सत्यभामा अकेली नहीं है आप हर सांप्रदायिक दंगे में सत्यभामा को पाएंगे
सत्यभामा अकेली नहीं है आप हर सांप्रदायिक दंगे में सत्यभामा को पाएंगे
सत्यभामा से सत्यभामा तक…
कंधमाल की सत्यभामा, छत्तीसगढ़ की सत्यभामा
अनुवाद नताशा खान
लगभग डेढ़ दशक पहले जब हम भारत में पानी के निजीकरण पर नौ विभिन्न संघर्षों पर "द सोर्स ऑफ़ लाइफ फ़ॉर सेल" नामक एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बना रहे थे तब मुझे छत्तीसगढ़ में विभिन्न स्थानों में घूमना पड़ा। शिवधाम नामक एक नदी उस समय के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा कॉर्पोरेट उद्योग को बेच दी गई थी। इस देश में सत्ता में होना आपको भगवान होने की स्थिति में ले जा सकता है जो ये मानते हैं कि नदियों, जंगलों, समुद्र और पहाड़ियों का सृजन उन्होंने किया है लेकिन निर्वाचित देवताओं में सृजन करने की कोई क्षमता नहीं है। वे संसाधनों को नष्ट करने के लिए केवल बेच सकते हैं।
केलो नामक एक और नदी प्रसिद्ध उद्योगपति जिंदल को बेच दी गई थी लेकिन यह एक आसान काम नहीं था। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया। चार स्थानीय महिलाओं ने इसके खिलाफ भूख हड़ताल शुरू कर दी और सत्यभामा नामक एक महिला की मृत्यु हो गई। कलेक्टर घटनास्थल पर पहुंचे और सत्यभामा के परिवार को तीन लाख रुपए देने का आश्वासन दिया ये पैसा कभी नहीं दिये गए और कलेक्टर को स्थानांतरित कर दिया गया।
सत्यभामा की तस्वीर लेने में मुझे बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। आखिरकार छत्तीसगढ़ के मेरे मित्र गौतम बंदोपाध्याय एक तस्वीर लेने में कामयाब हो गये लेकिन तस्वीर आशानुरूप नही थी। मेरे मित्र मुस्तफा देसमंगलम और संपादक आदित्य ने कंप्यूटर पर उस तस्वीर पर काम किया फिर नयी तस्वीर का उपयोग फ़िल्म में किया गया। इसके बाद मैंने अपने कई सामाजिक कार्यकर्ता मित्रों से इस मुद्दे पर चर्चा की। हालांकि भारत में पानी के निजीकरण के खिलाफ कई संघर्ष हुए है लेकिन एक ऐसी महिला है जिसने इस तरह के संघर्ष के लिए अपना जीवन त्याग दिया हो ,ऐसे उदाहरण भारत के आंदोलनों के इतिहास में कम ही मिलते है। भारत में पानी के निजीकरण के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक के रूप में सत्यभामा को याद किया जाना चाहिए।जिसके लिए मैंने कोशिशे भी की लेकिन कभी-कभी आप यह महसूस करते हैं कि जो मर गए वही भाग्यशाली हैं और उनकी यादें उन्हीं लोगों के लिए हैं जो डरावनी कहानियां पसंद करते हैं।
सत्यभामा का नाम मेरे कानो में कई सालों तक गूँजता रहा।कुछ सालों बाद जब मैं कंधमाल गया ,वहां टूटे हुए चर्चों के मलबे के बीच घूमते हुए मैं आदिवासी ईसाईयों और दलित ईसाइयों के चेहरों पर डर साफ देख सकता था। मैं दोबारा सत्यभामा से मिला लेकिन यह सत्यभामा अलग थी फिर भी वैसी ही थी।
एक बार फिर कंधमाल की सत्यभामा, छत्तीसगढ़ की सत्यभामा जैसी ही गरीब महिला थी। दोनों ने अलग-अलग परिस्थितियों में बहुत साहस दिखाया था। कंधमाल की सत्यभामा जीवित है और हमें इस देश की ऐसी सभी सत्यभामा के बारे में जानना चाहिए। यदि हम भारतीय संविधान में लिखे गए 'धर्मनिरपेक्ष भारत' शब्द को समझना चाहते है तो यह हमारे लिए और भी ज्यादा ज़रूरी हो जाता है। इस जीवित सत्यभामा के संदर्भ में, मै आपके साथ कुछ शब्द साझा करना चाहूंगा।
