समान नागरिक संहिता - एक राजनैतिक धोखा
समान नागरिक संहिता - एक राजनैतिक धोखा
समान नागरिक संहिता - एक राजनैतिक धोखा
-नेहा दाभाड़े
हाल में केन्द्रीय विधि मंत्रालय ने विधि आयोग से कहा है कि वह देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने के मुद्दे पर अपनी राय दे। यूसीसी, देश की स्वतंत्रता के समय से ही बहस और विवादों का मुद्दा बनी रही है।
इस बहस में कई उतार-चढ़ाव आए और इसके तेवर, राजनैतिक परिस्थितियों और शासक दल की राजनैतिक विचारधारा के आधार पर बदलते रहे।
यद्यपि सार्वजनिक विमर्श में यूसीसी की चर्चा बहुत होती है तथापि उसके असली अर्थ से बहुत कम लोग वाकिफ हैं।
वर्तमान में विभिन्न समुदायों में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, बच्चों की अभिरक्षा, बच्चों को गोद लेने व भरणपोषण के संबंध में अलग-अलग कानून प्रचलित हैं। इनमें हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937, क्रिश्चियन मैरिज एक्ट व पारसी मैरिज एंड डायवोर्स एक्ट शामिल हैं।
यूसीसी इन सभी पारिवारिक कानूनों का स्थान लेगी।
भाजपा नेता वेंकय्या नायडू ने हाल में प्रकाशित अपने एक लेख में यूसीसी की वकालत करते हुए कई तर्क दिए। उनका कहना था कि महिलाओं के साथ धार्मिक आधार पर भेदभाव किया जाता है। उन्होंने यूसीसी को धर्मनिरपेक्षता का महत्वपूर्ण तत्व और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाला बताया। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह यूसीसी लागू करे।
यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि यूसीसी लागू करना बहुत आसान है और वांछनीय भी, परंतु सच यह है कि इसे लागू करने में ढेर सारी समस्याएं हैं और इस पूरे मुद्दे को ठीक से समझा जाना आवश्यक है।
यद्यपि भारत के स्त्रीवादी आंदोलन ने अपने शुरूआती दौर में यूसीसी लागू करने की मांग की थी परंतु बाद में उसने यह मांग करना बंद कर दी।
स्त्रीवादी आंदोलन के नेताओं को यह एहसास हो गया कि यूसीसी की बात सिर्फ इसलिए की जा रही है, ताकि अल्पसंख्यकों का दानवीकरण किया जा सके और उनके धार्मिक कानूनों के स्थान पर, हिन्दू श्रेष्ठी वर्ग के उतने ही, या शायद उनसे ज्यादा, पितृसत्तात्मक परपंराओं को देश पर लादा जा सके।
आज यूसीसी के पक्ष में सबसे ज्यादा बढ़चढ़कर बातें भाजपा और हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा की जा रही हैं।
भाजपा द्वारा यूसीसी के पक्ष में जो तर्क दिए जाते हैं उनमें यह निहित हैं कि हिन्दू महिलाएं स्वतंत्र हैं और हिन्दू पारिवारिक कानूनों में सुधार के ज़रिए उन्हें समानता का अधिकार प्राप्त हो गया है।
तथ्य यह है कि हिन्दू कानून न तो लैंगिक दृष्टि से न्यायपूर्ण हैं और ना ही महिलाओं को समान अधिकार देते हैं।
हिन्दू राष्ट्रवादी यह प्रचार भी करते हैं कि मुस्लिम महिलाओं के साथ घोर भेदभाव होता है और बहुपत्नि प्रथा और मुंहजबानी तलाक की परंपराओं के चलते, वे बहुत परेशान और दुःखी हैं।
हिन्दू राष्ट्रवादियों का कहना है कि यूसीसी, मुस्लिम महिलाओं को उनके दुखों और कष्टों से मुक्ति दिलवाएगी।
इस लेख में हम इन सभी तर्कों का विस्तार से अध्ययन करेंगे।
सबसे पहले हम यह जानेंगे कि यूसीसी लागू करना राज्य के लिए संवैधानिक दृष्टि से आवश्यक नहीं है क्योंकि यह संविधान के राज्य के नीति निदेशक तत्वों संबंधी अध्याय का भाग है और मूलाधिकारों के विपरीत, नीति निदेशक तत्वों के लागू न किए जाने को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
नीति निदेशक तत्वों को लागू करने की कोई समयसीमा भी निर्धारित नहीं है।
ये तत्व मात्र राज्य के पथ-प्रदर्शक हैं। नीति निदेशक तत्वों में कई महत्वपूर्ण प्रावधान हैं, जिनमें शामिल हैं ‘‘समाज के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस तरह बंटा हो कि सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो’’ और ‘‘नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त हों’’।
