संसदीय प्रतिनिधिमंडल : विफलता या सीमित सफलता
राजेंद्र शर्मा
सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के जम्मू-कश्मीर से वापस लौटने के साथ ही उसकी विफलता का शोर मचना शुरू हो गया है। आने वाले दिनों में यह शोर और तेज हो सकता है।
वैसे तो इस संसदीय प्रतिनिधिमंडल के नेता, राजनाथ सिंह ने दिल्ली वापसी से पहले ही इस मिशन की विफलता के दावों का खंडन कर दिया था और अनेक प्रतिनिधिमंडलों से फलप्रद बातचीत होने का दावा किया था। लेकिन, यह औपचारिकता का ही मामला ज्यादा लगता है। वर्ना सिर्फ जम्मू-कश्मीर में ही नहीं बल्कि शेष देशभर में भी मौजूदा सरकार के विचारधारात्मक परिवार की ज्यादा दिलचस्पी तो कश्मीर समस्या के समाधान के लिए किसी भी तरह की नयी राजनीतिक पहल की जरूरत तथा संभावना का दरवाजा बंद करने के लिए, संसदीय प्रतिनिधिमंडल की कथित ‘विफलता’ को तर्क बनाने में ही नजर आती है।
‘हम तो पहले ही कह रहे थे’ की मुद्रा में कहा जा रहा है कि जब वहां कोई बात करना ही नहीं चाहता है, तो बात करने की बातें क्यों की जा रही हैं!

यह और भी दिलचस्प है कि संसदीय प्रतिनिधिमंडल की ‘विफलता’ का दावा ठीक उस बातचीत के न होने के आधार पर किया जा रहा है, जो वास्तव में कभी आधिकारिक कार्यक्रम का हिस्सा ही नहीं थी।
हमारा इशारा हुर्रियत नेताओं के साथ बातचीत न हो पाने की ओर है।
बेशक, यह सच है कि सीताराम येचुरी तथा शरद यादव समेत, प्रतिनिधिमंडल के कुछ सदस्यों ने हुर्रियत के उदार तथा नरम, दोनों धड़ों के चार-प्रमुख नेताओं से अपनी ओर से और वे जहां पर भी थे वहां पर पहुंचकर, मुलाकात और बातचीत करने की कोशिश की थी। लेकिन, हुर्रियत के नेताओं ने अपने सभी गुटों के एक राय से लिए गए फैसले के अनुरूप, कश्मीर के मौजूदा हालात पर इन नेताओं से चर्चा करने से मना कर दिया। यहां तक कि घर पर ही नजरबंद कट्टïरपंथी हुर्रियत नेता, सैयद अलीशाह गिलानी ने तो घर के दरवाजे खोलकर, इन नेताओं से मुलाकात तक करना मंजूर नहीं किया।
यह 2010 के संकट के दौरान, अपनी पहल पर बात करने आए ऐसे ही संसदीय प्रतिनिधिमंडल के प्रति इन्हीं नेताओं ने जो रुख अपनाया था, उससे भिन्न था।
याद रहे कि उस समय इस मुलाकात से शुरू हुई प्रक्रिया, पत्थर के जवाब में गोली के दुष्चक्र को तोड़ने तथा तत्कालीन संकट से उबरने तक ले गयी थी। लेकिन, हुर्रियत नेताओं का इस बार का रुख कश्मीर के मौजूदा संकट के, ऐसे ही संकट के पिछले चक्र से भी गंभीर होने और इसीलिए, इस पर काबू पाने के लिए और ज्यादा राजनीतिक प्रयास किए जाने की ही जरूरत को दिखाता है, न कि सांसदों के इस प्रयास के गैर-जरूरी होने को।
बहरहाल, जैसा कि हमने पीछे कहा, यह मुलाकात संसदीय सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के आधिकारिक कार्यक्रम में तो थी ही नहीं। वास्तव में इस मामले में कश्मीरी अवाम के बीच एक हद तक बचाव पर पड़ गए, हुर्रियत के उग्रवादी धड़े को तो बातचीत न करने के लिए यह सफाई भी देनी पड़ी है कि उन्हें आधिकारिक रूप से बातचीत के लिए आमंत्रित किया ही नहीं गया था।

तकनीकी रूप से उनका यह दावा गलत भी नहीं है।
भारत से अलगाव या आजादी का नारा देने वाले नेताओं को बातचीत के लिए आमंत्रित करना तो दूर, वास्तव में संसदीय प्रतिनिधिमंडल की कश्मीर यात्रा के मौके पर उन्हें या तो जेल में या घर पर ही नजरबंद कर दिया गया था।
वामपंथी तथा अन्य कई पार्टियों के दबाव में जब हुर्रियत नेताओं की ओर बातचीत के लिए हाथ बढ़ाया भी गया तो, महबूबा मुफ्ती ने पीडीपी की अध्यक्ष की हैसियत से ही उन्हें आमंत्रित करते हुए पत्र लिखा था, न कि जम्मू-कश्मीर की पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री की हैसियत से।
यहां तक कि जैसाकि खुद राजनाथ सिंह ने स्पष्ट किया,