2008 में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या माओवादियों द्वारा कर दी गई थी। जो 1960 के दशक में ओडिशा में ईसाइयों के खिलाफ जहर उगलता था। चूंकि माओवादियों ने हत्या की धमकी दी थी इसलिए स्वामी लक्ष्मणानंद को पुलिस संरक्षण भी दिया गया था। माओवादियों ने अपने इरादों को अंजाम दे दिया। संघ परिवार द्वारा ईसाइयों को हत्या के लिए दोषी ठहराया गया। आदिवासी ईसाईयों और दलित ईसाइयों के लगभग 350 चर्च और पूजा स्थल नष्ट कर दिये गये। 56,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए और 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे। लगभग 5,600 घरों को जलाया गया और 40 से अधिक महिलाएं बलात्कार और छेड़छाड़ की शिकार हुई। कंधमाल जल रहा था और ईसाई डर के साये में जी रहे थे।
इन परिस्थितियों में सात ईसाई सिस्टर का समूह एक हिन्दू महिला सत्यभामा नायक के घर पहुंचा। सत्यभामा और उसका परिवार बड़ी मुश्किल से अपना जीवनयापन कर रहा था। सत्यभामा बहुत अच्छी तरह से जानती थी कि इस समय ईसाई सिस्टर को संरक्षण देने का मतलब खुद के जीवन को जोखिम में डालना है लेकिन उसने साहस का परिचय दिया।
मुझे यह जानने की बहुत उत्सुकता थी कि उसने इतनी हिम्मत क्यों दिखाई ? जिन हिंदुओं ने ईसाईयों को सुरक्षा दी थी वे सभी मारे गए थे। एक स्थानीय हिंदू जो भाजपा का सदस्य भी था उसकी हत्या इसलिए कर दी गई थी क्योंकि उसने संघ परिवार को ईसाइयों पर हमला करने से रोकने की कोशिश की थी। यदि वे अपने ही लोगों के लिये इस हद तक जा सकते थे तो सत्यभामा उनके लिए कोई बड़ा मुद्दा नही थी। मैंने एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के लिए सत्यभामा का साक्षत्कार किया था लेकिन दुर्भाग्यवश फिल्म में किसी भी साक्षात्कार को पूरा साझा कर पाना मुश्किल है।
सत्यभामा अकेली नहीं है आप हर सांप्रदायिक दंगे में सत्यभामा को पाएंगे। मुख्यधारा के मीडिया का ध्यान सनसनीखेज खबरों पर केंद्रित होता है और हिंसा को ज्यादा कवर किया जाता है। सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष विरोध को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है।वास्तविक धर्मनिरपेक्ष लोग जो जमीन पर सामाजिक एकता के लिए प्रतिबद्धता के साथ काम करते हैं आमतौर पर कभी सामने नहीं आ पाते हैं। अगर भारत में अब भी कुछ धर्मनिरपेक्ष परंपराएं बची हुई है तो इसका श्रेय सत्यभामा जैसे लोगों को ही जाता है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति के समय मे सत्यभामा जैसे लोग ही एक मात्र आशा है। ये लोग सामाजिक एकता के लिये काम कर रहे है जबकि भारतीय राज्य कई बार विफल हो चुका है।
कंधमाल की सत्यभामा की कहानी हमें यह समझने का पर्याप्त अवसर प्रदान करती है कि भारत में धर्म सांप्रदायिक हिंसा पैदा नही करता है। यह सिर्फ राजनीति है जो धर्म का उपयोग एक हथियार के तौर पर करती है। हिंसा में शामिल ज्यादातर लोग वास्तव में किसी भी धर्म मे विश्वास नहीं करते। यह डर से भरे लोगों का सिर्फ जन समूह है जो दूसरों के अंदर डर पैदा करने की कोशिश करता है। ये दुनिया मे अपनी पहचान रक्तपात के माध्यम से खोजने कि कोशिश करते है।
