श्रद्धेय मोदीजी, अच्छे दिनों में किसान खेतों की बजाए सड़क पर क्यों है ?
श्रद्धेय मोदीजी, अच्छे दिनों में किसान खेतों की बजाए सड़क पर क्यों है ?

जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं, एहसानफरामोशी के इस मुहावरे को सरकार के लिए यूं बदल सकते हैं कि जिस किसान का दिया खाते हैं, उसे ही आत्महत्या करने पर मजबूर करते हैं।
किसानों के हाथों में हल होने चाहिए या विकास की भाषा में बात करें तो ट्रैक्टर का स्टीयरिंग होना चाहिए, कि झंडे? उन्हें खेतों में बुआई, जुताई, सिंचाई करने में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए या सड़क पर मोर्चा निकालने में? फसल काटते किसान की तस्वीर भारत के नक्शे पर होनी चाहिए या फांसी के फंदे पर लटकते किसान की?
ये सारे सवाल आज इसलिए उठाने पड़ रहे हैं क्योंकि देश का अन्नदाता बार-बार लगातार सड़कों पर उतर कर अपनी मांगों को चिल्ला-चिल्ला कर सरकार के सामने रख रहा है और सरकार न जाने विकास का कौन सा संगीत सुनने में रमी हुई है कि उसे इन किसानों की आह सुनाई ही नहीं पड़ रही है। जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं, एहसानफरामोशी के इस मुहावरे को सरकार के लिए यूं बदल सकते हैं कि जिस किसान का दिया खाते हैं, उसे ही आत्महत्या करने पर मजबूर करते हैं।
केंद्र सरकार का बजट हो या राज्य सरकार का, किसानों की कर्जमाफी का ऐलान तो यूं किया जाता है, मानो उनके कुछ हजार रुपए वसूल न करके आप बड़ा एहसान कर रहे हों। कर्जमाफी हो या न्यूनतम समर्थन मूल्य, ऐसी घोषणाओं का कोई लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है, तभी देश के विभिन्न प्रांतों में किसान बार-बार मोर्चा निकालने, आंदोलन करने पर मजबूर हो रहे हैं।
बीते कुछ महीनों में हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, राजस्थान, मध्यप्रदेश इन तमाम राज्यों में किसानों ने आंदोलन किए हैं। मध्यप्रदेश के सिवनी में पिछले 10 दिनों से मुआवजे की मांग कर रहे किसान भूख हड़ताल पर हैं। लेकिन सरकार की ओर से अब तक कोई ठोस फैसला नहीं लिया गया है।
महाराष्ट्र में भारतीय किसान संघ के बैनर तले हजारों किसानों का मोर्चा नासिक से मुंबई के लिए निकला है। 12 मार्च को ये किसान विधानसभा का घेराव करेंगे, ताकि सरकार तक उनकी आवाज पहुंच सके। इस मार्च में शामिल किसानों का कहना है कि पिछले 9 महीनों में डेढ़ हज़ार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है और सरकार सुनने को तैयार नहीं है। शिवसेना महाराष्ट्र सरकार में भाजपा की भागीदार है, लेकिन उसने भी आंदोलनरत किसानों के समर्थन का ऐलान किया है।
किसानों की मांग है कि बीते साल 34000 करोड़ की कर्ज़ माफी का जो वादा फड़नवीस सरकार ने किसानों से किया था उसे पूरी तरह से लागू किया जाए। इसके अलावा किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को भी पूरी तरह लागू करवाना चाहते हैं इन सिफारिशों के अनुसार सी 2+50 प्रतिशत यानी कॉस्ट ऑफ कल्टिवेशन (यानी खेती में होने वाले खर्चे) के साथ-साथ उसका पचास प्रतिशत और दाम समर्थन मूल्य के तौर पर मिलना चाहिए। किसान नेता मानते हैं कि ऐसा करने पर किसानों की आय की स्थिति को सुधारा जा सकता है।
मोर्चे में आदिवासी किसानों की संख्या बहुत ज्यादा है। ये किसान आदिवासी वनभूमि के आवंटन से जुड़ी समस्याओं के निपटारे की भी मांग कर रहे हैं ताकि उन्हें उनकी जमीनों का मालिकाना हक मिल सके।
नासिक क्षेत्र में जनजातीय भूमि वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है. यहां किसान आदिवासी हैं और वो खेती करते हैं लेकिन उनके पास इन ज़मीनों का मालिकाना हक नहीं है। इसीलिए आदिवासी अपनी उस जमीन पर अपना हक मांग रहे हैं जिसकी वो पूजा करते हैं।
किसानों की यह मांग भी है कि महाराष्ट्र के ज्यादातर किसान फसल बर्बाद होने के चलते बिजली बिल नहीं चुका पाते हैं। इसलिए उन्हें बिजली बिल में छूट दी जाए।
इन मांगों में एक मांग भी ऐसी नहीं है, जो गलत हो या किसी को नुकसान पहुंचाने वाली हो। किसान केवल अपने लिए थोड़ी सहूलियत चाहते हैं ताकि उन्हें आत्महत्या की राह न चुनना पड़े। इनके पास तो नीरव मोदी और मेहुल चौकसी जैसी बदनीयती और दुस्साहस भी नहीं है कि वे बैंक लूट कर जाएं और धमकी भी दें कि हम पैसे वापस नहीं करने वाले। कर्ज में डूबा किसान तो मुक्ति की राह फांसी के फंदे से ही तलाशता है।
सरकार ताकतवर लुटेरों का तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, लेकिन कमजोर किसानों पर अपनी धौंस दिखाने से पीछे नहीं हटती। यही कारण है कि अब धूप, गर्मी, भूख-प्यास की परवाह किए बगैर हजारों किसान कई किलोमीटर के पैदल मार्च पर महिलाओं और वृद्धों के साथ निकल गए हैं, ताकि वे भी सरकार को अपनी ताकत दिखा सकें। संविधान के अनुसार कृषि राज्य का विषय है। लेकिन इस दिशा में जो भी महत्वपूर्ण $फैसले होते हैं वो केंद्र सरकार करती है। महाराष्ट्र और केंद्र दोनों में इस वक्त भाजपा की सरकार है, देखते हैं उस पर इस मार्च का कोई असर पड़ता है या नहीं।


