संगीनो के साए में खाकी वर्दी
संगीनो के साए में खाकी वर्दी
कपिल शर्मा
हम पुलिस वाले खाकी पहने वो गुंडे है जो मासूमों और कमजोरों पर ही अपना जोर दिखा पाते है, हमसे अच्छा तो म्यूनिसिपालिटी का वह लेबर है जो हमारी तरह ही खाकी वर्दी पहनता है लेकिन शहर की गंदगी तो साफ करता है। खाकी फिल्म में पुलिस अधिकारी बने अमिताभ बच्चन का यह डॉयलाग पुलिसिया कार्यप्रणाली के मौजूदा तरीकों पर एकदम फिट बैठता है।
आम नागरिक को लात, घूसों और थप्पड़ों की बोली समझाने वाली पुलिस के काम करने का तरीका तो वैसे हमेशा से ही सवालों के घेरे में रहा हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों के दौरान खाकी का रौब आम आदमी के लिए दिल दहला देने वाला रहा है।
गुजरात में सोहराबुद्रदीन फर्जी मुठभेड़, देहरादून में गाजियाबाद के इंजीनियरिंग छात्र की फर्जी मुठभेड़ में हत्या , हरियाणा का रुचिका गहरोत्रा केस, लखीमपुर का सोनम हत्याकांड, अलीगढ़ व झांसी के थानों में लड़कियों के साथ बलात्कार या बिहार के फारबिसगंज में आम नागरिकों पर पुलिसया फायंरिग। इन सभी घटनाओं में पुलिसिया तांडव ने मीडिया की खबरों में काफी जगह बनाई है।
गौर करे तो इन घटनाओं के पोस्टमार्टम से एक ओर पुलिस पहले से ज्यादा गैर जिम्मेदार और अंसवेदनशील दिखती है। तो वहीं दूसरी ओर आम आदमी की रक्षा का दम भरने वाली खाकी वर्दी राजनेताओं, और रसूखदारों की दरबान बन कर रह गई है। राजनैतिक आकाओं को बचाने के लिए लखनउ का डिप्टी सीएमओ हत्याकांड और आईबीएन 7 की टीम पर पुलिसया हमला इसका ताजा उदाहरण है।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यौरों एनसीआबी के आंकड़ो को देखे तो पता चलता है कि 2005 से 2009 के मध्य पुलिस प्रताड़ना ,पूछताछ के नाम पर थर्ड डिग्री, फर्जी मुठभेड़ में मार गिराना, फर्जी केस में सलाखों के पीछे कर देना, पैसे लेकर मामले को रफा-दफा कर देना, रसूखदारों को बचाने के लिए उल्टा केस बनाने की 2,79,961 शिकायतें पुलिस कर्मियों के खिलाफ दर्ज हुई थी। इनमे वो मामले शामिल नहीं है जो सामने नहीं आये थे। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इतनी भारी संख्या में शिकायतें मिलने के बावजूद 2005 से 2009 के मध्य केवल 20,674 शिकायतों पर ही पुलिस कर्मियों के खिलाफ चार्जशीट फाइल की गई।
इन आंकड़ों को देखने के बाद अब सवाल उठता है कि जब लोकंतत्र का आम नागरिक पुलिस से ही सुरक्षित नहीं है तो अपनी सुरक्षा का रोना किसके सामने जाकर रोएगा।
पुलिस सुधार आयोग और विभिन्न कार्यदलों का गठन कर सरकार ने पहले भी पुलिस सुधार के लिए खिचड़ी पकाई है। लेकिन हालात जस के तस ही रहे है।
वैसे तो न्यायपालिका के इतर केन्द्रीय सतर्कता आयोग, राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोग , महिला आयोग, एससी एसटी आयोग, लोक शिकायत निवारण आयोग, जनहित याचिका आम नागरिकों को पुलिस प्रताड़ना के खिलाफ आवाज उठाने के लिए बनाए गए है । लेकिन पुलिस महकमे के खिलाफ अपने मानवाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ना कितना कठिन है ये एनसीआरबी के निम्न आंकड़ो को देखने से पता चलता है। 2005-09 के मध्य 2,79,961 शिकायतों के मिलने के बाद 1965 मामलों में मजिस्टेट स्तर पर व 1546 मामलों में न्यायिक;ज्यूडिशियलद्ध स्तर पर जांच शुरु हुई। इन जांच प्रकियाओं के उपरांत केवल 8527 पुलिस कर्मी ही ट्रायल के लिए भेजे गये। इनमें से भी 738 पुलिस कर्मियों का ही ट्रायल पूरा हो पाया जिसमें से केवल 240 पुलिस कर्मियों को ही सजा हुई। इतनी ज्यादा शिकायतों में इतने कम पुलिसकर्मी ही दोषी बन पाते है तो पुलिस अत्याचार के खिलाफ उठती आवाज अपने आप ही गायब सी नजर आती है। ऐसे में दाल-रोटी के लिए रोज जिंदगी से लड़ने वाला आम भारतीय नागरिक पुलिसया डंडा खाकर चुप बैठने में ही अपनी भलाई समझता है, आवाज उठाने में नही।
कारण साफ है आजादी के बाद के साठ सालों में पुलिस सुधार के नाम पर केवल खानापूर्ति ही हुई है। पुलिस के खिलाफ न्यायपालिका की गुहार जहां काफी मंहगी, उलझाउ और सालों साल चलने वाली है। वहीं अन्य एंजेसियों का अपना ही संगठन इतना लचर है कि पुलिस के भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करना उनके लिए दूर की कौड़ी है। सैकड़ो की संख्या में मिलने वाले शिकायत पत्र यहां रद्रदी के तौर सालों साल जमा होते रहते है। मीडिया में मामला आ जाने के बाद अगर किसी मामले में ये एंजेसिया अपनी कार्यवाही शुरु भी कर देती है तो भी कार्यवाही का भविष्य अधर में ही लटका रहता है।
अगर केन्द्र और राज्य सरकारें आज भी पुलिस सुधार को लेकर गंभीर है तो प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया माध्यमों से पुलिसिया कार्यवाही के दौरान आम नागरिकों के अधिकारों को व्यापक प्रचार व प्रसार किया जाए। साथ ही पुलिस थानों के बाहर आम नागरिकों की जानकारी के लिए पुलिस अधिकारों से संबधित बोर्ड या चार्टर लगवाए जाएं ताकि आम नागरिक को पुलिस थाने के अंदर अपने अधिकार मालूम हो और वहीं दूसरी ओर पुलिस अधिकारी को भी मालूम हो कि उसकी किस सीमाएं क्या है। वैसे यह कोई बहुत सशक्त कदम नहीं है जिससे पुलिस सुधार हो जाएगा लेकिन इतना जरुर है कि आम आदमी पुलिस के साएं में जीना सीख जाएगा।
कपिल शर्मा
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