अगर यह धर्म है ही जो हिंसा पैदा करता है तो यह बताना ज़रूरी है कि एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार ने मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रोफेसर बन्दूकवाला को उस समय आश्रय दिया जब गुजरात जल रहा था। 1984 में जब दिल्ली में सिखों का नरसंहार हुआ तब विभिन्न धर्मों के लोगो ने इसी तरह की एकजुटता दिखाई थी। गुजरात में मुसलमानों का समर्थन करने के लिए ईसाईयो के साथ-साथ नास्तिक भी आगे आए थे। इस प्रकार की कठिन परिस्थितियों में सामाजिक सद्भाव बनाने की कोशिश करने वालों की सूची लंबी है लेकिन एक बात स्पष्ट है कि हम अज्ञात और अनजान लोगों के अथक प्रयासो के कारण ही अब भी जीवित हैं। इस तरह के प्रयासों को दुनिया के सामने लाना ,सांप्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों को राहत पहुचाने या हिंसा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के समान ही है।
एनी राजा जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की महिला विंग का राष्ट्रीय नेता है, के समक्ष मैंने सत्यभामा का उल्लेख किया तब उन्होंने कहा कि दिल्ली में उनके महिला विंग का एक राष्ट्रीय आयोजन होने वाला है उस समारोह में कंधमाल की सत्यभामा को सम्मानित किया जाना चाहिए। कंधमाल की सत्यभामा और उनकी टीम को दिल्ली में अयोजित एक समारोह में सम्मानित किया गया।एनी राजा ने जो संवेदनशीलता दिखाई उसके लिए उन्हें धन्यवाद।इस तरह के प्रयासो के द्वारा हम भविष्य में सामाजिक समरसता के बीज बो सकते हैं।
जब तूफान आता है तब बड़े पेड़ गिर जाते हैं लेकिन छोटे पौधे जीवित रहते हैं। हमारा राजनीतिक विचार हमें छोटे पौधों को देखने से प्रतिबंधित करता है। सांप्रदायिक दंगो के समय मानवता के साथ खड़े रहने के लिए अधिक साहस की आवश्कता होती है। कंधमाल की सत्यभामा इसी सामाजिक सौहार्द्रता का प्रतिनिधित्व करती हैं।
हमारी भारतीय अस्मिता ने रक्त का स्वाद चखा है। हमारी आत्माओं से रक्त की इस गंध को दूर होने में लंबा समय लगेगा। सभ्यता के रूप में हमारा विकास रक्तपात के साथ हुआ है।यह वह समय है जब हमें उन सभी प्रयासों समझना होगा जो इस गंध को दूर करने के लिये किये जा रहे हैं। ये हमारा भविष्य हैं।
कंधमाल से सत्यभामा बताती है
मेरा नाम सत्यभामा नायक है, मैं एक हिंदू हूं और हिंदू रीति रिवाजों का पालन करती हूं। हिंसा के दिन, जब दंगाई आस पास घूम रहे थे बालिगुड़ा कॉन्वेंट की सात सिस्टर अचानक मेरे घर आ पहुंची। मैं उस समय अकेली थी और घर के पीछे, पकाने के लिए चावल साफ़ कर रही थी। बालिगुड़ा कॉन्वेंट का रसोइया मुझे अच्छी तरह से जनता था।पिछली बार की हिंसा के दौरान (2007 में) कुछ ईसाई थोड़े दिनों के लिए मेरे घर में छिपे हुए थे। कॉन्वेंट की सिस्टर झाड़ियों को पार कर, पीछे की ओर से मेरे घर आयीं थीं। कांटेदार झाड़ियों को पार करने के कारण उन सभी को चोट लगी थी और खून बह रहा था। मैं बहुत आश्चर्यचकित थी। मैंने अपने भतीजे को यह पता लगाने के लिए भेजा कि ये शोर क्यों हो रहा है? वह बाहर गया और वापस आकर मुझे बताया कि दंगाई पास आ रहे हैं। मैंने तुरंत दरवाजा बंद किया और चाबी ब्लाउज के अंदर डाल ली और बाहर चली गई। इस बीच दंगाई कुछ दूरी से चिल्ला रहे थे। मैं भयभीत थी और भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि मेरी और सिस्टरों की रक्षा करना जो मेरे घर मे आश्रय लिए हुए है। दंगाइयों ने मुझसे पूछा, तुम कहाँ जा रही हो? मैंने जवाब दिया कि मैं आप लोगो के शोर शराबे से परेशान हूं। उन्होंने कहा:तुम एक हिंदू हो तुम परेशान क्यों हो ? उन लोगों ने कहा तुम अपने घर वापस जाओ।