संघ के राज में तो आरक्षण पर तो गोली दगनी ही दगनी है
संघ के राज में तो आरक्षण पर तो गोली दगनी ही दगनी है
अब तेरा क्या होगा रे आरक्षण!
राजेंद्र शर्मा
यह फिल्म शोले का चालीसवां साल ही नहीं, मोदी सरकार का दूसरा साल भी है। धर्मनिरपेक्षता की ही तरह, आरक्षण की भी गत शोले के कालिया वाली होनी ही थी। संघ परिवार, सरदार के रोल में है और एक साथ दोनों से पूछ रहा है-तेरा क्या होगा रे कालिया! नमक खाने की दुहाई दें तब भी, आगे खाने को गोली ही मिलने वाली है।
यह भी सिर्फ संयोग नहीं हो सकता है कि आरक्षण की व्यवस्था की वैधता को ही चुनौती दिए जाने ताजातरीन चक्र की शुरूआत भी गुजरात से ही हुई है। विडंबनापूर्ण यह है कि यह शुरूआत, प्रकटत: आरक्षण की मांग के रूप में सामने आयी। हार्दिक पटेल के नेतृत्व में गुजरात के ताकतवर पटेल समुदाय ने, जिसकी गुजरात में 1981 तथा 1985 के आरक्षणविरोधी आंदोलन में अग्रणी भूमिका रही थी, जब अप्रत्याशित रूप से उग्रता से अपने लिए आरक्षण की मांग उठायी, तो उसके साथ दूसरा विकल्प भी जोडऩा जरूरी समझा। या तो पटेल समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में शामिल करो या फिर, आरक्षण की खत्म कर दो!
हार्दिक पटेल के अनमत आंदोलन की प्रत्यक्षत: आरक्षण की मांग के बावजूद, इस आंदोलन की गुजरात में धमाकेदार एंट्री के समय ही अनेक टिप्पणीकारों ने रेखांकित किया था कि यह आरक्षण के ही विरोध को हवा देगा। इस पूर्वानुमान को सौ फीसद सही साबित करते हुए, इस आंदोलन की चर्चित अहमदाबाद रैली के दो महीने के अंंदर-अंदर, राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक, मोहन भागवत आरएसएस के मुखपत्रों, ऑर्गनाइजर तथा पांचजन्य को दिए साक्षात्कार में बाकायदा, आरक्षण की व्यवस्था पर ही पुनर्विचार करने की मांग पेश कर चुके थे। उन्होंने शिकायत की कि आरक्षण, राजनीतिक हथियार बन गया है। इसका उपचार यह है कि, एक गैर-राजनीतिक कमेटी का गठन किया जाए, जो इसका फैसला करे कि किसे आरक्षण दिया जाए और कब तक!
बेशक, उसके बाद बिहार के चुनाव की चिंता से न सिर्फ भाजपा को इस विचार से खुद को साफ तौर पर अलग करना पड़ा और नरेंद्र मोदी की सरकार को इसका एलान भी करना पड़ा कि वह आरक्षण पर किसी पुनर्विचार के पक्ष में नहीं है, खुद आरएसएस को भी हड़बड़ी में यह कहकर पांव पीछे खींचने पड़े कि भागवत ने जो कुछ कहा, मौजूदा आरक्षणों से उसका कोई संबंध ही नहीं था। बहरहाल, बिहार के चुनाव के लिए यह कार्यनीतिक पैंतरेबाजी अपनी जगह, आरएसएस प्रमुख के बयान ने संघ परिवार और उससे बाहर भी, आरक्षणविरोधी पुकारों को तो हवा दे ही दी। मिसाल के तौर पर न सिर्फ विश्व हिंदू परिषद ने, भाजपा और आरएसएस की भी मजबूरियों से अपने मुक्त होने का सबूत पेश करते हुए, भागवत की मूल मांग को ही आगे बढ़ाते हुए, आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा के लिए न्यायिक आयोग के गठन की मांग उठा दी बल्कि शिव सेना ने भागवत के बयान से खुद को अलग दिखाने के ‘समझौतावाद’ के लिए भाजपा की खिंचाई भी कर डाली। जाहिर है कि आगे-आगे आरक्षण के ही विरोध के ये स्वर और तेज हो जाने वाले हैं।
इसी बीच, पटेल आंदोलन की ही तरह, आरक्षण का नाम लेकर, आरक्षण की व्यवस्था के ही निपटाए जाने का एक और खेल भी शुरू हो गया है। अचरज नहीं है कि इस खेल की भी विधिवत शुरूआत, भाजपा-शासित राजस्थान से हुई है। वसुंधरा राजे की सरकार ने मंगलवार 22 सिंतबर को न सिर्फ विशेष पिछड़ा वर्ग या एसबीसी के तहत गुर्जर तथा कुछ अन्य जातियों के लिए 5 फीसद आरक्षण के लिए विधानसभा से विधेयक पारित कराया है बल्कि एक अलग विधेयक के जरिए, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग या ईबीसी की नयी श्रेणी बनाकर, उसके लिए 14 फीसद आरक्षण का प्रावधान और किया है। यह दिलचस्प है कि पटेल आरक्षण की मांग के आंदोलन से जूझ रही गुजरात की भाजपायी मुख्यमंत्री, अनंदीबाई पटेल ने भी आर्थिक आधार पर ऐसे ही आरक्षण में, हार्दिक पटेल की काट खोजने के संकेत दिए हैं। वास्तव में, इसके आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा की नीति ही होने का संकेत देते हुए, केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने जहां यह दोहराया कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़ेे वर्गों के लिए 50 फीसद आरक्षण पर कोई ‘पुनर्विचार’ नहीं हो सकता है, वहीं यह भी जोड़ा कि आरक्षण का लाभ न पाने वाले गरीबों के विकास की भी उनकी सरकार को चिंता है!
