संत कबीर को समझें तो रवींद्र और लालन फकीर को भी समझ लेंगे
संत कबीर को समझें तो रवींद्र और लालन फकीर को भी समझ लेंगे
रवींद्र का दलित विमर्श-19
लालन फकीर का मनेर मानुष गीतांजलि का प्राणेर मानुष।
ज्यों-की -त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। ।
बौद्धमय बंगाल का अवसान ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ। आठवीं सदी से लेकर ग्यारहवीं सदी तक बंगाल में बौद्ध पाल राजाओं का शासन रहा जिसका ग्यारहवीं सदी में सेन वंश के अभ्युत्थान के साथ अंत हुआ। सेन वंश के राजा बल्लाल सेन के शासनकाल में बंगाल में ब्राह्मण धर्म का प्रचलन हुआ लेकिन सेन वंश के शासन का अंत तेरहवीं सदी में हो गया। बंगाल में पठान सुल्तानों, हिंदू राजाओं और बारह भुइयां के साथ शूद्र और आदिवासी राजाओं का राजकाज अलग अलग क्षेत्र में चला।
बंगाल प्राचीन काल में आर्यों के लिए निषिद्ध रहा है और इसे असुरों का देश माना गया है।
अनार्य असुरों के बंगाल में सेन वंश के राजकाज के दौरान पहले शैब और शाक्तधर्म का प्रचलन रहा है, जो वैदिकी सभ्यता के दायरे से बाहर अनार्य संस्कृति हैं। सेन वंश के अंतिम राजा लक्ष्मण सेन के सभाकवि जयदेव के गीतगोविंदम् से बंगाल में बाउल और वैष्णव धर्म का प्रचलन हुआ जो ब्राह्मण धर्म और पुरोहित तंत्र के साथ साथ दैवी सत्ता के खिलाफ हैं।
तेरहवीं सदी से इस्लामी राजकाज और सेन वंश के शासन के दौरान बड़े पैमाने पर बौद्धों और अनार्यों असुरों के हिंदुत्वकरण और हिंदुत्वकरण के तहत जाति व्यवस्था को अस्वीकार करने के कारण इस्लाम में धर्मांतरण की वजह से बंगाल में साझा संस्कृति का जन्म हो गया। यह साझा संस्कृति वैष्णव बाउल, बौद्ध और इस्लाम के सूफी पंथ के मुताबिक मनुष्यता का धर्म है, जो सामंती और दैवी सत्ताओं को सिरे से नामंजूर करता है।
रवींद्र साहित्य और दर्शन में इसी साझा बाउल फकीर संस्कृति का सबसे ज्यादा असर है, जिसके तहत आध्यात्म का अर्थ मनुष्य देह में बसी अंतरात्मा की खोज के तहत मनुष्यता के उत्कर्ष का अनुसंधान है.जो धर्म सत्ता और राजसत्ता दोनों के विरुद्ध है। प्राचीन काल से बंगाल में अनार्यों, असुरों के जनपद रहे हैं।
फिर अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भी आदिवासी और शूद्र शासक निरंकुश सत्ता की राष्ट्रव्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे हैं। इसलिए राजसत्ता का विरोध इस आध्यात्म के अंतर्गत है।
इस्लामी शासन के दौरान बाकी भारत में भी राजसत्ता और दैवी सत्ता दोनों के विरुद्ध हिंदू मुस्लिम एकता की साझा विरासत के तहत संतों और सूफी फकीरों का आंदोलन जारी रहा है। बंगाल में इन सूफी फकीरों का असर बहुजन संस्कृति पर सबसे ज्यादा रहा है, जिसमें बौद्ध, वैष्णव, बाउल और सूफी धर्म समाहित है।
इस परंपरा के सबसे बड़े बाउल फकीर लालन फकीर रहे हैं।
लालन फकीर लालन साँई के नाम से मशहूर हैं। इसे लेकर विवाद है कि रवींद्रनाथ की उनसे कभी मुलाकात हुई या नहीं हुई। पूर्वी बंगाल में टैगोर परिवार की जमींदारी सिलाईदह में थी, जहां युवा रवींद्रनाथ जमींदारी के कामकाज के सिलिसिले में जाया करते थे। रवींद्र की युवावस्था में ही लालन फकीर का निधन हो गया और तब उनकी आयु 116 साल के करीब बतायी जाती है। इसलिए संभावना यही है कि सिलाईदह से नजदीक लालन का अखाड़ा होने के बावजूद इन दोनों की शायद मुलाकात नहीं हुई होगी। लेकिन लालन के अनुयायियों के संपर्क में थे रवींद्र। लालन ने खुद अपने गीतों को लिपिबद्ध नहीं किया, उनके अनुयायियों ने उनके गीतों को संकलित किया और उन्हीं के मार्फत वे गीत रवींद्र तक पहुंचे। जिनके बारे में रवींद्र ने बार बार चर्चा की है।