मैंने कहा है कि किसी के माथे पर नहीं लिखा है कि कौन हिंदू है और कौन ईसाई। उन्होंने कहा :तुम मुसीबत क्यो मोल ले रही हो ? तुम अपने घर वापस जाओ। मैं भीड़ के साथ घुल-मिल गई और जब उन्होंने चर्च पर हमला करना शुरू किया तो कुछ लोग सड़क के दूसरी ओर चले गए और कुछ लोग सड़क पर ही रुके रहे। मैं सड़क पर उनके साथ खड़ी रही अगर मैं वापस जाती तो उनमें से कुछ लोग पानी या माचिस मांगने के लिए मेरे घर आ सकते थे। सिस्टर एक या दो नहीं थीं रसोइये को मिलाकर उनकी एक बड़ी संख्या थी जो मेरे घर मे आश्रय लिए हुए थे।
कुछ दंगाइयों ने पास ही के दूसरे घर पर हमला करना शुरू कर दिया। मैंने उनसे कहा: इस गरीब के छोटे से घर पर हमला करके तुम लोगो को क्या मिलेगा? इसके बजाय चर्च पर हमला करो ताकि तुम लोग को कुछ श्रेय मिल सके लेकिन उन्होंने घर और चर्च दोनों पर हमला किया।
मैंने भीड़ का पीछा किया वे सीधे जा रहे थे तभी एक लड़के ने कहा: एक पादरी पास ही रहता है उस पर हमला करते।उन्होंने पादरी के घर पर हमला किया और गैस सिलेंडर में आग लगा दी और मुझे चेतावनी दी कि तुरंत इस जगह को छोड़ दो क्योंकि गैस सिलेंडर फटने वाला था। उस घर को नष्ट करने के बाद वे वापस चले गए। मैंने सोचा मेरे बच्चे परेशान हो रहे होंगे, मैं अपने घर वापस आ गई तब मैंने देखा कि सभी सिस्टर रो रही थी।
इस बीच एक महिला कंजमानी से भोजन लेकर आई। उसके बच्चे पहले से ही यहां थे। उसने मुझे बताया कि दंगाइयों ने वहां एक नन के साथ बलात्कार किया और वह अब जीवित है या नही ये उसे नही मालूम।मैंने ननों को इस घटना के बारे में बताया। जब उक्त घटना घटित हुई थी तब वह नन एक हिंदू घर मे आश्रय लिए हुए थी। ये सुनकर सारी सिस्टर बहुत डर गयी। उन्होंने सोचा कि वे भी एक हिंदू घर में रह रही है और दंगाइ मेरे साथ भी बुरा बर्ताव कर सकते है। मैंने उनसे कहा आप लोग ऐसा मत सोचिए मुझे कुछ नहीं होगा।आप लोग चिंतित न हों और अगर ऐसा कुछ हुआ तो मैं तुरंत आप लोंगो को बाहर भेज दूंगी।
उस समय हम सब का जीवन खतरे में था। मैंने ननों से कहा कि अगर कोई बाहरी व्यक्ति इस घर में आता है तो आप लोग दो कमरों में छिप जाना। जब घर पर हमारे लोग भी आते थे, तब भी वे खुद को छुपा लेते थे। वे एक कमरे में एक चटाई पर हमारी बकरियों के साथ सोते थे।
मेरे एक पड़ोसी जिनकी पत्नी प्राध्यापक है उन्होंने मुझसे कहा: दंगाई ईसाई लोगों की खोज कर रहे हैं जो हिंदू घरों में छिपे हुए हैं। यदि तुम खुद को बचाना चाहती हो तो ननों को अपने घर से बाहर भेज दो। मैंने जवाब दिया जो कुछ भी हो जाए मैं सभी परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार हूं लेकिन मैं उन्हें बाहर नहीं भेज सकती। मैं उन्हें घर छोड़ने के लिए कैसे कह कह सकती हूं?
