संघ परिवार का अगला PM उम्मीदवार मोदी के बजाय केजरीवाल होंगे !
संघ परिवार का अगला PM उम्मीदवार मोदी के बजाय केजरीवाल होंगे !
बाजार के लिए भी मोदी का विकल्प केजरीवाल है, कोई दूसरा नहीं
संघ परिवार का अगला प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार नरेंद्र भाई मोदी के बजाय धुर आरक्षण विरोधी अरविंद केजरीवाल हैं, जो मोदी से कहीं ज्यादा तानाशाह और अलोकतांत्रिक हैं
कांग्रेस का अंत चाहने वाले केजरीवाल को संघ परिवार से कोई ऐतराज नहीं है और न निजीकरण और गुजरात के विकास माडल से उन्हें खास परहेज है।
निरंकुश सत्ता के चक्रव्यूह में हम निःशस्त्र अभिमन्युओं की जमात हैं और भस्मासुर का जलवा अभी बाकी है!
पलाश विश्वास
झारखंड के हमारे प्रिय फिल्मकार मेघनाद की एक बेहतरीन फिल्म हैः Development flows from the Barrel of Gun.
कृपया मौका लगे तो यह फिल्म जरूर देख लीजिये तो आपको पता लगेगा कि देश में लोकतंत्र का किस्सा कुल क्या है और कानून का राज, संविधान वगैरह-वगैरह का मतलब जल जंगल जमीन से निरंतर उजाड़े जा रहे लोगों के लिए क्या है।
हमने पालमपुर प्रवास के दौरान संजोग से मशहूर वकील प्रशांत भूषण से हुई अचानक मुलाकात में उनसे यही निवेदन किया था कि इस अभूतपूर्व संकट में रंगभेदी निरंकुश सत्ता के खिलाफ किसी विरोध, प्रतिरोध, आंदोलन की जब गुंजाइश नहीं है तो राजनीतिक विकल्प से कुछ बदलने वाला नहीं है।
इसी सिलसिले में हमने उनसे पूछा भी था कि आपने पार्टी बनाने की हड़बड़ी में जो भस्मासुर पैदा कर दिया है, उसे फायदा क्या हुआ।
प्रशांत जी जवाब देने वाले नहीं थे, लेकिन इस सिलसिले में उनसे लंबी बातचीत हुई थी और हमने यह भी निवेदन किया था कि अलग-अलग लड़कर हमें अब जीने की मोहलत भी नहीं मिलने वाली है।
जैसा कि हम सबसे कह रहे हैं, हमने उनसे भी कहा कि जाति-धर्म की छोड़िये, विचारधारा के स्तर पर भी अगर ग्लोबल हिंदुत्व के खिलाफ तमाम शक्तियां लोमबंद न हुई तो कुछ भी नहीं बचेगा।
गौरतलब है कि अब भी हम सबके प्रिय प्रशांत भूषण और उनके सहयोगी स्वराज अभियान चला रहे हैं। उनका यह स्वराज हमारी समझ से गांधीवाद की जमीन पर है, जिसका बड़ा हिस्सा अन्ना ब्रिगेड और अरविंद केजरीवाल ने संघ परिवार के खाते में डाल दिया है। बाकी हिस्सा कहां जायेगा, यह कोई नहीं जानता।
जाहिर है कि अब बाकी बचे खुचे स्वराजवालों को तय करना है कि वे खालिस गांधीवाद की जमीन पर खड़े होकर लडेंगे या खुद को संघ परिवार के साथ नत्थी कर देंगे।
क्योंकि अब यह भी संभव है कि संघ परिवार का अगला प्रधानमंत्रित्व का उम्मीदवार नरेंद्र भाई मोदी के बजाय धुर आरक्षण विरोधी अरविंद केजरीवाल हैं, जो मोदी से कहीं ज्यादा तानाशाह और अलोकतांत्रिक हैं।
नेतृत्व के संकट में संघ परिवार का इकलौता विकल्प हैं अरविंद केजरीवाल, कमसकम प्रशांत भूषण जी और योगेंद्र यादव जी को इस बारे में ज्यादा ही पता होगा।
आज के अंग्रेजी दैनिक इकोनामिक टाइम्स में एक सर्वे छपा है, जिसके तहत नरेंद्र भाई मोदी के पक्ष में सात बड़े शहरों के पढ़े लिखे मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के लोग, जो मुट्ठीभर हैं, लेकिन उनका इतना सशक्तीकरण हो गया है कि जीवन के हर क्षेत्र में उन्हीं का वर्चस्व है। मुक्तबाजार की अर्थ व्यवस्था और राजनीति, गलोबल हिंदुत्व का एजंडा और निरंकुश सत्ता की बुनियाद ये ही लोग हैं।
इसी के साथ इसी अखबार में अरविंद केजरीवाल का एक पूरा पेज इंटरव्यू छपा है,जिसका शीर्षक हैः
'WE ARE NOT AGAINST PRIVATE SECTOR,BUT CRONY CAPITALISM’
इसके अलावा उनका एक बयान भी अलग से खास खबर हैः
ONLY BJP Errors Keeping Congress Alive:Kejriwal
कांग्रेस का अंत चाहने वाले केजरीवाल को संघ परिवार से कोई ऐतराज नहीं है और न निजीकरण और गुजरात के विकास माडल से उन्हें खास परहेज है।
गौर करें कि केजरीवाल कांग्रेस को जिंदा रखने की भाजपा की गलतियों की बात कर रहे हैं तो ये गलतियां किसकी हैं जबकि दुनिया जानती है कि इस वक्त भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के अलावा कोई तीसरा ऐसा शख्स नहीं है, जिसकी किसी भी स्तर पर चलती हो।