लालन फकीर मानवतावादी थे और जाति धर्म नहीं मानते थे। मनुष्यता का धर्म उनका धर्म था और वे अपने अतःस्थल में ही ईश्वर का अनुसंधान करते थे और यही अनुसंधान उऩकी साधना थी। उनका गीत हैः
‘ডানে বেদ, বামে কোরান,
মাঝখানে ফকিরের বয়ান,
যার হবে সেই দিব্যজ্ঞান
সেহি দেখতে পায় । ’
(दाहिने वेद, बाँए कुरान,
बीच में फकीर का बयान
जिसको होगा वह दिव्यज्ञान
वही देख सके हैं)
यह भारत की सूफी और संत परंपरा की साझा विरासत है।
रवींद्र रचना में इसी दिव्यज्ञान की झलक हैः
‘সীমার মাঝে, অসীম, তুমি
বাঁজাও আপন সুর।
আমার মধ্যে তোমার প্রকাশ
তাই এত মধুর।
কত বর্ণে কত গন্ধে
কত গানে কত ছন্দে,
অরূপ, তোমার রূপের লীলায়
জাগে হৃদয়পুর। ’
(सीमा के मध्य, असीम, तुम्हीं
बजाओ अपना सुर
मेरे बीतर तुम्हारी अभिव्यक्ति
इसीलिए इतना मधुर।
कितने रंगों में, कितने गंध में
कितने गीतों में कितने छंद में
अरुप तुम्हारे रुप की लीला में
जागे ह्रदयपुर)
ब्रह्म समाज के निराकार ईश्वर हिंदू मुस्लिम संत सूफी परंपरा में फिर वही निराकार हैं, जिसे अपने अंतःस्थल में देखते हैं लालन फकीर और रवींद्रनाथ दोनों। लालन फकीर की कोई धार्मिक पहचान उसीतरह नहीं है, जैसे संत कबीर की नहीं थी। संत कबीर का ईश्वर भी निराकार था।
कबीर का धर्म भी मनुष्यता का धर्म है। संत रविदास के लिए कठौती में ही गंगा है। सूफी संतों की वाणी में समानता और न्याय की गूंज अनुगूंज है और वे मनुष्य में ही ईश्वर को देखते हैं।
रवींद्रनाथ सदाचार को भारत की सभ्यता मानते थे और सभ्यता केइतिहास में उन्होंने पश्चिमी सभ्यता के प्रतिमानों को खारिज करते हुए सदाचार की भारतीय संस्कृति को ही भारत की सभ्यता बताते हैं। भारत में संत और सूफी आंदोलन में सदाचार ही मनुष्यता की उत्कृष्टता की कसौटी है। लालन फकीर और संत कबीर दास सदाचार का आदर्श बताते हैं तो यही सदाचार फिर गांधी का दर्शन है।
जाति धर्म के भेदभाव के खिलाफ लालन फकीर और संत कबीर दोनों तीखे प्रहार करते हैं तो अस्पृश्यता के नस्ली रंगभेद की विषमता को भारत की मुख्य समस्या मानने वाले रवींद्र नाथ जल को जीवन का आधार मानकर अस्पृश्यता के खिलाफ जलदान के अधिकार को लेकर चंडालिका लिखते हैं।
बंगाल के बाउल धर्म की गूंज कबीर दास की रचना में हैः
झीनी -झीनी बीनी चदरिया।
काहे कै ताना, काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया। ।
इंगला पिंगला ताना भरनी,
सुषमन-तार से बीनी चदरिया। ।
आठकंवल दल चरखा डोलै,
पांच तत्त गुन तीनि चदरिया। ।
साँई को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक के बीनी चदरिया। ।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढ़ि के मैली कीन्हीं चदरिया। ।
दास कबीर जतन सौं ओढ़ी,
ज्यों-की -त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। ।
रवींद्र नाथ पर संत कबीर का भी गहरा असर है, जिसका हम अलग से चर्चा करेंगे। सफी बाउल संतों की तरह कबीर पर बी बौद्ध दर्शन का असर है, इसकी भी आगे चर्चा करेंगे।
