संघ परिवार और हिन्दू राष्ट्रवाद का एजेण्डा
संघ परिवार और हिन्दू राष्ट्रवाद का एजेण्डा
मोदी की 2014 विजय-भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव-1
सामाजिक आंदोलनों के लिए आगे का रास्ता
राम पुनियानी
सन् 2014 के आम चुनाव, इसके पहले के चुनावों से कई मामलों में भिन्न थे।
मोदी की दिल्ली की गद्दी की ओर की यात्रा के हर कदम के पहले भारी प्रचार हुआ। जब वे भाजपा की चुनाव प्रचार अभियान समिति के प्रमुख बने तब इसका जमकर ढिंढोरा पीटा गया। वही सब कुछ तब हुआ जब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किये गये। चुनाव प्रचार अभियान भी जबरदस्त था। मोदी ने अपने प्रचार में सोशल मीडिया का जमकर उपयोग किया। सैकड़ों लोगों ने दिन-रात सोशल मीडिया में उनकी ओर से मोर्चा संभाला। उन्होंने अपनी छवि के निर्माण के लिए अमरीकी एजेंसी एप्को की सेवाएं हासिल कीं1। औपचारिक रूप से चुनाव प्रचार शुरू होने के बहुत पहले से ही मोदी का अभियान शुरू हो गया था। उन्हें जनता के सामने ‘विकास’ के पर्यायवाची के रूप में प्रस्तुत किया गया। गुजरात के सन् 2002 के कत्लेआम में उनकी भूमिका को ‘क्लीन चिट’ के नाम पर दबा दिया गया। इस बार आरएसएस, खुलकर मोदी के समर्थन में सामने आया और पोलिंग बूथ से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक उसके स्वयंसेवक सक्रिय हो गये। ‘‘इस बार, 2014 के चुनाव में, राष्ट्रवादी संगठन ने अपने सभी कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों-जिनकी संख्या 10 लाख से ज्यादा है-अपनी 40 हजार से अधिक स्थानीय इकाईयों, जिन्हें शाखा कहा जाता है, के अतिरिक्त, अपनी विचारधारा से सहानुभूति रखने वालों और समान विचारधारा वाले लोगों को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के समर्थन में मिशनरी भाव से जुट जाने को कहा।’’2 इस चुनाव में पहली बार संघ परिवार की एक सदस्य भाजपा अपने बल पर बहुमत हासिल कर सत्ता में आ सकी। यह आरएसएस के लिए एक बड़ी सफलता है जो अलग-अलग रास्तों से हिन्दू राष्ट्र के अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए सन् 1925 से काम कर रहा है।
पृष्ठभूमि
मोदी एक प्रशिक्षित आरएसएस प्रचारक हैं और हिन्दू राष्ट्रवाद के रास्ते हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के प्रति प्रतिबद्ध हैं।3 सन् 1980 के दशक से कई वैश्विक व स्थानीय कारकों के चलते, दकियानूसी मध्यमवर्ग, छोटे उद्योगपतियों, समृद्ध किसानों और धनी पेशेवरों के वर्गों का उदय हुआ। ये सभी वर्ग यथास्थितिवाद की राजनीति के हामी थे। इसी दौरान वैश्विकरण का जाल फैल रहा था और श्रमिक आंदोलनों पर हमले बढ़ रहे थे। इसी दौर में आरएसएस व विहिप ने धार्मिकता का झंडा उठा लिया। शाहबानो के बहाने आरएसएस ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के खिलाफ तीखा संघर्ष प्रारंभ कर दिया। वह छद्म धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण जैसी शब्दावली का इस्तेमाल करने लगा। इस सब के बीच शुरू हुयी आडवाणी की रथयात्रा।4 यही वह समय था जब देश, अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण व श्रमिकों के अधिकारों जैसे मुद्दों में उलझा हुआ था। महिलाओं और आदिवासियों के अधिकारों की चर्चा भी हो रही थी। जिस देश के लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो रही थीं और जहाँ कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों की रक्षा एक कठिन कार्य बना हुआ था; वहां संघ परिवार ने हिन्दुओं के एक तबके की पहचान से जुड़े मुद्दों को समाज के लिए सबसे महत्वपूर्ण बनाने का षड़यंत्र शुरू कर दिया। इसके साथ ही, धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध दुष्प्रचार शुरू हुआ, इतिहास का तोड़ा-मरोड़ा गया संस्करण जनता के सामने परोसा जाने लगा और पीडि़तों को दोषी बताया जाने लगा। आडवाणी की रथयात्रा ने अल्पसंख्यकों के विरूद्ध नफरत को और बढ़ावा दिया और हिंसा की कई घटनाएं हुयीं।4
