" संघ का अखंड भारत " और भारत में साम्प्रदायिकता किसी भी विचारधारा में प्रतीकों का महत्त्व किसी से छिपा हुआ नहीं है , ये प्रतीक ही विचारधारा को आम जनमानस के बीच लोकप्रिय बनाने में बौद्धिक और बहुजन के बीच सेतु का काम करते हैं किन्तु तब क्या हो , जब ऐसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को प्रतीक के रूप में किसी विचारधारा के उग्र प्रचार हेतु इस्तेमाल किया जाने लगे जिनका पूरा जीवन और व्यक्तित्व ही उस विचारधारा के उलट काम करने में खपा हो। भारत में साम्प्रदायिकता को बौद्धिक और सामाजिक रूप से ढांचागत स्वरुप देने में आज़ादी से भी बहुत साल पहले से लगे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समय समय पर बदलते और कुछ स्थायी नायकों और उनके उन्मादी इस्तेमाल पर एक पैनी नजर डालना बहुत जरुरी है कि आखिर किस साफगोई से संघ उन्हें अपने मुताबिक विराट हिन्दू नायक के रूप मे प्रचारित कर सकता है। इस सिलसिले में तीन व्यक्तित्व " संघ का अखंड भारत " और हिंदुत्व की कल्पना को साकार करने में आजकल प्रमुख हैं। शिवाजी महाराज, सरदार पटेल और बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ये तीन ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनका प्रयोग संघ हिंदुत्व की भट्टी में नयी आग पैदा करने के लिए लगातार कर रहा है। इनमे शिवाजी और सरदार पटेल तथ्यों व प्रमाणों को दरकिनार करके काफी सालों से हिन्दू नायक के रूप में प्रचारित किये गए हैं जबकि डॉ अम्बेडकर को आज़ादी मिलने के चार दशक बाद तक पूरी शिद्दत से समाज तोड़ने वाला कहने वाले संघ द्वारा कांशीराम की बामसेफ और बसपा के पूरे भारत में एक हिंदुत्व विरोधी राजनीतिक ताकत के रूप में फ़ैल जाने के बाद से ही बाबा साहब के व्यक्तित्व को अपने एजेंडा के हिसाब से प्रचारित करने का प्रयास संघ द्वारा किया जा रहा है। भारत में साम्प्रदायिकता पर विमर्श का दायरा पश्चिम की प्रकार्यवादी संकल्पना के आधार पर धर्म तक सीमित कर देने का जो नुकसान हुआ वह हमें सेकुलरिज्म शब्द के जरिये वोटों के दोहन और खोखले वादों के रूप में देखने को मिलता है।

इस संकल्पना का इस्तेमाल संघ द्वारा भारतीय समाज की विभेदकारी संस्था, जाति और उसके अंतर्धार्मिक प्रभाव को नकारने या यूँ कहें कि छिपाने के लिए लगातार किया गया। यहाँ यह समझना भी जरूरी है कि कैसे खुद को सेकुलरिज्म का झंडाबरदार कहने वाले वाममोर्चा और संघ के बीच साम्प्रदायिकता के विमर्श में जाति को एक प्रभावी कारक के रूप में मान्यता न देने पर एक न्यूनतम सहमति बनी रहती है। जाति का अंतर्धार्मिक स्वरुप महज भारत ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई समाज की विशेषता है, जहाँ आम जन के सरोकार धर्म से ज्यादा उसकी जातीय पृष्ठभूमि से तय होते हैं। इसके बावजूद लम्बे समय तक भारत में धर्म को साम्प्रदायिकता के एक मात्र कारक के रूप में विश्लेषित करना कहीं न कहीं अकादमिक धूर्तता का द्योतक है। अब जबकि यह तथ्य उजागर हो चुका है कि भारत में साम्प्रदायिकता बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक नहीं बल्कि सवर्ण बहुसंख्यक बनाम सवर्ण अल्पसंख्यक के हितों का टकराव का परिणाम होता है , तो इसे अकादमिक विमर्शों में पूरी संजीदगी से स्थापित करने की जरूरत है।

दरअसल संघ के इतिहास और समाज की हिंदूवादी व्याख्या का मुकाबला उसके समानांतर एक संगठित प्रचार से ही किया जा सकता है । बामसेफ जैसे संगठन ने पूरे भारत में शिवाजी,शाहू जी महाराज, ज्योतिबा फुले, सावित्री फुले जैसे बहुजन नायकों को घर-घर तक पहुँचाया बल्कि उनकी जाति विरोधी विचारधारा से भी लोगों का परिचय कराया। गोविन्द पानसरे ने शिवाजी के व्यक्तित्व का संघ द्वारा निर्मित प्रतीक के प्रतिकार में ही "शिवाजी कोण होता " जैसी प्रामाणिक पुस्तक लिखी और आखिर में इस संघर्ष में अपना बलिदान भी दिया। यह समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है कि उसके सामने आक्रामक तरीके से प्रस्तुत किये जा रहे प्रतीकों का प्रतिबिम्ब भी वह देखे और यह तय करे कि असलियत क्या है। सामूहिक चेतना का निर्माण कुछ दिन या महीनों में नहीं हो सकता है, यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है,जिसका असर वर्षों बाद देखने को मिलता है। कांशीराम ने इस प्रक्रिया को पहचाना था और इसीलिए उनकी हर रणनीति में महज कुर्सी नहीं बल्कि सांस्कृतिक चेतना भी शामिल रहती थी। गोविन्द पानसरे की शहादत इस बात की फिर से तस्दीक करती है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था सत्ता छिन जाने से ज्यादा सत्ता तक पहुँचाने वाले ढाँचे पर चोट करने वाले व्यक्ति से घबराती है। जुमलों और झूठे प्रचार के इस दौर में इसी बात की जरूरत सबसे ज्यादा है कि व्यक्तिवादी आलोचना की बजाय उस ढाँचे पर चोट की जाए जो सांप्रदायिक सत्ता का मार्ग प्रशस्त करती है, तभी संवैधानिक मूल्यों से निर्मित समाज की संकल्पना मूर्त रूप ले सकेगी। दिव्यांशु पटेल