मैंने पास ही के घर में एक कमरे के लिए अनुरोध किया। उस घर का मालिक उस समय केरल में था। इस कमरे में कम से कम कुछ सिस्टर दिन के वक्त आराम कर सकती थी लेकिन उन्होंने शरण देने से इंकार कर दिया।उन्होंने कहा: हम अपने घरों में नन और फादर को छिपने की अनुमति नहीं देंगे। वे सिस्टरों की मदद करने के लिए तैयार नहीं थे। मैने सिस्टरों को इस बारे में बताया तो वे सभी रोने लगीं फिर मैं भी उनके के साथ रोने लगी। तब उन्होंने मुझे कहा कि हमारे पास कोई जगह नहीं है लेकिन तुम ने हमें शरण दी, तुम क्यो रो रही हो?अगली सुबह मैं उन्हें पास के जंगल में ले कर गयी और वहां उनके साथ रही। मेरी बेटी ने उनके लिए भोजन तैयार किया और हम ने उन्हें वहां भोजन कराया। जब मैं उन्हें छोड़ कर वापस आ रही थी तब वो सभी डर से रो रही थी। मैंने उन्हें बदलने के लिए अपने कपड़े दिए और उनके कपड़े घर ले आयी। उन्होंने जंगल में दो से तीन दिन बिताए। हम ने वहां उन्हें भोजन दिया।
तीन दिन बाद सीआरपीएफ की वैन में पुलिस आई।जो आगे काफी निकल चुकी थी और जब वह लौट रहे थे तब मेरे बेटे ने वैन को रुकवाया। तब हम पेड़ के नीचे बैठे हुए थे। मजिस्ट्रेट और उप कलेक्टर ने मुझ से मेरे परिवार के प्रमुख और मेरे बेटे के बारे में पूछा। उन्होंने मुझे कार्यालय में आने के लिए कहा लेकिन मैंने नहीं गयी। फिर सिस्टर लोग उनके साथ चले गए। दो दिन बाद उन्होंने ने आकर अपने कपड़े लिए और अन्य स्थानों पर चले गए।
हम उनके लिए दुखी थे। मेरे साथ-साथ, मेरे बेटे और दामाद ने भी उनके लिए काफी संघर्ष किया। पूरा बाजार बंद था, भोजन का प्रबंध करना मुश्किल था लेकिन हम किसी तरह व्यवस्था करने में कामयाब रहे। यहां तक कि सीआरपीएफ ने मेरे बेटे का पीछा भी किया। वे उसे ले जा भी सकते थे लेकिन भगवान की कृपा से हम सब अब खुशी से जी रहे हैं।
वो लोग सात दिनों तक यहां रहे। कुल मिलाकर हमें तेरह लोगों के लिए भोजन तैयार करना होता था। सिस्टर की संख्या सात थी और एक सिस्टर छत्रपुर से एक लड़की के साथ आई थी और कुछ लड़कियां कॉन्वेंट की थी। कुल संख्या तेरह थी इनके अतिरिक्त दो छोटे बच्चे भी थे। विद्यालय के छात्र भी मेरे घर में भोजन करते थे। हमें पूरे दिन खाना बनाना पड़ता था। हमारे पास पचास किलो चावल की बोरी थी फिर हमने पच्चीस किलो चावल और खरीदा। भगवान की कृपा से चावल मिल गया। हम बहुत गरीब लोग हैं हम केवल तब खाते हैं जब हम चावल खरीदते पाते हैं। भगवान ने हमें सही समय पर भोजन प्रदान किया। मुझे लगता है कि भगवान मेरे साथ हैं। हमारे लोग मुझ से नफरत करते है


