चेस्टर में शी जे. के समक्ष एक चश्मदीद गवाह से मैंने सुना है कि एक कैदी (जिस पर पोर्टलैण्ड में एक वार्डर के कत्ल का मुकदमा चल रहा था) ने इतना आक्रामक रवैया अख्तियार कर लिया कि कैदी को जंजीरों से बांधना पड़ा। लेकिन उसे अदालत से बाहर नहीं ले जाया गया। जाहिर है कि सजा-ए-मौत अथवा सख्त सजा के किसी भी मुकदमे के दौरान कैदी को कोर्ट से बाहर ले जाने को छोड़ कर कोई भी तरीका अपनाया जा सकता है।’’

इस सिद्धांत की बुनियाद ही बिल्कुल अलग है और इसे समझने के लिए अधिक शब्दों की आवश्यकता नहीं है। सर, और अधिक कानूनी उदाहरण देकर मैं सदन को परेशान करने वाला नहीं हूँ। मेरा मानना है सरकार द्वारा इस बिल का लाया जाना एक राजनैतिक उद्देश्य रखता है लेकिन यदि सरकार का उद्देश्य इस केस से परे देश के आम हित में तथा न्यायपालिका चलाने के लिए कानूनी हथियार हासिल करना है, तो उन्हें अपने दिमाग से यह केस निकाल देना चाहिए। वे हमें बताएँ कि उन्होंने ऐसे हथियार की तलाश कर ली है और कुछ प्रावधान तैयार करना आवश्यक हो गया है। यदि वाकई उनका उद्देश्य यही है तो सीधा और ईमानदार तरीका यह होगा कि वह सदन के समक्ष आकर सारे तथ्य सामने रखें। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं नहीं मानता कि कोई ऐसा हथियार मौजूद है और देश के फौजदारी कानून में कोई ऐसा सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए। विशेषकर, जब कि दुनिया के किसी कोने में ऐसा कोई सिद्धांत मौजूद नहीं है। मैं यह मान सकता हूँ कि आप इस देश की जनता, कानून के हित में बड़ी ईमानदारी से यह विश्वास करते हों कि कुछ इस तरह के प्रावधान लाये जायें। यदि ऐसा है तो उपयुक्त तरीका यह होगा कि सोच-समझ कर धीरे-धीरे कदम बढ़ाया जाय। इस सदन से बाहर काफी समझदार लोग मौजूद हैं, उनकी राय मांगी जाय। इससे आपका क्या नुकसान है? लाहौर षड्यंत्र केस को भूल जाइये। लेकिन अगर आप यह मानते हैं कि इससे आपको दिक्कत पैदा होगी और आपको यह हथियार अभी और इसी वक्त चाहिए तो न तो मैं आपसे सहमत हूँ और न ही मैं आपको समर्थन देने वाला हूँ। आपने अपनी जो परेशानियाँ सदन के समक्ष रखी हैं मैं उनसे भी सहमत नहीं हूँ। मैं इस सदन में आज और अभी यह असीमित शक्तियाँ आपको नहीं दे सकता।

सर, भूख हड़ताल से ज़्यादा भयावह यातना का तरीका क्या आप सोच सकते हैं? गलत हो या सही, यदि यह लोग अपने को यातना देकर आपके लिए परेशानी