समय की माँग है वामपन्थी दलों की एकता
समय की माँग है वामपन्थी दलों की एकता
डॉ. गिरीश
देश के मौजूदा राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक हालात ऐसे हो गये हैं कि आज के सभी वामपन्थी दल राष्ट्रीय क्षितिज पर एकजुट होकर देश के राजनीतिक विकल्प के रूप मे अपने को प्रदर्शित करें तो इसमे कोई शक नहीं कि उनकी अतीत की खोई हुयी ताकत का एहसास भी फिर से हो जायेगा और उन्हें अपना वजूद भी नये परिवेश मे बनाये रखने का मार्ग अवश्य ही मिल जायेगा। केवल उन्हें नयी राजनीतिक स्थिति में देश के किसान, मजदूर, दलित, शोषित की समस्याओं को तरजीह देने तथा आम जनता को जातिवाद के चँगुल से निकालने और उसके हितों की सुरक्षा के लिये नयी सोच का संचार करने का संकल्प लेकर काम करने को वरीयता देनी होगी। इस स्थिति की आवश्यकता इस बात के लिये भी महसूस की जा रही क्योंकि आज के जो बड़े राजनीतिक दल हैं वे दलगत -जातीय-क्षेत्रीय राजनीति के सहारे अपने को सर्वोच्च सत्ता पाने की होड़ को वरीयता देने में जुटे हैं और इन्ही मुद्दों के आधार पर उनकी राजनीतिक शक्ति का भी प्रदर्शन हो जा रहा है। ऐसी स्थिति में जातियों के नेता जिनकी संख्या उनके समाज की संख्या के अनुपात में काफी कम होती है, वे ही राजनीतिक लाभ उठाते हैं और कभी-कभी तो ऐसे लोग अपने ही समाज के प्रति कठोर बनने में भी संकोच नहीं करते हैं जिसके कारण उनका एक बड़ा वर्ग असंतुष्ट होता है और जब ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा हो जाती है तो सम्बन्धित व्यक्ति को अपनी कसक का इजहार करके सबक सिखाने का काम करते हैं। ऐसी स्थिति होने पर समाज के उन चन्द लोगों को अपने पर केवल पक्षतावा करने के अतिरिक्त कुछ कर पाना मुश्किल हो जाता है और इनकी अहमियत भी समाप्त सी हो जाती है और फिर नये सिरे से यही स्थिति जन्म लेती है जिसके बदले हुये परिणाम आने स्वभाविक होते हैं। शायद इस समय कुछ ऐसा ही होने की स्थिति के आसार बन रहे हैं।
इतिहास के झरोखे से देखें तो रूस मे क्रान्ति आने के बाद 1925 मे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनी और इसके बाद समाजवाद के रास्ते पर देश के चलने की स्थिति का प्रादुर्भाव हुआ। भारत में देश की आज़ादी की लड़ाई के लिये आन्दोलन चल रहा था। इस समय भारत की आज़ादी के लिये काँग्रेस के नेतृत्व में जो आन्दोलन चल रहा था उसके अन्तर्गत अंग्रेजों की व्यवस्था को सुधारने वाला सुझाव देने और अपने आन्दोलन को गति देने का काम किया जा रहा था। शहीद भगत सिंह ने उस समय रूस की क्रान्ति से प्रभावित होकर समाजवादी व्यवस्था के निर्माण की बात को तरजीह दी और कहा कि ऐसी स्थिति में गोरे के जाने और काले अँग्रेज़ के सत्ता मे आने के बाद किसान, मजदूर, गरीब व दलित की सत्ता में भागीदारी नहीं हो पायेगी। यह स्थिति ज़्यादा दिन नहीं चली और कम्युनिस्ट पार्टी जो काँग्रेस के कयादत में काम कर रही थी उसके 1929 में कामरेड मौलाना हसरत मोहानी ने काँग्रेस के कानपुर के अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा जिससे नाराज़ होकर गाँधी जी ने स्वयंसेवकों के जरिये उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जिस पर उन्होने सात दिन का अनशन भी किया। इस प्रकरण के कारण काँग्रेस में गरम दल व नरम दल की स्थिति बनी और 1931 के काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित कर दिया गया। इस समय तक काँग्रेस में बड़े-बड़े बैरिस्टर, वकील व अन्य आर्थिक -सम्पन्न लोगों के होने के बाद भी जनान्दोलन की स्थिति नहीं बन पायी थी। इस स्थिति के कारण कम्युनिस्ट पार्टी में किसान, मजदूर, दलित व अन्य सामाजिक लोगों को अलग-अलग जोड़ने के लिये छोटे-छोटे संगठनों का निर्माण किया।
