सत्ता गांव तक, गांव के लोगों के हाथों तक जानी चाहिए- राधा बहन
सत्ता गांव तक, गांव के लोगों के हाथों तक जानी चाहिए- राधा बहन
पर्यावरण को बचाने के लिए एकजुट हों जन संगठन -राधा बहन
अंबरीश कुमार
नई दिल्ली। गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा बहन भट्ट ने शुक्रवार को यहाँ कहा कि देश के मौजूदा हालात को देखते हुए पर्यावरण का सवाल उठाने वाले सभी जन संगठनों को अब एक मंच पर आना चाहिए। वे यहाँ हिमालय नीति अभियान, हिमालयन इनफार्मेशन एंड नॉलेज एक्सचेंज, सैडेड और इंवायरोनिक्स ट्रस्ट की तरफ से आयोजित हिमालय पर परामर्श विचार गोष्ठी में बोल रही थी। गोष्ठी में जयंत भट्टाचार्य, मेहर इंजीनियर, रवि चेलम, प्रदीप टम्टा, गुमान सिंह समेत पर्यावरण पर काम करने वाले कई राज्यों के प्रतिनिधि शामिल हुए।
राधा बहन ने इस मौके पर कहा कि हिमालय को बचाने का अर्थ देश को बचाना है, क्योंकि इसका असर कन्याकुमारी तक पड़ेगा। आज इस बात की जरूरत है कि सभी राजनैतिक दलों में जो लोग हिमालय के प्रति सकारात्मक रुख रखते हैं, उनसे भी वार्ता कर हिमालय की नीति पर साझा मंच करते हुए जन संगठनों को एक बड़ा मंच बनाना होगा जिससे कि मौजूदा सरकार पर सकारात्मक दबाव बनाया जा सके। बार-बार उन्होंने जन संगठनों को जो हिमालय पर काम कर रहे हैं, एकजुट होकर हिमालय नीति बनाने की अपील की। उन्होंने देश में पर्यावरण को बचाने के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं और जन संगठनों पर मंडरा रहे खतरों की और भी इशारा किया। खास कर दक्षिण में कुडुनकुलम एटमी प्लांट से लेकर बांध और विस्थापित के सवाल पर हो रहे आंदोलनों के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जा रहा है।
उन्होंने आगे कहा कि हमने बहुत से आंदोलन किए और कई सालों के प्रयास के बाद भी न तो हम टिहरी बांध को एक इंच भी छोटा कर पाए और न ही सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई को ही छोटा कर पाए। इसका कारण ये है कि हम सामने वाले से कमजोर थे और हैं, जिसे हमें समझना बहुत जरूरी है। हम चाहते हैं कि सबको समान अधिकार मिलें किसी को कम या ज्यादा नहीं। आज लगभग सभी राजनैतिक दल एक ही तरीके से सोच रहे हैं, इसलिए हमें अवधारणा के संबंध में सबको समझना होगा। ऐसा करने के लिए या शक्तिशाली और विरोधी ताकतों का मुकाबला करने के लिए थोड़ी ज्यादा ताकत चाहिए और वो सोचने, पढ़ने से नहीं अपितु धरातल पर काम करने से होगी। हमारे कल दल एवं संगठन महत्वपूर्ण हैं और कई बड़े विषयों पर कई सालों से अच्छा प्रयास भी कर रहे हैं, तो यदि हम उनको आपस में मिलाकर एक शक्ति बना पाते तो हम अपने विरोधी एवं पूंजीवादियों के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। हम समाज में आम जनता के हितों के लिए लड़ने वाले लोग विकास विरोधी एवं आतंकवादियों से कम नहीं माने जाते इस स्थिति से निपटने के लिए भी हमें आपस में मिलकर काम करना होगा। हमें हिमालय के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा करना होगा। सत्ता गांव तक, गांव के लोगों के हाथों तक जानी चाहिए। सत्ता और संसाधन लोगों के हाथ में होने चाहिए। हमारे यहां सत्ता के नाम पर मौजूद पंचायती राज एक ढकोसला है इसलिए सही दृष्टि से गांवों के लोगों