भारत रत्न सम्मान की विश्वसनीयता इसकी स्थापना के समय से ही सवालों के घेरे में है। वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार बता रहे हैं भारत रत्न का इतिहास और इसका विवादों से नाता और इस भारत रत्न से महामना मालवीय का सम्मान तो रत्ती भर नहीं बढ़ा, मोदी सरकार की राजनीति भले चमक गई हो।

भारत रत्न सम्मान की विश्वसनीयता इसकी स्थापना के पहले वर्ष से ही शून्य है। पहली बार 1954 में यह जिन तीन लोगों को दिया गया था, उनमें डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन उस समय देश के उपराष्ट्रपति थे। उनके ज्ञान, उनकी महानता, उनके योगदान पर कोई सवाल नहीं है, लेकिन भारत का उपराष्ट्रपति रहते किस सोच के तहत उन्हें भारत रत्न दे दिया गया?

विडंबना देखिए कि जिन महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के बनाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का उप-कुलपति रहते हुए डॉ. राधाकृष्णन की पहचान पुख्ता हुई, उन्हें राधाकृष्णन के 60 साल बाद 2014 में भारत रत्न दिया गया है। डॉ. राधाकृष्णन को जब यह सम्मान मिला, तब भारत को आज़ाद हुए महज सात साल हुए थे और राधाकृष्णन एक महान शिक्षाविद् और फिलॉस्फर ज़रूर थे, लेकिन आज़ादी की लड़ाई में उनका कोई योगदान नहीं था। राधाकृष्णन के उपराष्ट्रपति रहते उन्हें भारत रत्न मिला और राष्ट्रपति रहते उनके जन्मदिन को देश भर में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

शुरू में यह सम्मान मरणोपरांत देने की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, भारत की मौजूदा शक्ल-ओ-सूरत के आर्किटेक्ट सरदार वल्लभ भाई पटेल का नाम पहली लिस्ट में नहीं था, तो चलिए कोई बात नहीं। लेकिन जब 1955 में यह व्यवस्था कर दी गई तो दूसरी लिस्ट में उनका नाम क्यों नहीं था? तीसरी-चौथी-पांचवीं लिस्ट में भी उनका नाम क्यों नहीं आया? नेहरू, इंदिरा और राजीव के राज में यह सम्मान उन्हें आख़िरकार नहीं मिला। उन्हें यह सम्मान मिला मौत के 41 साल बाद 1991 में, जब भानुमति का पिटारा खुला।

बहरहाल, दूसरे साल 1955 में जिन तीन लोगों को भारत रत्न दिया गया, उनमें से एक पंडित जवाहर लाल नेहरू उस समय भारत के प्रधानमंत्री थे। नेहरू जी भी महान थे और उनके योगदान पर भी प्रश्नचिह्न खड़े करने का इरादा नहीं है, लेकिन सोचिए यह कौन-सी राजनीतिक नैतिकता थी कि सरकार में बैठे लोग ख़ुद ही पुरस्कार ले रहे थे।

1955 में जिन दूसरे महापुरुष लाला भगवान दास जी को भारत रत्न दिया गया, उन्होंने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया था और उनके अहम योगदानों में से एक वाराणसी में काशी विद्यापीठ की स्थापना करना था। फिर से विडंबना देखिए कि काशी विद्यापीठ की स्थापना करने वाले को 1955 में ही भारत रत्न दे दिया गया और उससे ज़्यादा बड़े ज़्यादा प्रतिष्ठित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करने वाले महामना मालवीय को 59 साल बाद 2014 में।

1957 में उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंत को भारत का गृह मंत्री रहते और 1961 में डॉ. विधानचंद्र राय को पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री रहते भारत रत्न दे दिया गया। इसी तरह डॉ. ज़ाकिर हुसैन को 1963 में उपराष्ट्रपति रहते भारत रत्न दे दिया गया। बाद में वे भारत के राष्ट्रपति भी बने। 1971 में इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते यह पुरस्कार ले लिया। यानी इस मामले में बिल्कुल अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के नक्शे कदम पर चलीं। अपनी सत्ता, अपना सम्मान।

ज़ाहिर है, भारत रत्न सम्मान की स्थापना के शुरू से ही इसके लिए चयन में न कोई नैतिकता थी, न कोई पैमाना था। जिन नेताओं को यह सम्मान मिला, उनके योगदान पर सवाल उठाने की हमारी मंशा नहीं है, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस के बड़े नेताओं को प्रभावशाली पदों पर रहते हुए भारत रत्न दिया गया, उससे मर्यादाएं टूटती हैं।

यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि आज़ादी की लड़ाई के जिन दीवानों को हम सबसे ज़्यादा जानते और मानते हैं, उन्हें यह सम्मान नहीं दिया गया। मसलन महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, राजगुरु, सुखदेव, खुदीराम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल आदि। रवींद्रनाथ टैगोर और प्रेमचंद जैसे बड़े साहित्यकारों को भी यह सम्मान नहीं दिया गया।