अगर ये प्रावधान लागू किए जाएंगे तो इससे देश में हो रही किसानों की आत्महत्याएं रूक सकेंगी और हमारे देश को भुखमरी से मुक्ति मिल सकेगी। परंतु एनडीए सरकार जो नीतियां अपना रही है, वे इन प्रावधानों के विपरीत हैं।
ऐसा लगता है कि एनडीए सरकार की रूचि केवल गौरक्षा में है।
यह सोचना मूर्खता होगी कि यूसीसी लागू होने से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलेगा। अमरीका, जिसे एक बहुत मज़बूत राष्ट्र कहा जाता है, में 50 विभिन्न पारिवारिक कानून लागू हैं और देश के सभी 50 राज्यों में अलग-अलग आपराधिक कानून हैं। एक-से कानूनों से राष्ट्रीय एकीकरण बढ़ता है यह मानना अनुचित होगा। बहुवाद से राष्ट्रीय एकता प्रभावित नहीं होती। उल्टे, सांस्कृतिक विभिन्नताओं और अलग-अलग समुदायों को उनके सामाजिक रीतिरिवाजों का पालन करने का अधिकार देने से प्रजातंत्र मज़बूत होता है।
पारिवारिक कानून, विभिन्न समुदायों को यह अधिकार देते हैं कि वे अपने-अपने धर्मों के अनुरूप अपने सामाजिक रीतिरिवाजों और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखें। अगर सभी समुदायों पर एक-से कानून लादे जाएंगे तो इससे सामाजिक अलगाव बढ़ेगा।
यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि हम यह जानें कि क्या हिन्दू कानून लैंगिक दृष्टि से न्यायपूर्ण हैं और क्या उन्हें अन्य समुदायों पर लागू करना उचित होगा?
अगर कोई हिन्दू महिला, बिना वसीयत के मर जाती है तो उसकी सम्पत्ति का निपटारा किसी ऐसे ही पुरूष की सम्पत्ति से भिन्न तरीके से किया जाता है। अगर किसी हिन्दू महिला के पति या बच्चे जीवित न हों तो उसके पति के परिवार को उसकी सम्पत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त होती है। हिन्दू महिलाओं को बच्चे गोद लेने का अधिकार नहीं है जबकि उनके पति, बिना उनकी सहमति के, बच्चे गोद ले सकते हैं। अपने पति के जीवनकाल में कोई महिला अपने बच्चों की प्राकृतिक संरक्षक नहीं होती।
कुछ प्रावधानों को बदला भी गया है परंतु इससे ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं आया है।
हिन्दू महिलाओं को अपने पतियों से गुज़ारा भत्ता प्राप्त करने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यद्यपि हिन्दू पुरूषों को एक से अधिक विवाह करने की इजाजत नहीं है परंतु वे ‘रखैल’ तो रख ही सकते हैं और रखते भी हैं।
हिन्दू कानून के अनुसार, सप्तपदी और कन्यादान जैसी परंपराएं वैध विवाह के आवश्यक तत्व हैं परंतु कई ऐसे हिन्दू समुदाय हैं, जिनमें इन प्रथाओं का पालन नहीं किया जाता और इस प्रकार उनके विवाहों को मान्यता नहीं मिलती। ऐसी विवाहित महिलाओं को न तो कानून का संरक्षण मिलता है और ना ही उनके विधिक अधिकार।
यूसीसी को लागू करने का प्रयास नेहरू और डॉ. अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के ज़रिए किया था।
जब हिन्दू कोड बिल संसद में प्रस्तुत किया गया, तब हिन्दू महासभा के नेताओं एनसी चटर्जी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका कड़ा विरोध किया और कहा कि यह बिल, हिन्दू समाज के लिए एक खतरा है और इसके लागू होने से हिन्दू समाज बिखर जाएगा।
इस बिल के ज़रिए हिन्दू कानून में कुछ सीमित सुधार लाने का प्रयास किया गया था। इसमें तलाक की प्रक्रिया निर्धारित की गई थी और पुत्रियों को अपने पिता की सम्पत्ति में उनकी विधवा और पुत्रों के बराबर अधिकार दिए गए थे।
यह विधेयक कुछ कांग्रेस नेताओं को भी स्वीकार्य नहीं था जिसके कारण डॉ. अंबेडकर को विधि मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था।
यह आश्चर्यजनक है कि वे हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन, जिन्होंने हिन्दू कोड बिल का जी जान से विरोध किया था, अब इस आधार पर यूसीसी लागू किए जाने की मांग कर रहे हैं कि इससे महिलाओं को न्याय मिलेगा।
जो हिन्दू नेता अपनी महिलाओं को अधिक अधिकार देना नहीं चाहते थे, वे अब मुस्लिम महिलाओं के संरक्षक बनने की कोशिश कर रहे हैं। क्या हम उन पर भरोसा कर सकते हैं?