काँग्रेस और कम्युनिस्टों ने मिल कर 1920 में आल इण्डिया ट्रेड यूनियन काँग्रेस (एटक) तथा शहीद भगत सिंह ने 1925 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी बनायी जो बाद में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी बनी, नौजवान भारत सभा का गठन भी इन्हीं दिनों हुआ। इसके अलावा स्वामी सहजानन्द सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन और दूसरे कम्युनिस्ट नेताओं की पहल पर अखिल भारतीय किसान सभा तथा ऑल इण्डिया स्टूडेण्ट फेडरेशन का भी गठन हुआ। ऑल इण्डिया स्टूडेण्ट फेडरेशन का सम्मेलन 12 से 14 अगस्त को अमीनाबाद के गंगा प्रसाद हाल में हुआ इसमें जवाहर लाल नेहरू ने भी भाग लिया था और फेडरेशन के पहले राष्ट्रीय महासचिव लखनऊ के प्रेम नारायण भार्गव बने थे। इसके बाद 1936 में ही प्रगतिशील लेखक संघ तथा 1941 में जननाट्य संघ (इप्टा) का गठन हुआ। 1949 में जमींदारी प्रथा की समाप्ति तथा 1950 के बाद देश के विकास के लिये बनने वाली प्रथम पंचवर्षीय योजना के निर्माण में भूमिका निभाने का कम्युनिस्टों ने योगदान किया। ज़मीनें बँटवाने के लिये विशेष भूमिका का निर्वहन किया और स्थिति यह रही कि आन्दोलन चला कर सीतापुर व लखीमपुर में नौ हज़ार एकड़ भूमि को गरीबों में बाँटने का काम किया गया। इस प्रकार कम्युनिस्ट दल के लोग काँग्रेस को किसान व मजदूरों के हित में काम करने को बाध्य कर रहे थे।
परन्तु इसी दौरान चीन ने 1962 में देश पर आक्रमण किया। इसके बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में चीन के आक्रमण के समर्थक और विरोधी गुटों में पहले आन्तरिक चर्चा शुरू हुयी और इस स्थिति में जब तेजी आयी तो पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक आहूत की गयी। इसी बैठक में चीन के आक्रमण की निन्दा किये जाने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया जिसका पार्टी के 32 लोगों ने विरोध किया। बाद में कई अन्य मुद्दों को लेकर 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हो गया और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो गया। चीन के हमले का समर्थन करने वाले 32 लोग मार्क्सवादी पार्टी में चले गये। इस स्थिति के बाद भी भाकपा, काँग्रेस के साथ मिल कर काम कर रही थी किन्तु इन दोनों दलों का असर काँग्रेस के लोगों पर भी पड़ा और 1969 में काँग्रेस 'इंडिकेट' और 'सिंडीकेट' में विभाजित हो गयी। 1969 में माकपा के बीच में एक नया विभाजन हुआ जिसमें नक्सलवादी आन्दोलन के लोगों ने चारू मजूमदार के नेतृत्व में सीपीएमएल (माले) का गठन किया। इसके बाद भी इस दल में कई विभाजन हुये। इस बीच भी वामपन्थी दलों के दबाव ने राजाओं-महाराजाओं के प्रवि -पर्स को वापस लेने और बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने को काँग्रेस को बाध्य किया।
1975 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने देश में आपात काल लागू किया था। इस समय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1977 में अपनी कान्फरेंस में काँग्रेस के इस मूव का विरोध किया जबकि दल के अध्यक्ष एस.ए. डाँगे ने न केवल इस निर्णय का विरोध किया बल्कि 'ऑल इण्डिया कम्युनिस्ट पार्टी' का गठन कर डाला और अपनी पुत्री रोज़ा देश पांडे को इसका अध्यक्ष बनवाया। हालाँकि डाँगे के नेतृत्व वाली पार्टी उनके जीवन काल में ही समाप्त हो गयी। इस प्रकार वामपन्थी दल केरल,त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में भाकपा, माकपा, आरएसपी, फारवर्ड ब्लॉक आदि संयुक्त रूप से मिलकर चुनाव में शिरकत करते हैं जिसके कारण इन राज्यों में वामपन्थी दलों की सरकारें भी बनती हैं किन्तु अन्य राज्यों में इनका यत्र-तत्र ही प्रतिनिधितित्व होता रहा है। यही स्थिति कमोबेश उत्तर प्रदेश में भी रही है। उत्तर प्रदेश में भाकपा के सर्वाधिक 16 विधायक राज्य विधानसभा में पूर्व मुख्यमन्त्री हेमवती नन्दन बहुगुणा के समय में रहे जबकि माकपा के चार विधायक एक साथ राज्य विधानसभा में पहुँच सके। सांसदों की स्थिति भी उत्तर प्रदेश से कम ही रही है।