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण के साथ, राजस्थान में आरक्षण का आंकड़ा 68 फीसद पर पहुंच गया है। यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित आरक्षण की 50 फीसद की अधिकतम सीमा से बहुत ऊपर है। इसलिए, अचरज नहीं होगा कि आरक्षण के इन नये प्रावधानों को अदालतों में चुनौती का सामना करना पड़े और अंतत: खारिज ही कर दिया जाए। बहरहाल, समस्या सिर्फ इतनी नहीं है। समस्या, आर्थिक पिछड़ेपन के आरक्षण के आधार के रूप में स्वीकार किए जाने मेंं भी है। याद रहे कि इस तरह के आरक्षण का विचार कोई नया नहीं है। इसे न सिर्फ कांग्रेस पार्टी के पिछले दो आम चुनावों के घोषणापत्रों में बाकायदा शामिल किया गया था बल्कि कांग्रेस की हरियाणा की पिछली सरकार ने तो सांकेतिक रूप से ही सही ऐसे आरक्षण को लागू करने की कोशिश भी की थी।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण के विचार को पूरी तरह से ठुकरा चुका है। उसका स्पष्टï रूप से कहना है कि पिछड़े वर्ग के अलावा और किसी भी श्रेणी के लिए आरक्षण स्वीकार नहीं किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर तो बहस हो सकती है, लेकिन इससे किसी भी तरह से इंकार नहीं आरक्षण के आधार के रूप में सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को, किसी भी तरह से न तो आपस में मिलाया जा सकता है और एक ही पलड़े में तोला जा सकता है। दोनों को बराबर में रखने की कोशिश करना,
वास्तव में सामाजिक वंचितता के चलते, अवसरों के बाधित होने की विशिष्टता को पहचानने से ही इंकार करना होगा। यह आरक्षण का आर्थिक वंचितता तक विस्तार किए जाने का नहीं, सामाजिक वंचितता पर आधारित सकारात्मक कदमों की वैधता खत्म किए जाने का ही मामला है। इस वंचितता की विशिष्टïता को पहचानने से इंकार करना, जल्द ही इससे बढक़र सामाजिक वंचितता की सचाई और उससे निपटने के लिए आरक्षण की जरूरत के ही इंकार कर तक ले जाता है। यह संयोग नहीें है कि आरक्षण का विरोध अक्सर, गरीबों को ही या आर्थिक आधार पर ही आरक्षण दिए जाने के आग्रह की आड़ में सामने आता है। पूंजी पर आधारित व्यवस्था में गरीबों के लिए आरक्षण, अपने आप में एक अंतर्विरोधी विचार है। यह अंतत: आरक्षण के अंत तक ही ले जाएगा।
पटेल आरक्षण की मांग और इससे पहले आयी जाट, मराठा आदि प्रभुत्वशाली भूमिधर जातियों के आरक्षण की मांगों से स्पष्टï है कि मौजूदा नवउदारवादी व्यवस्था में, आरक्षण की व्यवस्था पर दुतरफा हमला हो रहा है। हमले का एक सिरा जिसे सभी पहचान रहे हैं, बढ़ते निजीकरण तथा सार्वजनिक क्षेत्र व सरकार के सिकुडऩे के चलते, वास्तव में आरक्षण के दायरे के ही सिकुड़ते जाने का है। पर इसी हमले का दूसरा सिरा, नवउदारवादी व्यवस्था में बढ़ते कृषि व अन्य संबंधित आर्थिक क्षेत्रों के संकट के चलते, अपेक्षाकृत बेहतर हैसियत के माने जाने वाले तबकों के भी, सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध शिक्षा व रोजगार के घटते हुए अवसरों की तीखी से तीखी होती होड़ में, आरक्षण के अतिरिक्त सहारे की तलाश की कोशिश करने का है। ऊंची जातियों के गरीबों के लिए आरक्षण की मांग भी, इसी परिघटना से जुड़ी हुई है। यही वह जगह है जहां से यह मांग उठ रही है कि या तो अपेक्षाकृत ताकतवरों को शामिल कर आरक्षण की व्यवस्था को बेमानी बना दिया जाए या फिर आरक्षण को खत्म ही कर दिया जाए। दोनों ही स्थितियों में आरक्षण की व्यवस्था को नष्टï ही किया जा रहा होगा।
ऐसे में संघ के राज में तो आरक्षण पर तो गोली दगनी ही दगनी है।