राममंदिर अभियान का एक प्रमुख नतीजा यह हुआ कि मानवाधिकारों से जुड़े मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गये। रोटी, कपड़ा और मकान के मसले गौण हो गये व सामाजिक-राजनीतिक एजेण्डा के केन्द्र में आ गये पहचान से जुड़े मुद्दे। आरएसएस ने अपनी सांप्रदायिक राजनीति को जमकर हवा देनी शुरू की और इसी के हिस्से के रूप में आदिवासी क्षेत्रों में ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा में तेजी से बढ़ोतरी हुयी।5 यह मात्र संयोग नहीं है कि यह वही क्षेत्र हैं जहाँ बड़े औद्योगिक घराने अपने उद्योग स्थापित करना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा करने या प्राकृतिक संसाधनों को लूटने में कोई संकोच नहीं है।
संघ परिवार और हिन्दू राष्ट्रवाद का एजेण्डा
आरएसएस की शुरूआत, आजादी के आंदोलन के दौरान एक ऐसे संगठन के रूप में हुयी जो महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन के खिलाफ था6, भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा का विरोधी था और प्राचीन हिन्दू राजाओं व पशुपालक आर्यों के युग और हिन्दू धर्मग्रन्थों के महिमामंडन में विश्वास रखता था। आरएसएस की स्थापना उन लोगों ने की जो दलितों के उनके भू-अधिकार हासिल करने के आंदोलन और ब्राह्मणवाद के खिलाफ समाज में उठ रहे स्वर को दबाना चाहते थे। गैर-ब्राह्मणों के आंदोलनों के प्रणेता थे जोतिबा फुले और डाक्टर अंबेडकर। जैसे-जैसे आम लोग स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ते गये, ऊँची जातियों के श्रेष्ठी वर्ग को यह आशंका होने लगी कि समाज पर उसका प्रभुत्व खतरे में है। अंततः, इन्हीं वर्गों ने आरएसएस की स्थापना की।7 इस संगठन ने अपनी शाखाएं आयोजित करनी शुरू कीं और अपना एक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम तैयार किया, जिसका मूलभाव यह था कि भारत अनादिकाल से हिन्दू राष्ट्र है। आरएसएस को स्वाधीनता आंदोलन में सभी धर्मों के लोगों की भागीदारी नहीं भाती थी। उन्होंने लड़कों और युवाओं को स्वयंसेवक के रूप में प्रशिक्षित करना शुरू किया। ये लोग यह शपथ लेते थे कि वे हिन्दू राष्ट्र के लिए काम करेंगे। वे स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सेदारी नहीं करते थे। आरएसएस की स्थापना चितपावन ब्राह्मणों ने की थी और वह केवल पुरूषों का संगठन है।8
आरएसएस ने अपने अधीन कई संगठनों की स्थापना की। इनमें शामिल थी राष्ट्रसेविका समिति, जो कि महिलाओं के लिए है। ज्ञातव्य है कि इसके नाम में ‘स्वयं’ शब्द गायब है। आरएसएस, पुरूषों के प्रभुत्व वाला पितृसत्तात्मक संगठन है। उसकी यह मान्यता है कि महिलाओं का समाज में दोयम दर्जा है और उन्हें पुरूषों के अधीन ही रहना चाहिए। आगे चलकर आरएसएस ने अपनी छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठन किया। उसके बाद उसने हिन्दू महासभा के साथ मिलकर भारतीय जनसंघ बनाया, जो कि वर्तमान भाजपा का पूर्व अवतार है। उसने विश्व हिन्दू परिषद का निर्माण किया जिसका उद्देश्य हिन्दुओं के विभिन्न पंथों को आरएसएस के नियंत्रण में लाना था। उसने आदिवासियों का हिन्दूकरण करने के लिए वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की और सड़कों पर गुंडागर्दी के लिए बजरंग दल बनाया। इसी तरह, दुर्गावाहिनी आदि जैसे कई संगठन स्थापित किये गये।
इसी तरह आरएसएस ने अपने विचारों का प्रसार-प्रचार करने के लिए भी कई संस्थाएं और संगठन स्थापित किये। इनमें शामिल हैं साप्ताहिक पाञ्चजन्य व आर्गेनाइजर और आदिवासी क्षेत्रों में एकल विद्यालय व अन्य क्षेत्रों में सरस्वती शिशु मंदिर। संघ ने विभिन्न क्षेत्रों में ब्राह्मणवादी मूल्यों की स्थापना कर अपनी वैचारिकी को मजबूती दी। स्वयंसेवकों ने राज्य के तंत्र, पुलिस, सेना व नौकरशाही में गहरे तक घुसपैठ कर ली।
वैचारिक घुट्टी
अपनी शाखाओं के द्वारा संघ, अल्पसंख्यकों के विरूद्ध घृणा फैलाने लगा। उसने धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और भारतीय संविधान का भी विरोध करना शुरू कर दिया। उसने संचार के लगभग हर माध्यम का प्रयोग किया। उसने ‘आईटी मिलन’ आयोजित कर सूचना प्रौद्योगिकी पेशेवरों में अपनी पैठ स्थापित कर ली।10 संघ परिवार ने सोशल मीडिया का भी अत्यंत प्रभावकारी ढंग से इस्तेमाल किया। इस सब का नतीजा यह हुआ कि समाज पर पुरातनपंथी और दकियानूसी सोच हावी हो गई। आरएसएस ने हिन्दुत्व शब्द को भी लोकप्रिय बनाया। हिन्दुत्व, दरअसल, जातिगत व लैंगिक पदानुक्रम के ब्राह्मणवादी मूल्यों पर आधारित राजनीति का नाम है। विभ्रम के शिकार कई लोग, हिन्दुत्व को ‘जीवन पद्धति’ बताते हैं।10
