समाजवादी पार्टी- जो कमी थी वह भी पूरी हो गई !

अंबरीश कुमार
समाजवादी पार्टी में गृह युद्ध छिड़ा हुआ है.
पार्टी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ने चुनाव से पहले समूचे युवा नेतृत्व को बर्खास्त कर इस पार्टी को कितना मजबूत किया, यह तो वही बता सकते हैं या फिर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव जो पार्टी और परिवार बचाने के लिए यह फार्मूला लाये थे.
अब अमर सिंह भी आ गये हैं पार्टी मजबूत करने. यह मुलायम सिंह का फैसला है.
मुलायम सिंह ने यह भी कहा कि अगर वर्ष 2012 में शिवपाल सिंह की सलाह मान कर वे अखिलेश की बजाय खुद मुख्यमंत्री बने होते तो पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें 40 सीट मिल जातीं.

मुलायम सिंह यादव 50 साल का राजनैतिक अनुभव बटोरने के बाद अगर यह टिप्पणी करते हैं, तो हैरानी होती है.

मुलायम सिंह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे पर राजनैतिक हालात के चलते कभी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये. वह कभी इस सूबे में 40 सीट भी नहीं जीत पाये, जिसके जीतने की उम्मीद उन्हें 2014 के उस लोकसभा चुनाव में थी, जिसमें मोदी लहर चल रही थी.
साफ़ है मुलायम सिंह यादव मुगालते में थे और हैं.
दूसरा तथ्य, पिछले साढ़े चार साल में कब वह उत्तर प्रदेश के सुपर मुख्यमंत्री की तरह पेश नहीं आये? कौन सा फैसला उन्होंने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को स्वतंत्र रूप से लेने दिया?

विधान सभा चुनाव जीतने के बाद मंत्रिमंडल के गठन से लेकर हाल ही में निकाले गये मुख्य सचिव दीपक सिंघल तक का फैसला इसकी बानगी है.

दीपक सिंघल कौन हैं, किस प्रतिभा के धनी हैं और किसने उन्हें मुख्य सचिव बनवाया यह कौन नहीं जानता?

समूक्षा विपक्ष तंज कसता रहा कि उत्तर प्रदेश में चार मुख्यमंत्री हैं, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, शिवपाल यादव और आजम खान.

क्या यह तंज मुलायम सिंह को नहीं सुनाई पड़ता था?
जिस चेहरे को सामने कर समाजवादी पार्टी ने विधान सभा का चुनाव जीता था उसे साढ़े चार साल तक स्वतंत्र ढंग से काम नहीं करने दिया गया और अंत में चुनाव से पहले उसकी समूची नौजवान टीम को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

यह वही चेहरा था जिसने समाजवादी पार्टी का चाल,चरित्र और चेहरा बदल दिया. वह प्रदेश जो पिछले तीन दशक से विकास नाम का शब्द भूल गया था उस प्रदेश में विकास अब दिखता है. लखनऊ में मेट्रो से लेकर आगरा एक्सप्रेस वे तक. नये शिक्षा संस्थान, मेडिकल कालेज, स्वास्थ्य से लेकर कई क्षेत्रों में कुछ न कुछ नया हो रहा है.
पहले से भी तुलना कर लें.
सात-आठ साल पहले तक समाजवादी पार्टी की पहचान उसके बाहुबली होते थे. लाठी और पकड़ जैसे शब्द इसके पर्याय होते थे.

सन् 2012 का विधान सभा चुनाव लाठी नहीं लैपटॉप की वजह से मशहूर हुआ और उस चुनाव का चेहरा अखिलेश यादव थे.

याद है जब अखिलेश ने अपनी यात्रा शुरू की बुंदेलखंड की तरफ से तो दिल्ली तो दूर लखनऊ के मीडिया ने भी हफ्ते भर तक कोई खबर नहीं दी. इन हालात में अखिलेश यादव ने उस चुनाव का एजेंडा बदल दिया और समाजवादी पार्टी की लाठी वाली पहचान भी बदल दी. मध्य वर्ग का अगड़ा नौजवान पहली बार इस पार्टी से जुड़ा. उनकी उम्मीद भी थी और उसपर काम भी हुआ. पर चुनाव से पहले पार्टी में जो कुछ हो रहा है उससे पहले नंबर पर खड़ी इस पार्टी को नीचे लाने का प्रयास ही माना जा सकता है.
पार्टी दो खेमों में बंट चुकी है. जरा चेहरों पर गौर करें.
एक खेमे में अमर सिंह, शिवपाल यादव से लेकर गायत्री प्रजापति हैं तो दूसरी तरफ अखिलेश यादव के साथ राजेंद्र चौधरी और समाजवादी नौजवानों का हरावल दस्ता है. आज की राजनीति में समाजवादी मूल्यों में जीने वाला बड़ा चेहरा राजेंद्र चौधरी का है, जिन्हें चौधरी चरण सिंह ने राजनीति में आगे बढ़ाया था. उन पर आरोप लगाया गया कि वे कोई काम नहीं करते.

ठीक आरोप है. वह ठेका, पट्टी, सिफारिश के किसी काम में कोई मदद नहीं करते. वह लखनऊ में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक बड़ा और ऐतिहासिक जेल म्यूजियम बनवाने की योजना शुरू कर रहे थे, तो उनका विभाग ही बदल दिया गया. ऐसे में इन आरोपों का कोई अर्थ नहीं है.

इस समय अखिलेश के साथ खड़े सभी समर्पित और जुझारू चेहरों पर हमला एक सोची समझी साजिश है. उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के बाद समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास शुरू हो चुका. कौन लोग पीछे हैं यह अब किसी से छुपा नहीं है.

उत्तर प्रदेश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति में समाजवादी पार्टी ही नहीं किसी और पार्टी में भी अखिलेश यादव जैसा कोई विकल्प नहीं है. यह बात और कोई भले न समझे मुलायम सिंह यादव को जरूर समझनी चाहिये.

(शुक्रवार)