यूसीसी का अर्थ केवल विभिन्न धर्मों की महिलाओं के समान अधिकार नहीं है।
इसका अर्थ महिलाओं और पुरूषों को बराबर अधिकार देना भी है। महिलाओं और पुरूषों के बीच असमानता की जड़ें, पितृसत्तात्मकता में हैं और हमें पहले पितृसत्तात्मकता से छुटकारा पाना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक महिला अधिकारों को लागू करना असंभव होगा।
भारत में धार्मिक विभिन्नताएं तो हैं ही, एक ही धर्म के मानने वाले विभिन्न समुदायों में भी ढेर सारी विविधताएं हैं। उदाहरणार्थ, आदिवासी समुदायों की अपनी परंपराएं हैं और वे अन्य हिन्दुओं के मुकाबले अपनी महिलाओं को विवाह और तलाक के संबंध में अधिक अधिकार देते हैं। यही कारण है कि आदिवासी महिलाएं अपने अधिकारों को पाने के लिए न्यायालयों की बजाए अपनी सामुदायिक पंचायतों के समक्ष गुहार लगाना बेहतर समझती हैं।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 ने दक्षिण भारत की तारावाड़ और तवाज़ी संयुक्त परिवार व्यवस्थाओं को खत्म कर दिया।
इन संयुक्त परिवारों की मुखिया महिलाएं हुआ करती थीं। ‘संबंधन’ प्रथा के अंतर्गत महिलाएं, विवाह के बाद, अपने पिता के घर में रहती थीं और उनके बच्चों की जाति व तारावाड़ वही हुआ करता था, जो उनका था। नीची जातियों में विवाह एक पवित्र बंधन कम और एक समझौता ज्यादा होता है। इन विवाहों में सप्तपदी और कन्यादान जैसे अनुष्ठानों के लिए कोई जगह नहीं होती। भाजपा इनमें से किन प्रथाओं और परंपराओं को यूसीसी का भाग बनाना चाहेगी?
कुरान में महिलाओं के अधिकारों की व्याख्या की गई है।
चूंकि मुस्लिम कानून के अनुसार विवाह एक संविदा होता है इसलिए एक निकाहनामा तैयार किया जाता है जिस पर पति-पत्नी और गवाहों के हस्ताक्षर होते हैं।
मुस्लिम कानून में महिलाओं को तलाक देने का उतना ही हक है जितना कि पुरूषों को।
विवाह के समय, पति द्वारा मुस्लिम महिलाओं को मेहर की राशि दी जाती है जो केवल महिला की संपत्ति होती है और अगर पति-पत्नी के बीच तलाक हो जाता है, तो इस राशि से महिला कम से कम कुछ समय तक भुखमरी को अपने से दूर रख सकती है।
इन अपेक्षाकृत प्रगतिशील प्रावधानों को देखते हुए, क्या यूसीसी में सभी धार्मिक कानूनों में जो कुछ बेहतर है, उसका समावेश किया जाएगा?
वर्तमान सरकार के बहुसंख्यक समुदाय के प्रति झुकाव को देखते हुए अल्पसंख्यक समुदाय क्या यह भरोसा कर सकता है कि ऐसा होगा?