सन् 1960 व 1970 के दशक में, देश में हिंसा की छुटपुट घटनाएं हुयीं। इनके चलते धार्मिक समुदायों का ध्रुवीकरण हो गया और साम्प्रदायिक पार्टी की शक्ति में वृद्धि की जमीन तैयार हो गई। सन् 1980 के दशक में, जैसे-जैसे राममंदिर आंदोलन जोर पकड़ता गया वैसे-वैसे हिंसा बढ़ने लगी। उत्तर भारत के कई शहरों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुयी। परंतु बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने के बाद हुयी हिंसा अभूतपूर्व थी।12 मुंबई, भोपाल और सूरत जैसे शहरों में हुयी हिंसा की भयावहता और क्रूरता को शब्दों में बयान करना मुश्किल है। गोधरा ट्रेन आगजनी के बहाने गुजरात में भड़काई गई हिंसा ने देश का सिर शर्म से झुका दिया।
मोदी, गुजरात हिंसा और उसके बाद
गोधरा के बाद हुयी हिंसा इस बात का उदाहरण थी कि राज्य, किस प्रकार, सक्रिय रूप से हिंसा को प्रोत्साहन दे सकता है। उसके पहले तक देश में जब भी सांप्रदायिक हिंसा होती थी, पुलिस व राज्यतंत्र या तो मूकदर्शक बना रहता था अथवा दंगाईयों का साथ देता था। परंतु गुजरात में मोदी के नेतृत्व में राज्यतंत्र ने हिंसा को खुलकर बढ़ावा दिया। यद्यपि यह दावा किया जाता है कि गुजरात दंगों की जांच के लिए नियुक्त विशेष जांच दल ने मोदी को क्लीनचिट दे दी है तथापि उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायमित्र राजू रामचंद्रन ने यह मत व्यक्त किया है कि एसआईटी की रपट के आधार पर मोदी के विरूद्ध मुकदमा चलाया जा सकता है।15 हिंसा के बाद गुजरात सरकार ने पीडि़तों के पुनर्वास की अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया। धार्मिक अल्पसंख्यकों को समाज के हाशिए पर पटक दिया गया। अहमदाबाद में बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक अपने मोहल्लों में सिमटने पर मजबूर कर दिए गये, उनके नागरिक व राजनीतिक अधिकारों को कुचल दिया गया और वे दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गये। अक्सर यह प्रचार किया जाता है कि मोदी राज में गुजरात तेजी से विकसित हुआ। तथ्य यह है कि गुजरात, हमेशा से विकसित राज्य रहा है। वाइब्रेंट गुजरात शिखर बैठकों के जरिये, गुजरात में भारी भरकम निवेश होने के दावों में कोई दम नहीं है। निवेश के वायदे तो बहुत हुए परंतु उनमें से कम ही जमीन पर उतर सके। गुजरात, सामाजिक विकास के मानकों में अन्य राज्यों से काफी पिछड़ा हुआ है। रोजगार सृजन की दर बहुत नीची है व प्रति व्यक्ति व्यय बहुत कम है। पिछले डेढ़ दशक में गुजरात में लैंगिक अनुपात तेजी से गिरा है और गर्भवती महिलाओं का हीमोग्लोबिन का स्तर बहुत नीचा है।16
...........जारी
संदर्भ
1. https://www.facebook.com/notes/shelley-kasli/mechanics-of-narendra-modis-pr-agency-apco-worldwide-orchestrating-our-future/500231493335095
2. http://sirulu.com/rss-carry-modi-raj-gaddi/
3. http://indianexpress.com/article/india/politics/this-way-to-delhi/
4. http://indianexpress.com/article/india/politics/this-way-to-delhi/
5. http://www.countercurrents.org/puniyani020108.htm
6. http://www.academia.edu/676532/The_Freedom_Movement_and_the_RSS_A_Story_of_Betrayal
7. Basu, Datta, Sarkar, Sarkar and Sen, “Khaki Shorts Saffron Flags, Orient Longman, Hyderabad 1993,
8. Ibid
9. Ram Puniyani, Fascism of Sangh Parivar, Mythri, Trivandrum , 1993, p 26
10. http://indiatoday.intoday.in/story/babri-masjid-bloody-aftermath-across-india/1/162906.html
11. http://www.sacw.net/aii/ch5.html
12. http://indiatoday.intoday.in/story/babri-masjid-bloody-aftermath-across-india/1/162906.html
13. http://books.google.co.in/books/about/
Communal_politics.html?id=gvRtAAAAMAAJ&redir_esc=y chapter 2
14. https://aamjanata.com/9-mythbusters-on-2002-post-godhra-riots-shehzad_ind/
15. http://www.sabhlokcity.com/2014/04/the-myth-of-the-modi-clean-chit-the-supreme-court- has-never-given-adjudicated/
16. http://timesofindia.indiatimes.com/home/opinion/edit-page/Gujarat-Myth-and-reality/articleshow/14032015.cms