रवींद्र लालन प्रसंग में कबीर दास के संदर्भ बाउल संत परंपरा की साझा विरासत को समझने में हिंदी पाठकों के लिए मददगार साबित हो सकती है।
सूफी परंपरा के बारे में कमोबेश जानकारी और समझ होने के बावजूद हिंदी के आम पाठकों को बंगाल के बाउल फकीरों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है।
लालन फकीर के देहत्तव, उनकी धर्मनिरपेक्षता, समता और न्याय की उनकी पक्षधरता और समंतवाद के किलाप उनके प्रतिरोध, जाति धर्म के आधार पर भेदभाव और पुरोहित मुल्ला तंत्र पर कड़े प्रहार, मनुष्यता के धर्म कबीर और नानक के साहित्य और बाकी भारत की साझा विरासत के मुताबिक हैं।
कबीर दास की रचनाओं से आम पाठक काफी हद तक परिचित हैं, इसलिए हम रवींद्र लालन प्रसंग में कबीर का उल्लेख कर रहे हैं।
आप कबीर को समझते हैं तो लालन फकीर को समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। लालन फकीर के दर्शन को समाने लाने में रवींद्रनाथ ने ही पहल की थी। लालन फकीर का एकमात्र चित्र जो उपलब्ध है, वह ज्योतिंद्रनाथ टैगोर ने बनायी है, जिसके आधार पर रवींद्र और लालन की मुलाकात की किंवदंती प्रचलित हो गयी। लालन फकीर के बीस गीतों का प्रकाशन रवींद्रनाथ ने 1905 में प्रवासी पत्रिका में कराया। इसे साहित्य की अमूल्य संपदा बतौर प्रकाशित किया गया।
বিশ্বকবি রবীন্দ্রনাথের নিজের ভাষায় - ‘আমার লেখা যারা পড়েছেন, তাঁরা জানেন বাউল পদাবলীর প্রতি আমার অনুরাগ আমি অনেক লেখায় প্রকাশ করেছি। শিলাইদহে যখন ছিলাম, বাউল দলের সঙ্গে আমার সর্বদাই দেখা সাক্ষাৎ ও আলাপ- আলোচনা হতো। আমার অনেক গানে আমি বহু সুর গ্রহন করেছি এবং অনেক গানে অন্য রাগরাগিনীর সাথে আমার জ্ঞাত বা অজ্ঞাতসারে বাউল সুরের মিল ঘটেছে। এর থেকে বোঝা যাবে, বাউলের সুর ও বানী কোন এক সময় আমার মনের মধ্যে সহজ হয়ে মিশে গেছে। আমার মনে আছে, তখন আমার নবীন বয়স- শিলাইদহ (কুস্টিয়া) অঞ্চলের এক বাউল একতারা হাতে বাজিয়ে গেয়েছিল -
‘কোথায় পাবো তাঁরে - আমার মনের মানুষ যেঁরে।
হারায়ে সেই মানুষে- তাঁর উদ্দেশে
দেশ বিদেশে বেড়াই ঘুরে । ’
(এই গানটি গেয়েছিল-ফকির লালন শাহের ভাবশিষ্য গগন হরকরা। যার আসল নাম বাউল গগনচন্দ্র দাস। )
रवींद्रनाथ ने लिखा हैः मेरा लिखा जिन्होंने पढ़ा है, वे जानते हैं कि बाउस पदावली से मुझे किस हद तक प्रेम है, जनिके बारे में मैंने अपने अनेक लेखों में लिखा है। मैं जब सिलाईदह में था, बाउलों के दल के साथ मेरी हमेशा मुलाकात बातचीत हुआ करती थी। मैंने अपने अनेक गीतों में उनके अनेक सुरों को अपनाया है और दूसरे अनेक गीतों में दूसरी राग रागिनियों के सात मेरे जाने अनजाने में बाउल सुर मिल गया है। इसीसे समझा जा सकता है कि बाउल सुर और वाणी मेरे मन में कितनी सहजता के साथ एकाकार हैं। मुझे याद है कि जब मेरी उम्र कम थी, सिलाईदह (कुष्टिया) इलाके में एक बाउल ने हाथों में इकतारा बजाते हुए गाया था-
कहां मिलेगा वह-मेरे अंतःस्थल का मानुष जो
उस मानुष को खोकर-उसीकी खोज में
देश विदेश भटकूं मैं।
लालन फकीर के इस गीत को गा रहे थे उन्ही के अनुयायी गगन हरकरा।
लालन फकीर का मनेर मानुष गीतांजलि का प्राणेर मानुष है।
हम लालन फकीर और खास तौर पर गीतांजलि पर चर्चा जारी रखेंगे।


