संघी विचारधारा और ख्वाब पीएम की कुर्सी के!
संघी विचारधारा और ख्वाब पीएम की कुर्सी के!
मोदी जिस तिरंगे को भारत की शान कहते हैं उस तिरंगे को संघ परिवार ने कभी स्वीकार ही नहीं किया।
संघ से अपना नाता तोड़ें मोदी, नहीं तो आडवाणी की तरह उनका टिकट भी कभी कंफर्म नहीं हो पायेगा।
अनिल यादव
सन् 1999 से 2004 तक स्वघोषित रूप से प्रतिबद्ध स्वयंसेवकों के नेतृत्व वाली वाली राजग सरकार का दुस्साहस एक समय इतना बढ़ गया था कि उसने भारतीय संविधान की समीक्षा के लिये एक आयोग का ही गठन कर दिया था ताकि, उसमें से स्वतन्त्रता, समानता और न्याय (जो वस्तुतः फ्रांसीसी क्रांति की देन हैं), जैसे विदेशी मूल्यों को निकाला जा सके। उस समय संघ परिवार की ही एक शाखा विश्व हिन्दू परिषद के नेता आर्चाय धर्मेद्र और गिरिराज किशोर ने तो एक कदम आगे बढ़कर संविधान में किये जाने वाले परिवर्तनों को भी सुझा दिया था परन्तु आयोग के सदस्यों को लगा कि अगला चुनाव जीतने के बाद ही संविधान बदला जाये। लेकिन भाजपा नेतृत्व का संविधान बदलने का मुंगेरीलाल का यह सपना पूरा नहीं हो सका क्योंकि वह आम चुनाव के बाद सत्ता से बेदखल हो गयी थी।
कहा जाता है कि इतिहास के पास पुराने सवालों का जवाब देने का एक तरीका यह भी होता है कि वह नित नए सवाल उठाता रहे। जिस तरह आज देश की मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों की जमात नमो-नमो का दिन रात जाप कर रही हैं, इन पुराने सवालों के जवाब में नए सवालों का उठाया जाना बहुत ही जरूरी हैं। आज जब प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिये मोदी की छटपटाहट लगातार बढ़ रही है, मोदी को इन सवालों से दो चार होना ही पड़ेगा कि वह स्वाधीनता, समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय जैसे आधारभूत सामाजिक मूल्यों में कोई विश्वास करते हैं अथवा नहीं? वस्तुतः उनके वैचारिक राजनैतिक पूर्वज, संघ परिवार के दार्शनिक और मार्गदर्शक बी.डी सावरकर ने मनुस्मृति को ही नियमों और कानूनों का आधार माना था। जैसा कि खुद सावरकर ने अपनी एक पुस्तक के अध्याय ‘मनुस्मृति और महिलाएं’ में लिखा है ‘मनुस्मृति वह ग्रन्थ है जो वेदों के पश्चात् हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिये अत्यंन्त पूजनीय है तथा प्राचीनकाल से हमारी संस्कृति, आचार, विचार और व्यवहार की आधारशिला बन गयी है। यह ग्रन्थ सदियों से हमारे राष्ट्र के एहिक एवं पारलौकिक यात्रा का नियमन करता आया है। आज भी करोड़ों हिन्दू जिन नियमों के अनुसार जीवन यापन तथा व्यवहार-आचरण कर रहे हैं वे नियम तत्वतः मनुस्मृति पर ही आधारित है। आज भी मनुस्मृति हिन्दू नियम है’ (सावरकार समग्र, खंड 4 पृष्ठ संख्या 415)
बहरहाल, हम सभी इससे वाकिफ हैं कि मनुस्मृति में शुद्रों और महिलाओं के लिये क्या प्रावधान हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि यदि शुद्र किसी ब्राह्मण को धर्मोपदेश देने का दुस्साहस करे तो राजा को उसके कान और मुँह में गरम तेल डाल देना चाहिए (आठ/272 मनुस्मृति)। यह तो मात्र एक नमूना मात्र है जिसे मोदी के वैचारिक प्रतिनिधि और संघ के स्वयंसेवक कानून का आधार मानते हैं। आज मोदी अपनी सभाओं में खुद को चाय वाला या पिछड़ा कह कर वोट माँग रहे हैं, और पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से वे खुद को राजनीतिक अछूत बता कर वोटरों से वोट माँग रहे हैं, क्या मोदी को पता भी है कि मनुस्मृति के अनुसार शूद्रों के साथ क्या व्यवहार किया जाता है?
एक बात और, मोदी लगातार राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रवाद की बातें करते हैं। अपनी सभाओं में तिरंगे के खातिर जान देने की बातें तक करते हैं। परन्तु, जिस राजनीतिक धारा से मोदी आते हैं उसका इतिहास इन सारी धारणाओं के एकदम ही विपरीत रहा है। संघ परिवार के बहुत सारे लोगों का मानना था कि आजादी के बाद भारत का विलय नेपाल में हो जाना चाहिए, क्योंकि नेपाल दुनिया का एक मात्र हिन्दू राष्ट्र है। खुद सावरकर ने नेपाल नरेश को स्वतन्त्र भारत का ‘भावी सम्राट’ घोषित किया था। (ए.एस भिंडे-बिनायक दामोदर सावरकर, व्हीर्लस विंड प्रोपोगेंडा 1940, पृष्ठ संख्या 24)।
मोदी जिस तिरंगे को भारत की शान कहते हैं उस तिरंगे को संघ परिवार ने कभी स्वीकार ही नहीं किया। आजादी के पहले तो संघ के स्वयंसेवकों ने तिरंगे को कई बार फाड़ा और जलाया भी था। जाने-माने समाजवादी नेता एन.जी गोरे 1938 में घटित ऐसी ही शर्मनाक घटना के गवाह रहे हैं जब हिंदुत्ववादियों ने तिरंगे को फाड़ा और जलाया था। क्या मोदी जैसे कथित राष्ट्रवादी को ऐसी घटनाओं पर दुख नहीं पहुँचता है? क्या संघ के इस शर्मनाक कृत्य के लिये मोदी को माफी नहीं माँगनी चाहिए?
वस्तुतः मोदी आज दो राहे पर खड़े हैं जहाँ एक रास्ता सावरकर के दर्शन पर आधारित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का है तो दूसरा पीएम की कुर्सी का। खैर मोदी ने इतिहास की जानकारी के लिये विष्णु पांड्या और रिजवान कादरी को अपना सिपहसालार बनाया है। मोदी को चाहिए कि वे संघ के इन काले कारनामों को जानें और संघ से अपना नाता तोड़ लें। तभी पीएम की कुर्सी वाला रास्ता उनके लिये आसान होगा नहीं तो संघ से नाता नहीं तोड़ने वाले आडवाणी की तरह पीएम का उनका टिकट भी कभी कंफर्म नहीं हो पायेगा।