तक सत्ता ले जाएं। हमारी सरकारें अक्सर ये वर्ल्ड क्लास सिटीज बनाने की बात करती रहती हैं तो हम वर्ल्ड क्लास सिटी क्यों, वर्ल्ड क्लास गांव बनाने की बात क्यों नहीं करते हैं। हम अपने देश की राजनैतिक पार्टियों की भले ही कितनी ही आलोचनाएं करते फिरें लेकिन हम मांगने उन्हीं से जाते हैं तो ऐसा करके हम उन्हीं की तो ताकत बढ़ाते हैं अपनी नहीं तो हमें इन पार्टियों के गलत कार्यों का विरोध भी करना है और साथ ही उनसे देश हित के कामों भी करवाने हैं क्योंकि जब पर्यावरण बचेगा तभी इंसान बचेगा।
गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुई डेढ़ दिन की बैठक के बाद हिमालय के मुद्दे पर ड्राफ्ट डॉक्युमेंट पर विचार विमर्श के बाद इसको एक राजनैतिक नजरिए से देखने के लिए दोपहर बाद चर्चा हुई जिसमें मौजूद लोगों ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए।
विजय प्रताप - हमारे देश में बहुत सारे सामाजिक आंदोलन चलते रहते हैं लेकिन सामूहिक कार्यकर्ताओं की दृश्यता उतनी बन नहीं पाती है जितनी बननी चाहिए। मुझे लगता है कि यदि हम सब आपस में मिलकर संगठित हो जाएं तो एक बड़ी ताकत बन सकते हैं। इसके लिए हम सभी को विचार करना चाहिए कि हम अपने सामाजिक बैनर से ही वो काम करेंगे या अलग से करेंगे। लेकिन इसमें वित्त का पोषण सामूहिक रूप से लोगों द्वारा ही होगा। हमें इसमें प्रत्यक्ष राजनैतिक काम भी करने होंगे लेकिन हम लोग चुनावी मंच में नहीं जाएंगे। इसमें शामिल लोग किसी भी चुनावी पार्टी में शामिल नहीं होंगे और खासकर कांग्रेस और भाजपा के साथ सहकार नहीं करेंगे।
अखिल गोगोई- असम में सामाजिक कार्यकर्ताओं या जनता के मुद्दों पर लड़ने वालों को आतंकवादी कह दिया जाता है और आजकल तो हम लोगों को माओवादी कहकर पुकारा जाता है। भारत सरकार बहुत कुछ ऐसा करती रहती है जिसकी कई अन्य लोगों, छोटे नेटवर्कों एवं हमें असम में रहकर पता ही नहीं चल पाती हैं जो यदि सभी जगह जनता के मुद्दों पर काम करने वाले लोग आपस में एक नेटवर्क बनाएं तो सूचनाओं का आदान-प्रदान होगा और हम आपस में मिलकर पॉलिसी के स्तर तक भी बेहतर कर पाएंगे। जैसे कि आप देखिए कि अभी हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने प्लैनिंग कमीशन को भंग करने की बात ही और वो फैसला लेने से पहले न तो कहीं पर बहस हुई और न ही बाकी राजनैतिक दलों एवं संसद आदि से किसी तरह की सहमति ही ली गई। भविष्य में भी ऐसे ही फैसले लिए जा सकते हैं जिससे जनता का नुकसान हो सकता है तो हम देश भर में काम करने वाले संगठनों को अगर आपस में एक नेटवर्क के माध्यम से जोड़ा जाए तो इससे हमारे लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या इसमें शामिल हो जाएगी और वो पूरे भारत की एक मजबूत आवाज बन जाएगी। ऐसा भी किया जा सकता है कि उस नेटवर्क का मुख्यालय दिल्ली में बना दिया जाए और सारे देश के लोग चाहें तो उसमें शामिल हो सकते हैं।