बहरहाल उत्तर प्रदेश की राजनीतिक स्थिति में 1980 के बाद कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का प्रादुर्भाव हुआ। इसी दौरान भारतीय जनता पार्टी बड़े स्वरूप में आयी। बहुजन समाज पार्टी भी अपने अन्तिम रूप में आने के पूर्व कई आवरण में जनता के समक्ष प्रदर्शित हुयी है। परन्तु यह दल अपने स्वरूप में परिवर्तन करने के बाद भी दलित राजनीति को वर्चस्व देने की हिमायती रही है। समाजवादी पार्टी के 'क्रान्ति रथ' के सहारे मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीति को शिखर तक ले जाने का काम किया। भाजपा ने भी अयोध्या के विवादित ढाँचे के प्रकरण को उछाल कर अपने वर्चस्व को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की। इन स्थितियों मे काँग्रेस के खिलाफ अन्य राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से काम करने में जुटे रहे जिसके कारण वह कमजोर हुयी और क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ने लगा। 1989 में अयोध्या में विवादित ढाँचे को लेकर तनावपूर्ण स्थिति निर्मित हुयी और उसमें उत्तर प्रदेश की राजनीति में काँग्रेस सत्ता से बाहर हुयी और विरोधी दल की भूमिका में आ गयी। 1991 में भाजपा की प्रदेश में मुख्यमन्त्री कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। यह सरकार 1992 में अयोध्या का विवादित ढाँचा गिरने के बाद गिर गयी। दूसरी ओर संयुक्त दलों की सरकारों का दौर शुरू हो गया। इसी दरम्यान समाजवादी पार्टी ने साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ सशक्त मोर्चा खोलने के लिये वामपन्थी दलों का भरपूर दोहन किया और इसके बदले उन्हें विधानसभा चुनावों में सीटों को देकर उनकी मदद करने और अपने दल के प्रत्याशी नहीं उतारने का वादा किया। यह वादा ज़्यादा दिनों तक नहीं चला। इसी बीच सपा ने बसपा के साथ मिलकर प्रदेश में सरकार का गठन किया। हालाँकि यह गठबंधन ज़्यादा समय तक नहीं चल पाया। नौवें दशक के उत्तरार्ध में होने वाले विधानसभा चुनावों में वामपन्थी दल मिलकर और समझौते के आधार पर चुनाव लड़ने का काम करते रहे और इसके कारण 2007 तक विधानसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतिनिधित्व रहा किन्तु 2007 व 2012 के सामान्य विधानसभा चुनाव में इन दलों का अस्तित्व विधानसभा में समाप्त हो गया। इन दोनों विधानसभा चुनावों में भी वामपन्थी दल एक होकर कुछ नहीं कर पाये। आज इन दोनों दलों को सपा, भाजपा, काँग्रेस व बसपा की ओर से किसी प्रकार का जुडने का संकेत नहीं मिल रहा है। आज ये वामपन्थी दल साम्प्रदायिकता के विरोध में सपा का साथ देने तथा आज़ादी की लड़ाई से लेकर आज़ादी के बाद तक काँग्रेस के साथ मदद करने वाले का सहारा देने वाला कोई नहीं है और इन दोनों ही दलों को आज़ादी के आन्दोलन के समय जिस प्रकार किसानों, मजदूरों, दलितों व शोषितों व समाज के अन्य सभी तबके के लोगों को संगठित करने की नीति को किया और जिसके आधार पर अपनी वर्चस्वता हासिल की थी, उसी स्थिति और उसी रणनीति को आज भी अपनाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। इस आवश्यकता की प्रतिपूर्ति के लिये राष्ट्रीय स्तर पर सभी वामपन्थी दलों को एकजुट होकर नये राजनीतिक विकल्प के रूप में सक्रिय होने की नीति से काम करने पर ज़ोर दिया जाये तो आधुनिक परिवेश में राजनीतिक स्थिति में सुधार आने में कोई बाधा नहीं आने वाली है। ऐसा उस स्थिति में और भी आवश्यक हो जाता है जब लोग स्वार्थी राजनीति के चक्कर में फँस कर अंधेरे में गुम सा हो जाने से परेशानी की स्थिति में सहारे की ज़रूरत का एहसास करने लगे हों। भले ही लोगों का यह एहसास आम जनमानस की वाणी नहीं बन पाया हो किन्तु यह हकीकत है और इस दिशा में आपसी कटुता और स्वार्थी नीति को त्याग कर एक होकर समर्पित भाव से जनता की सेवा भावना को वरीयता दिये जाने पर स्थिति स्पष्ट हो जायेगी और नई रोशनी भी
मिलेगी जो भविष्य में बेहतर समय के प्रतीक के रूप में बनकर दिखेगी।
(डॉ. गिरीश भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य इकाई के सचिव हैं। उनका यह लेख मूल रूप से क्रांति स्वर ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है। क्रांति स्वर से साभार )