इसका एक मतलब यह निकाला जा सकता है कि शुरू में इस बात पर सहमति रही होगी कि आज़ादी से पहले के नेताओं और महापुरुषों को इस सम्मान से ऊपर और अलग रखा जाए। अगर ऐसा था तो ठीक था, लेकिन 1990 और उसके बाद गैर-कांग्रेसी सरकारों ने चुन-चुनकर उन नामों को उछालना शुरू किया, जिन्हें गुज़रे कई साल नहीं, कई दशक बीत चुके थे। इससे खेल और हास्यास्पद हो गया।

1990 में वीपी सिंह की सरकार ने भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर को उनकी मृत्यु के 34 साल बाद भारत रत्न देने का एलान कर दिया। डॉ. अंबेडकर निश्चित रूप से भारत रत्न हैं और कांग्रेस ने उन्हें यह सम्मान नहीं देकर अक्षम्य बदमाशी की थी, लेकिन मृत्यु के 34 साल बाद उन्हें यह सम्मान दिये जाने से भानुमति का पिटारा खुल गया।

1991 में लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को मृत्यु के 41 साल बाद और 1992 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को मृत्यु के 34 साल बाद यह सम्मान मिला। 1997 में गुलज़ारी लाल नंदा को जीते जी और अरुणा आसफ अली को मरणोपरांत यह सम्मान दिया गया, लेकिन तब तक दोनों को ही सक्रिय राजनीति से अलग हुए करीब 30 साल हो चुके थे और जनता को उनके योगदानों के बारे में याद दिलाना पड़ रहा था।

1999 में संपूर्ण क्रांति के नायक जयप्रकाश नारायण को उनकी मृत्यु के 20 साल बाद और असम के पहले मुख्यमंत्री गोपीनाथ बोरदोलोई को उनके देहांत के 49 साल बाद यह सम्मान दिया गया। और अब तो हद ही हो गई। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय को मृत्यु के 68 साल बाद यह सम्मान दिया गया है।

भारत रत्न प्राप्त 45 महापुरुषों की सूची में पंडित मालवीय अकेले ऐसे महापुरुष बन गए हैं, जिनका देश की आज़ादी से पहले ही देहांत हो चुका था। उनकी मौत के 27 साल बाद पैदा हुए सचिन तेंदुलकर को उनसे एक साल पहले ही यह सम्मान दिया जा चुका है। साफ़ है कि इस भारत रत्न से महामना मालवीय का सम्मान तो रत्ती भर नहीं बढ़ा, मोदी सरकार की राजनीति भले चमक गई हो।

इतना ही नहीं, जब अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उन्हें भारत रत्न का एलान हुआ है तो मीडिया में अटल जी ही छाए हुए हैं। उन्हें 95 प्रतिशत और मालवीय जी को सिर्फ़ 5 प्रतिशत कवरेज मिल रहा है। हर कोई अटल जी पर बात करके राजनीति स्कोर करने में जुटा है और मालवीय जी को भारत रत्न दिये जाने पर रामचंद्र गुहा जैसे कई लोग सवाल उठा रहे हैं।

साफ़ है कि मोदी जी ने अपने लोकसभा क्षेत्र की राजनीति के चक्कर में मालवीय जी को ही बिसात पर बिछा दिया। पहले उन्होंने मालवीय जी के पोते को चुनाव में अपना प्रस्तावक बनाया, अब मालवीय जी को भारत रत्न दे दिया। दरअसल वाराणसी के कृतज्ञ लोगों में मालवीय जी के लिए अपरम्पार श्रद्धा है। उनके नाम के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाला “हिन्दू” भी जुड़ा है। वे जाति के नेता नहीं थे, लेकिन नाम में “पंडित” और “मालवीय” तो लगा ही है। उनकी तस्वीरों में उनके ललाट पर चंदन का गोल टीका भी लगा हुआ दिखाई देता है। अटल जी की ही तरह उनका भी जन्मदिन क्रिसमस के दिन यानी 25 दिसंबर को ही पड़ता है। मृत्यु के 68 साल बाद सम्मान के पीछे की सियासत शायद आप समझ रहे होंगे!

भारत रत्न का मखौल उड़ाने वाले और भी विवाद हैं। दो बार तो यह सम्मान ऐसे लोगों को दे दिया गया, जो भारत के थे ही नहीं। खान अब्दुल गफ्फार खान सीमांत गांधी ज़रूर कहलाए, लेकिन देश के बंटवारे के वक़्त पाकिस्तान चले गए थे। उन्हें 1987 में पाकिस्तानी नागरिक रहते यह सम्मान दिया गया। भारत में रहते, भारत के लिए काम करते, तो बात समझ में आती। जब पाकिस्तान चले गए तो क्या तुक थी? कौन-से उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच के विवाद सुलझा दिए, युद्ध समाप्त करा दिए और दोस्ती करा दी!