प्रतिनिधिमंडल के कुछ सदस्यों के अपनी पहल पर हुर्रियत नेताओं के साथ मुलाकात करने पर, केंद्र सरकार ने न तो हां की थी और न नाही की थी।
अचरज नहीं कि मीडिया में आमतौर पर इस बातचीत का प्रयास करने वाले प्रतिनिधियों को, शासन से भिन्न ‘विपक्षी पार्टियों के प्रतिनिधिमंडल’ के रूप में ही दर्शाया जा रहा था।
यह कश्मीर के आज के हालात की विडंबना को ही दिखाता है कि संसदीय प्रतिनिधिमंडल के एक हिस्से के एक ‘निजी प्रयास’ की कथित विफलता को ही, सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की विफलता, उसका खाली हाथ लौटना आदि बताया जा रहा है।
यह विडंबना इस सचाई में निहित है कि सर्वदलीय सांसद प्रतिनिधिमंडल के दौरे के संकेत अपनी जगह, मौजूदा गहरे संकट से उबरने की दिशा में प्रगति की मामूली सी भी संभावना, वास्तव में एक इसी प्रयास में देखी जा रही थी।
सच तो यह है कि खुद जम्मू-कश्मीर की तथा वास्तव में केंद्र की भी सरकार की भी समझ इससे भिन्न नहीं थी, हालांकि उसने और खासतौर पर भाजपा के दबाव में, अलगाववादियों से बात करने के सवाल पर अपने हाथ बांध रखे थे।
इस माने में विपक्षी सांसदों के इस गांठ को खोलने के प्रयास के प्रकटत: विफल होने से, कुछ न कुछ निराशा होना स्वाभाविक है।

इसके बावजूद, इस प्रयास को पूरी तरह से विफल मानने की गलती नहीं की जानी चाहिए।
वास्तव में आमतौर पर सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल का और खासतौर पर हुर्रियत नेताओं से बात करने के जरिए, मौजूदा संकट के हल की तलाश में राजनीतिक संवाद का दायरा सभी विचार के लोगों तक फैलाने के प्रयास का, मुख्य मकसद तो कश्मीरी अवाम को यह संदेश देना ही था कि शेष भारत, उसके दु:खों, उसकी तकलीफों से बेखबर या लापरवाह नहीं है।
बातचीत के लिए दो कदम फालतू बढ़ने के लिए तैयार होना, इसी संदेश का हिस्सा था।
याद रहे कि भारत से अलगाव या आजादी के अपने नारे के बावजूद, हुर्रियत कश्मीर की एक ऐसी राजनीतिक ताकत है, जिसके नरमपंथी से लेकर नरमपंथी तक सभी धड़े, आतंकवादी तौर-तरीकों के बजाए जनांदोलन के तरीकों में विश्वास करते हैं और उनके प्रचंड बहुमत की आजादी की कल्पना, भारत ही नहीं पाकिस्तान से भी आजादी की है।

सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल के सचमुच विफल होने देने के परिणाम भयानक होंगे।
हुर्रियत के कट्टरपंथी धड़े का बातचीत के लिए तैयार न होने के सवाल पर बचाव पर पड़ना, इसी का सबूत है कि चाहे तुरंत और बहुत साफ-साफ दिखाई न दे, इस समूचे मिशन से कश्मीर और शेष भारत के बीच खड़ी हो गयी दीवार में एक छोटा सा झरोखा खुल गया है।
अब यह आमतौर पर देश की प्रमुख राजनीतिक ताकतों पर और खासतौर पर सरकार पर है कि वे अपने प्रयासों से इस झरोखे को और बड़ा कर के दरवाजा बना लेती हैं या इस झरोखे को भी धीरे-धीरे बंद हो जाने देती हैं।
दुर्भाग्य से सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल की विफलता का खुद सत्ता परिवार द्वारा अनुमोदित शोर, इस झरोखे को बंद करने की ओर ही धकेलता नजर आ रहा है।
भाजपा समेत संघ परिवार इसे इसी बात का सबूत बनाने में लगा नजर आता है बातचीत या राजनीतिक पहल से कश्मीर में कुछ हासिल होने वाला नहीं है। कानून और व्यवस्था की समस्या है और रक्षाबलों को ही उससे निपटने देना चाहिए। दो महीने हो चुके हैं। कर्फ्यू, बंद, प्रदर्शन, रक्षा बलों की कार्रवाई, इस सब को लोग और कितने दिन झेलेंगे? जल्द ही खुद ब खुद मामला ठंडा पड़ जाएगा। इससे ज्यादा अदूरर्शी रुख दूसरा नहीं होगा।
अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद, मौजूदा हालात में यह पहल बहुत जरूरी थी, जिसे सचमुच विफल होने देने के परिणाम भयानक होंगे।