विमल - मैं लेफ्ट पार्टी से आता हूं। हम हिमालय के मुद्दे पर आपके साथ सहयोग करने को तैयार हैं। आप लोगों की बातें सुनकर ऐसा लगा कि जैसे आप ये मानते हैं कि लेफ्ट कुछ नहीं है। इस विषय पर बहुत सी पेचीदगियां हो सकती हैं। आप आंतरिक धारणा की बात करें तो ऐसा नहीं है कि लेफ्ट अप्रसांगिक हो गया है और उनकी कोई सोच ही नहीं है। जैसे कि देखिए कि कुछ देश ग्रीन हाउस और ओजोन परत में सबसे ज्यादा हिस्सेदार हैं लेकिन वो कार्बन फुटप्रिंट में बराबरी की बात कर रहे हैं। तो उसी तरह से आप केवल हिमालय को ही बचाने की बात कर रहे हैं तो यदि पूरा ग्रह खत्म हो जाए तो क्या केवल हिमालय बच पाएगा तो हमें इस विषय पर सोचना चाहिए और न केवल हिमालय पर पूरे ग्रह को पर्यावरण की दृष्टि से होने वाले नुकसान से बचाने का प्रयास करना चाहिए।
इस मौके पर एक वक्ता ने कहा कि देश के विभिन्न भागों में काम करने वाले लोगों को आपस में मिलकर काम करना चाहिए लेकिन हमें अपने नेटवर्क में एनडीए और यूपीए को शामिल नहीं करना है बाकी दलों को शामिल किया जा सकता है तो मैं इसमें समझना चाहता हूं कि आखिर एनडीए या यूपीए में ऐसी क्या कमी है या बाकी पार्टियों में ऐसी क्या खूबी है जिसके चलते ऐसा फैसला लिया जा रहा है? यदि हम इस तरह की सोच से काम करें तो क्या प्रदीप टम्टा जैसे कर्मठ कार्यकर्ता जो शुरू से हिमालय के विषय में चिंतित रहे या काम करते रहे उन्हें नेटवर्क से बाहर रख देंगे क्या?
विजय प्रताप: जब कोई प्लेटफार्म चलता है तो उसमें बहुत से व्यक्ति साथ होते हैं वो किसी पार्टी से भी जुड़े हो सकते हैं लेकिन वो हमारे साथ अपनी व्यक्तिगत पहचान समझ एवं पहचान से जुड़ते हैं, पार्टी की पहचान से नहीं। प्रदीप टम्टा जी हिमालय के संबंध में हमारे साथ काफी समय से जुड़े हैं यदि उन्हें लगता हो कि वो पार्टी में रहते हुए भी हमारे साथ जुड़े रह सकते हैं तो ठीक है और अगर आगे चलकर उनको कोई असुविधा हो तो वो छोड़ भी सकते हैं। जहां तक एनडीए और यूपीए के आदर्शों एवं सिद्धातों की बात है तो दोनों ही पार्टियां कारपोरेट संचालित पार्टियां हैं इसलिए हम उन्हें शामिल नहीं कर सकते हैं।
स्वेता- हमें कुछ मुद्दों पर जूझना होगा हमें राजनैतिक मुद्दे देखने होंगे और फिर उन मुद्दों पर एकमत होना होगा जैसे कि अलग-अलग राज्यों में राज्य और लोगों के रिश्ते फर्क होते हैं खासकर असम और कश्मीर में सेना का दबाव ज्यादा है। उसी तरह से आजीविका के साधनों में भी अंतर है तो हम इस तरह से मुद्दों से कैसे जूझें, ये समझें। हमारे देश में जाति और धर्म भी एक बड़ा तत्व है और खासकर हिमाचल और उत्तराखण्ड में तो जाति व्यवस्था अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा दिखाई देती है उसी तरह से अरूणाचल में कुछ और ही समस्या दिखती है तो इसे भी देखा जाना चाहिए। जो बातें हिमालयन नीति के खिलाफ जाती हैं, भले ही वो कानूनी विषय हो या सामाजिक उस पर भी बात हो।
अशोक चौधरी- राजनैतिक आंदोलन जनता के होते हैं ये किसी राजनैतिक पार्टी ने आंदोलनों का ठेका नहीं ले रखा है। सरकार हिमालय के क्षेत्र में जिस तरह का काम कर रही है वो संवैधानिक अधिकर 39 बी तथा 29 अधिनियम के खिलाफ है। हमें अपने इस ड्राफ्ट में “हम मांग करते हैं” के बदले “हम प्रतिरोध करते हैं” शब्द का प्रयोग करना चाहिए और “प्रतिरोध मुनाफाखोरों का”। सत्ता का केन्द्र जनता हो न कि सरकार।
गोष्ठी के अंत में हिमालय से जुड़े मुद्दों पर ठोस पहल के लिए हिमालय आंदोलन मंच के लिए दिल्ली में एक सचिवालय की स्थापना का निर्णय लिया गया जिसके लिए गुमान सिंह, श्रीधर, विजय प्रताप को जिम्मेदारी सौंपी गई।