तो इन दोनों के नेतृत्व पर सवालिया निशान खड़ा करने और कांग्रेस के अंत के साथ निजीकरण के पक्षधर धुर आरक्षण विरोधी अरविंद केजरीवाल का इरादा क्या है, यह समझने वाली बात है।
इसके साथ ही यह समझना चाहिए कि वे मोदी को, संघ परिवार को और देश को क्या संदेश दे रहे हैं।
पंजाब में अगर आम आदमी पार्टी की जीत हो जाती है, तो संघ परिवार केजरीवाल के बारे में क्या रुख अपनायेगा, इससे साफ हो जायेगा कि केजरीवाल की अलग दुकान कब तक चलेगी और वे किस हैसियत के साथ घर वापसी करेंगे। या क्या करेंगे।
खास बात यह भी है कि मोदी के बाद केजरीवाल ही इस देश के सत्तावर्ग और संपन्न नवधनाढ्य मध्यवर्ग का सबसे चहेता राजनेता है तो बाजार के लिए भी मोदी का विकल्प केजरीवाल है, कोई दूसरा नहीं।
निरंकुश सत्ता के चक्रव्यूह में हम निःशस्त्र अभिमन्युओं की जमात हैं और भस्मासुर का जलवा अभी बाकी है।
हमारे विद्वान मित्र आनंद तेलतुंबड़े का साफ तौर पर मानना है कि आरक्षण खत्म करने के सारे इंतजाम हो चुके हैं और अंधाधुंध निजीकरण उदारीकरण ग्लोगबीकरण के मुक्त बाजार में आरक्षण और कोटे से किसी को न नौकरी मिलने वाली है और न आजीविका चलने वाली है।
आरक्षण की लड़ाई लेकिन तेज हो गयी है क्योंकि आरक्षण की बुनियाद पर जाति व्यवस्था को कायम रखा जा सकता है। लोग आरक्षण हासिल करने के लिए जाति के नाम पर गोलबंद होते रहेंगे और जाति उन्मूलन इस तरह असंभव ही रहेगा।
संजोग से बाबासाहेब क एकमात्र पोती रमा बाई के पति आनंद, आरक्षण के बिना इस मुकाम पर पहुंचे है कि सत्ता वर्ग भी उनकी अनसुना नहीं करता। आनंद और रमाजी दोनों मानते हैं कि अंबेडकर की भूमिका की हमें वस्तुनिष्ठ तरीके से समीक्षा करनी चाहिए और अंध भक्ति के बजाए बाबासाहेब के बुनियादी कार्यक्रम जाति उन्मूलन को बदलाव का प्रस्थानबिंदु मानकर देश को, दुनिया को गोलबंद करना चाहिए। आनंद यह भी मानते हैं कि बाबासाहेब के नाम पर धंधा करने वाले आरक्षण की सारी मलाई चखने वाले राजनेता और सत्ता वर्ग में अपनी हैसियत बना चुके जातियों के सिपाहसालार से सिपाही लोग हरगिज यह होने नहीं देगे और जाति उन्मलन की चुनौती बाबासाहेब के समय की तुलना में आज ज्यादा कठिन है क्योंकि सवर्ण जातियां भी आरक्षण की आड़ में राजनैतिक वर्चस्व में हिस्सेदारी की जबर्दस्त लड़ाई लड़ रहे हैं।
हमारे युवा मित्र ज्ञानशील, अशोक बसोतरा, अभिराम मल्लिक, संजीव रामटेके, संजय सोमकुंवर,शरदिंदु विश्वास, प्रमोद कांवड़े जैसे लोग आनंद की तरह मशहूर नहीं हैं। वे उतने भी मशहूर नहीं हैं जितना मेरे भाई दिलीपमंडल, मित्र उर्मिलेश या महानायक के संपादक सुनील खोबड़ागड़े। इन तमाम लोगों की समानता यह है कि ये लोग बाबासाहेब के मिशन के लिए राष्ट्रव्यापी समामाजिक आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं और देश के हर हिस्से में ऐसे तमाम युवा साथी हैं जो जाति और मजहब के दायरे से बाहर बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडे को लागू करना चाहते हैं।
मसलन छत्तीसगढ़ के प्रमोद कांवड़े कह रहे थे कि यह अजीब है कि देश के बहुजनों को न देश से कोई लेना देना है और न देश की हलचलों से, मुद्दों, मसलों से। वे आरक्षण और जांत पांत के अलावा कुछ भी नहीं सोचते।
छत्तीसगढ़ के प्रमोद कांवड़े कह रहे थे कि अत्याचार और उत्पीड़न उनके लोगों के साथ होता है तो उनकी प्रतिक्रया देशव्यापी होती है लेकिन आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, हिमालयी लोगों, कश्मीर और मणिपुर के भारतीय नागरिकों पर टूटते कहर के खिलाफ उनकी कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।
छत्तीसगढ़ के प्रमोद कांवड़े कह रहे थे कि जब तक ऐसा होता रहेगा, सत्ता की राजनीति की पैदल फौज बने रहने के सिवाय़ उनकी गुलामी के अंत का कोई रास्ता नहीं है।
यह बदलती हुई सोच जमीन के पकते रहने का सबूत है और पकी हुई जमीन की खुशबू हम न महसूस कर सकें तो हम लोगों की जड़ों का ही दोष है।
देश के विश्वविद्यालयों में जिस तेजी से बाबासाहेब का मिशन वायरल हो रहा है, वह देश में जनपक्षधर ताकतों की नयी गोलबंदी के खेत तैयार कर रहा है। अब हमें तय करना है कि हम किसके हक में खड़े हैं और आखिरकार हम लड़ाई करने को तैयार हैं या मारे जाने का इंतजार करते हुए नर्क जीते रहेंगे।