इसी तरह 1990 में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद-विरोधी आंदोलन के अगुवा डॉ. नेल्सन मंडेला को भी भारत-रत्न दिया गया। भारत रत्न नाम से ही ज़ाहिर होता है कि यह सम्मान विदेशी महापुरुषों के लिए नहीं है। और अगर है, तो सिर्फ़ नेल्सन मंडेला क्यों? और भी बहुत सारे महापुरुष थे और हैं दुनिया भर में। अगर दुनिया के नेताओं को सम्मानित ही करना है तो चोर-दरवाज़ा क्यों? दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र
दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार कायम करे और हर साल दुनिया के किसी सबसे बड़े नेता या कंट्रीब्यूटर को दे। क्या भारत की हैसियत नहीं है नोबेल से बड़ा पुरस्कार कायम करने की?

लब्बोलुआब यह कि जिसकी भी सरकार होती है, वह भारत रत्न का राजनीतिक इस्तेमाल शुरू कर देता है। हमारा कहना है कि यह राजनीति बंद होनी चाहिए। इसके लिए एक निश्चित पैमाना हो-

1. प्रभावशाली सरकारी पदों पर रहते हुए किसी को यह सम्मान न दिया जाए। आदर्श स्थिति यह है कि व्यक्ति चाहे राजनीति में हो या किसी अन्य क्षेत्र में, जब वह रिटायर हो जाए, उसके बाद ही उसे यह सम्मान दिया जाए।

2. मरणोपरांत सम्मान के लिए पांच साल की बंदिश हो। जिन्हें भी सम्मान देना हो, मृत्यु के पांच साल के भीतर दे दिया जाए, ताकि इसकी सार्थकता और औचित्य बना रहे। मरने के 68 साल बाद किसी को इस तरह के सम्मान दिये जाते हैं क्या? ऐसे महापुरुषों के लिए अगर इतनी ही श्रद्धा हो तो उनके नाम पर सड़कें बना दीजिए, शहर बसा दीजिए, स्कूल-कॉलेज-अस्पताल खोल दीजिए, योजनाएं चला दीजिए, लेकिन उनके
पोतों-पड़पोतों को पुरस्कृत करने का धंधा तो मत कीजिए प्लीज़।

3. भानुमति का पिटारा बंद हो। हो सके तो सर्वदलीय सहमति के आधार पर इतिहासकारों का एक पैनल बनाकर आज़ादी से पहले के तमाम महापुरुषों की एक सूची तैयार कर लीजिए और एलान कर दीजिए कि देश इनके प्रति कृतज्ञ है और इनके योगदान को किसी भी सम्मान से ऊपर मानता है। वरना आज महामना का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है, कल झांसी की रानी, वीर कुंवर सिंह, तात्या टोपे, बहादुर शाह ज़फर और राजा राममोहन राय तक भी बात जाएगी। उससे पहले महाकवि तुलसीदास, बाबा कबीरदास और संत रविदास को क्यों छोड़ दें? भारत की धरती क्या रत्नों से सूनी रही है कभी?

4. भारत रत्न का चयन न तो चुनाव के टिकट का वितरण है, न ही ट्रांसफर-पोस्टिंग का खेल कि इसका फ़ैसला भी महापुरुषों का राजनीतिक रुझान देखकर किया जाए। अगर इस सम्मान की गरिमा बहाल करनी है, तो पार्टी और झंडा देखना बंद देखिए। सिर्फ़ देश के लिए योगदान देखिए।

5. सम्मान हर क्षेत्र में दीजिए। यह न हो कि अमुक क्षेत्र में नहीं देते, तमुक क्षेत्र में नहीं देते। ऐसा ही बोल-बोल कर मेजर ध्यानचंद जैसे हॉकी के जादूगर को छोड़ दिया और सचिन तेंदुलकर जैसे क्रिकेट के कलाकार को दे दिया। शेम शेम शेम। हम तो सोच-सोच कर ही सिहर उठते हैं उन सरकारों के विवेक पर, जो टीआरपी-लोलुप टीवी चैनलों के दबाव में सचिन को तो भारत रत्न दे देती हैं और मेजर की मौत के 35 साल बाद डिबेट करती हैं कि दें कि न दें।

6. जैसे पद्मविभूषण, पद्मभूषण और पद्मश्री हर साल दिये जाते हैं, वैसे ही भारत रत्न भी हर साल दिया जाए। थोक में मत बांटिए। एक को ही दीजिए, लेकिन हर साल दीजिए। जब इन चारों सम्मानों की अवधारणा एक है, सिर्फ़ लेयर्स अलग हैं, तो चारों का एलान एक साथ हो। सुविधानुसार एलान की सियासत बंद हो।

7. हो सके तो भारत रत्न के चुनाव में जनता की राय लीजिए। देश के लोगों को तय करने दीजिए कि कौन भारत रत्न है और कौन नहीं।
कुल मिलाकर, हमारी चिंता सिर्फ़ इतनी है कि भारत रत्न जैसे सम्मान को लेकर न विवाद होने चाहिए, न तमाशा होना चाहिए, न राजनीति होनी चाहिए। अभी हमारे लिए इस सम्मान की विश्वसनीयता शून्य है। सॉरी!

अभिरंजन कुमार, लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं, आर्यन टीवी में कार्यकारी संपादक रहे हैं।