यह स्पष्ट है कि मुस्लिम महिलाओं के लिए मुंहजबानी तलाक और पति से गुज़ारा भत्ता प्राप्त करना बड़ी समस्याएं बनी हुई हैं। परंतु घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 ने मुस्लिम महिलाओं को गुज़ारा भत्ता पाने का अधिकार दिया है। उसी तरह, डेनियल लतीफी और शमीम आरा जैसे प्रकरणों में न्यायालयों के निर्णय से मुस्लिम पतियों द्वारा मनमाने ढंग से तलाक देने पर कुछ रोक लगी है।
ब्रिटिश सरकार ने देश में यूसीसी लागू करने का प्रयास तो कभी नहीं किया परंतु उसने नए कानून बनाकर कई पारिवारिक कानूनों में सुधार लाने की कोशिश अवश्य की। उदाहरणार्थ, ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 और मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 पारित किया। इन कानूनों के जरिए, सभी मुसलमानों को शरिया कानून के अंतर्गत लाया गया और महिलाओं को तलाक देने का अधिकार दिया गया। उस समय मुस्लिम महिलाओं की तुलना में हिन्दू महिलाओं को नगण्य अधिकार प्राप्त थे।
हिन्दू कानून में आज भी विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता है, जिसे तोड़ा नहीं जा सकता।
इस सोच के कारण महिलाओं को तलाक व गुज़ारा भत्ता प्राप्त करने के अधिकार उपलब्ध नहीं थे और ना ही विधवाओं को उनके पति की सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त था। इस अर्थ में, तत्समय प्रचलित हिन्दू कानून ‘बर्बर’ और पिछड़े थे।
आज प्रचार तंत्र के जरिए ऐसा माहौल बना दिया गया है मानो केवल मुस्लिम पारिवारिक कानून ही महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं और हिन्दू कानून लैंगिक दृष्टि से न्यायपूर्ण हैं।
यूसीसी लागू किए जाने की मांग के पीछे क्या कारण हैं?
दरअसल, यूसीसी का इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को दकियानूसी और पिछड़ा बताने और मुसलमानों की छवि एक ऐसे राष्ट्रविरोधी समुदाय के रूप में प्रचारित करना है, जो भारत के प्रति वफादार नहीं है।
हमें यह समझाने की कोशिश हो रही है कि मुसलमान पुरानी सोच वाले हैं और महिलाओं का सम्मान नहीं करते। यूसीसी की मांग करने वाले, महिलाओं की समानता या लैंगिक न्याय के झंडाबरदार नहीं हैं। वे यह मुद्दा इसलिए उठाते हैं ताकि उनके इस दुष्प्रचार को गति मिल सके कि मुसलमान चार शादियां करते हैं और ढेर सारे बच्चे पैदा करते हैं। यह मुसलमानों का दानवीकरण करने की बड़ी साजिश का हिस्सा है। गौमांस और लव जिहाद के मुद्दे भी इसी उद्देश्य से उछाले जा रहे हैं।
यह दिलचस्प है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कई कांग्रेस नेताओं ने भी अंग्रेज़ों को यह चेतावनी दी थी कि वे हिन्दू कानून के साथ छेड़छाड़ न करें क्योंकि यह धार्मिक मामलो में हस्तक्षेप होगा। तब फिर आज यूसीसी की मांग कैसे की जा सकती है, जबकि वह अन्य धार्मिक समुदायों के सांस्कृतिक अधिकारों का अतिक्रमण करेगी।
इस देश में यदि महिलाओं का दमन होता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है तो इसके पीछे धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक कारक भी हैं।
लैंगिक असमानता समाप्त करने के लिए धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित किसी काननू को पूरी तरह नकार देना उचित नहीं है। यूसीसी लागू करने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी भी होनी चाहिए। मुद्दा यह है कि हमें लैंगिक असमानता और पितृसत्तात्मकता की जड़ों पर प्रहार करना होगा। हमें उस सामाजिक व्यवस्था को बदलना होगा, जिसमें महिलाएं, पुरूषों से हीन समझी जाती हैं। केवल कानून बनाने से महिलाओं को न्याय नहीं मिलेगा। महिलाओं को न्याय और समान अधिकार तभी प्राप्त हो सकते हैं जब पारिवारिक कानूनों से परे, हम सब अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाएं और न्याय के समान मानकों और सिद्धांतों को अपनाएं।
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
(नेहा दाभाड़े, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म में संचालक हैं।)


