वीरेन्द्र यादव

लम्बी बीमारी के बाद अभी विगत दो मार्च को प्रख्यात समाजशास्त्री पूरनचंद जोशी का हमारे बीच न रहना साहित्य और समाजशास्त्रीय अनुशासन के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी का टूट जाना है। आज से लगभग ढाई दशक पूर्व जब पूरनचंद जोशी की पुस्तक ‘परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम’ प्रकाशित हुई थी तो हिन्दी बौद्धिकों के बीच यह एक नयी परिघटना इसलिए थी कि श्यामाचरण दुबे के बाद संभवतः यह पहली बार था कि गैर साहित्यिक अनुशासन से इतर किसी बुद्धिजीवी ने साहित्य और समाजशास्त्र के अंतर्संबंधों पर हिन्दी साहित्य के साक्ष्य द्वारा अपना विमर्श रचा हो। भारतीय सन्दर्भों में प्रेमचंद के ग्राम केन्द्रित लेखन का विश्लेषण करते हुए उन्होंने भारतीय सामाजिक संरचना को समझने की एक नयी दृष्टि की तलाश का उपक्रम किया था। स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में गांधी और प्रेमचंद के बीच अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल और व्याख्या करते हुए उन्होंने ग्रामीण भारत को इस समूचे देश की चेतना का स्रोत बताया था।
दरअसल जिस ‘लखनऊ स्कूल आफ सोशियालोजी’ में जोशी जी की बौद्धिक निर्मिति हुयी थी वह पश्चिमी दृष्टि को प्रश्नांकित करते हुए आधुनिकता की देशज पहचान की कायल अधिक थी।
उल्लेखनीय तथ्य यह है कि पूरनचंद जोशी वैचारिक रूप से एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। लेकिन वे मार्क्सवाद को मानव नियति और सामाजिक रूपांतरण की एक खुली सैद्धान्तिकी और परिघटना के रूप में देखने समझने के कायल थे। जहाँ वे सोवियत क्रांति को मानव इतिहास में श्रम शक्ति की केन्द्रीयता की ऐतिहासिक उपलब्द्धि मानते थे वहीं बाद के दौर में उन्होंने इसकी उस रूढ़िगत सैद्धान्तिक परिणति को प्रश्नांकित भी किया जो ‘विवेकवाद’ और ‘बुद्धिवाद’ की कसौटी पर कही कमतर रह जाती थी। अपनी वैचारिकी में जोशी जी मार्क्सवाद की स्तालिनवादी परिणति को मार्क्सवाद का पर्याय नहीं मानते थे। उनका स्पष्ट कहना था कि स्टालिन मार्क्सवाद की उस बौद्धिक परम्परा से होकर नहीं गुजरे थे जो तर्क, विवेक और बुद्धिवाद में रची बसी थी। सोवियत यूनियन को साम्राज्यवादी दुष्चक्र से बचाने और क्रांति की उपलब्धियों को संजोये रखने के लिए स्टालिन ने विवेक की जगह जिस आस्था का सहारा लिया उसने सोवियत माडल को ‘आयरन कर्टेन’ की जिन परिणतियों तक पहुँचाया वही इसके पतन का कारण बना।
स्टालिन के बारे में उनका कहना था कि स्टालिन ने ईसाई पादरी से कम्युनिस्ट पादरी में व्यक्तित्वांतरण की जो छलांग लगाई वही उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी सीमा थी। लेकिन इसे स्वीकार करते हुए जोशी जी उन कम्युनिस्ट विरोधियों से घोर असहमत थे जो स्टालिनवाद को मार्क्सवाद का पर्याय मानकर समूची मार्क्सवादी सोच को ही ख़ारिज करते थे।
दरअसल पूरनचंद जोशी, मार्क्स के आर्थिक चिंतन और नए समाज के निर्माण के दर्शन को गांधी, नेहरु, टैगोर की भारतीय नजर से भी गुजर कर समझने के पक्षधर थे। इसीलिये जहाँ उन्होंने टैगोर और नेहरू के रूसी यात्रा वृतांत के साक्ष्य से नए बनते सोवियत समाज की शक्ति और सामर्थ्य को पहचाना वहीं प्रो. ध्रुजती प्रसाद मुख़र्जी और कॉ. आशाराम सरीखों के बयानों के माध्यम से उस समाज की सीमा को भी पह्चानने से कोई गुरेज नहीं किया। उनकी पुस्तक ‘यादों से रची यात्रा’ एक उदारवादी कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी का ऐसा आत्मवलोकन है जो उस विगत की बेबाक पड़ताल करता है जो एक साथ ‘दिवास्वप्न’ और ‘दुःस्वप्न’ दोनों ही था। वैचारिक संकट की घड़ी में क्या होता है एक प्रतिबद्ध परिवर्तनकामी बुद्धिजीवी होने का अर्थ पूरनचंद जोशी इस जद्दोजहद से शिद्दत से मुठभेड़ करने में सक्षम थे। वे उन बुद्धिजीवियों में थे जो न तो सिद्धांत को कवच के रूप में धारण करने के कायल थे और न ही असुविधाजनक स्थिति में इसे उतार फेंकने के।
आज जब नवउदारवाद का कवच कुंडल धारण करके पूंजीवाद की वैचारिकी से समूचे मार्क्सवाद का आखेट किया जा रहा है तो ऐसे समय में पूरनचंद जोशी का न होना समूचे प्रगतिशील हिन्दी समाज की निश्चित रूप से एक अपूरणीय क्षति है। वे आज के समय में एक नैतिक बौद्धिक उपस्थिति थे। इस हार्दिक स्मरण के साथ उन्हें अंतिम विदाई।
यह वास्तव में क्षोभकारी है कि प्रख्यात समाजशास्त्री पूरन चंद जोशी के निधन का समाचार हिन्दी -अंगरेजी के किसी समाचार पत्र ने नहीं छापा। दिल्ली के हिन्दी के उस समाचार पत्र ने भी नहीं, जो बात-बात पर प्रगतिशीलों से जवाबदेही का तलबगार रहता है... एक शांत, समर्पित बुद्धिजीवी, जिसका समाजशास्त्र और साहित्य की समाजशास्त्रीय आलोचना में मौलिक योगदान रहा हो और जो दिल्ली की इंस्टीट्यूट आफ इकनामिक ग्रोथ सरीखी संस्था का पूर्व निदेशक रहा हो, के निधन तक का समाचार न दिया जाना आज के समूचे बौद्धिक और मीडिया परिदृश्य पर एक गंभीर और चिंताजनक टिप्पणी है.......सचमुच चीजें तेजी से अधोगति की और जा रही हैं
...यह दृश्य अत्यंत संतप्तकारी है।
वीरेंद्र यादव की फेसबुक वॉल व जनपक्ष से साभार
वीरेन्द्र यादव, लेखक हिन्दी के प्रख्यात आलोचक हैं।