सच और झूठ’ का ‘खेल’ निराला

‘सच और झूठ’ पूरी दुनिया इन दोनों शब्दों के इर्द गिर्द है। झूठ और सच का खेल बड़ा ही निराला है। भले ही झूठ ने आज बड़ा मुकाम हासिल क्यों ना कर रखा हो लेकिन कहीं ना कहीं झूठ बोलने के बाद ये सवाल जरूर गूंजता है कि क्या यह सही है?

हैरानी होती है आदमी झूठ क्यों बोलता है और सच क्यों नहीं बोलता? आखिर कौन सी ऐसी मजबूरी है जिससे व्यक्ति को झूठ बोलना पड़ता है?

आज झूठ को क्यों इतनी प्रतिष्ठा मिली है? सच बोलने से व्यक्ति घबराता-कतराता क्यों है?

ऐसे तमाम प्रश्न हैं, जो हमारे ज़हन में घूमते रहते हैं। शायद इसके कई कारण हैं।

आज के इस दौर को देख कर लगता है कि झूठ बोलना इंसान के लिए एक मजबूरी बन गई है और वह इसे आदत में शुमार कर चुका है।

आज सच बोलने से लोग कतराते हैं और झूठ बोलने में खुशी महसूस करते हैं लेकिन क्या यह सही है? इस तरह के कई तरह के सवाल हमें अंदर ही अंदर कचोटते हैं। लेकिन आज के समय का यह अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। वैसे झूठ बोलने का सिलसिला आज से ही शुरू नहीं हुआ बल्कि काफी समय से है।

हमें बचपन से नैतिक ज्ञान जैसी किताबों में सत्य पर आधारित कई पाठ पढ़ाये जाते हैं फिर भी हमारी संस्कृति के बीच झूठ अपनी खास जगह बनाता जा रहा है।

पुराणों में उल्लेख मिलता है, ऊंचे उद्देश्य के लिए बोला गया झूठ भी सौ सच से बड़ा होता है। वैसे भगवान श्री कृष्ण इस बात की इजाज़त देते हैं कि ज़रूरत पड़ने पर झूठ बोला जा सकता है, पर अब उससे भी पहले की बात करते हैं, जब विष्णु भगवान को मोहिनी का रूप धारण करना पड़ा ताकि समुद्रमंथन से मिले अमृत को केवल देवता लोग ही पी सकें । और जब मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम चंद्र जी को बाली को मारने के लिये झूठ और छल का सहारा लेना पड़ा था। अपने मित्र और बाली के भाई सुग्रीव की सहायता के लिये या एक अधर्मी को समाप्त करने के लिये उन्होंने बाली पर छिप कर वार किया था।

वैसे कहा जाता है कि झूठ बराबर पाप नहीं‘ ऐसा कहा जाता है, पर फिर याद आया कि गीता में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जो झूठ किसी की भलाई के लिये बोला जाये वह झूठ, झूठ नहीं है। उनकी इस बात से तो धर्म राज युधिष्टर तक भी झूठ बोल गये थे। अर्जुन ने शिखंडी को ढाल बना कर भीष्म पितामह को मार गिराया था। ऐसे और भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं।

यह सब तो हमारे पुराणों का हिस्सा है लेकिन एक झूठ को बनाए रखने के लिए हमें बहुत से झूठ बोलने पड़ते हैं काफी मेहनत करनी पड़ती है लेकिन सत्य तो अपने आप में सत्य है उसकी जगह कोई नहीं ले सकता। हां अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए आप झूठ का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन झूठ का अर्थ यह नहीं कि आप अपना सारा जीवन उसी के नाम कर दो।

दोस्तों जहां विश्वास होता है वहां झूठ नहीं टिकता क्योंकि किसी का विश्वास उसके साथ जुड़ा है।

और झूठ बोलने के बाद हम उतना सुकून महसूस नहीं करते जितना सच बोलने पर करते हैं क्योंकि मन की संतुष्टि सच बोलने पर टिकी है। कई बार झूठ बोलने के बाद हम चैन की नींद तक नहीं सो पाते।

इसलिए झूठ और सच के खेल में जीत और मन की सतुंष्टि तो केवल सच से ही मिलती है। खैर झूठ और सच दोनों में से किसे चुनना है यह तो स्थिति पर निर्भर करता है।

शिखा त्रिपाठी