सरकारी स्कूलों का बंद होना सरकार द्वारा राष्ट्रीय आतंकवाद
सरकारी स्कूलों का बंद होना सरकार द्वारा राष्ट्रीय आतंकवाद
बुनियादी शिक्षा का सवाल : सरकारी स्कूलों का बंद होना कहीं सरकार द्वारा राष्ट्रीय आतंकवाद को बढ़ावा देना तो नहीं है
सरकारें राष्ट्रीय आतंकवाद को बढ़ावा दे रही हैं और मंत्रालयों में बैठे सांसद आतंकवाद में लिप्त हैं। यह सुनकर आपके मन में हो सकता है गुस्सा और संदेह पैदा हो कि किन आधारों पर यह बात कही जा रही है। तो यह समझना बेहद जरूरी है आतंकवाद क्या होता है? लोगों के भीतर डर पैदा करना, इतना डर कि जीने के लिए संघर्षरत आदमी आतंकित करने वाले समुदाय या लीडरशिप की शर्तें मानने को मजबूर हो। मुल्क का हर नागरिक जब राज्य की जिम्मेदारी न होते हुए भी राज्य की बातें और नियमों में रहकर इक-इक साँस लेने को बाध्य हो। रोटी रोजगार और रहने की व्यवस्था वैसे तो राज्य की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। मगर राज्य जब अपने कामों से भचक्र निकलने लगे और राज्य की व्यवस्था को अगर निजी हाथों में देने लगे तब सोचिये क्या होगा? जीने का डर, बुनियादी सुविधाएं पाने के लिए अपराधी शीर्ष नेतृत्व की शर्तों को पूरा करने का डर, स्कूली शिक्षा लेने के लिए देशद्रोही और ताकतवर नीतिनिर्माताओं के मुताबिक़ चलने का डर, रोजगार के लिए तानाशाह प्रवृत्ति के प्रचंड लोगों द्वारा परमानेंट नौकरी की बजाय कान्ट्रेक्ट भर्ती के आदेश पर काम करने का भय और श्रम के मुकाबले कम से कमतर मेहनताना देने वाली गलत नीतियों के पीछे भागते रहने का डर आदि।
यह डर किस तबके को होता है? वो तबका, जो जिन्दगी की जरूरी चीजों को जुटाने के लिए और ठीक-ठाक तरीके से जीने के लिए सरकारी नौकरी पाने को तमाम दिक्कतों में रहते हुए जी-जान से तैयारी करता है। राज्य द्वारा संचालित सरकारी स्कूलों में पढकर बड़ा हुआ है। यही डर उस तबके को क्यों नहीं होता जिसके पास अथाह सम्पत्ति, गलत तरीके से जुटाए गये संसाधन और सरकारी सुरक्षा की कमी नहीं है। मतलब साफ़ है ताकतवर हुकूमतें कमजोर को ही सताती है, कमजोर को ही दबाती है। इतना डर पैदा करती हैं कि वह तबका जिसे दबाया सताया जा रहा है, वो बिना किसी विरोध के, जो चीजें सरकार उन्हें मुहैया करवाने का झूठा प्रलोभन देने का वायदा कर रही है, गैर-पढा लिखा समुदाय, किसान, मजदूर और निचला तबका ऐसी बातों पर बिना सोचे भरोसा कर ले। इन सुविधाओं को पाने के एवज में यह लोग वो सारे काम करे जिसे सरकार अपने निजी मुनाफे के लिए उनसे करवाना चाहती है। इन सुविधाओं को लेने के लिए उन्हें स्वीकृति में अपना कीमती श्रम और जमीनें तरक्की के लिए दान दें। यहाँ असहमति की कोई गुंजाइश नहीं और सहमति में ही इन लोगों की भलाई है।
जीने के लिए जब देश की सरकार प्राथमिक शिक्षा केन्द्रों को बड़ी संख्या में बंद करने की घोषणा करे और 5 लाख से अधिक खाली पड़े शिक्षक पदों को निरस्त कर दे। तब क्या स्थितियाँ पनपेंगी? सरकार राष्ट्रीय आतंकवाद की जमीन तैयार करने के लिए हर मुमकिन कोशिश करने में लगी हुई है। आम आदमी कैसे सरकार के इस केन्द्रीय आतंकवादी प्रशिक्षण नीति से मुक्त हो सकती है? ऐसे में मुल्क में आतंकवाद नहीं तो और क्या पनपेगा? आर्थिक रूप से कमजोर और निचले तबके को अगर बुनियादी शिक्षा से ही महरूम कर दिया जाएगा तो वह आखिर क्या करेगा? चोरी करेगा, छिनैती करेगा, हत्याएं करेगा, जीने की सहूलियतें पाने के लिए भय और आतंक के रास्ते पर जाने को मजबूर होगा।
एक अध्यापक यहीं पर जरूरी भूमिका निभाता है। वह बच्चों को बुरे रास्ते पर जाने से रोकता है। उन्हें बेहतर इंसान बनने के लिए नैतिक शिक्षा और जरूरी वातावरण देता है। अध्यापक भावी पीढ़ी और देश के भविष्य को बनाने में मजबूत रीढ़ का काम करता है। देश और समाज के विकास में उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह बच्चों को बताता है कि बुराई और अच्छाई में क्या फर्क है। मगर सरकार का रवैया इससे बिलकुल इतर है, न रहेंगे सरकारी स्कूल, न होगी अच्छाई बुराई की परख। न गरीब तबके के बच्चे पढेंगे और न ही उन्हें सरकार और समाज में ऊँचा ओहदा मिलेगा। न ही वे देश के विकास और समाज के सुधार के लिए सरकार की नीतियों के बीच कोई बात करने में सक्षम होंगे। जाहिर है यह सब सरकारें बिना सोचे समझे तो हरगिज नहीं कर सकती। यह आभाष होता है कि सरकार को कमजोर और निचले तबके से ख़ास कोफ़्त है। वह नहीं चाहती कि गरीब इस मुल्क में एक अच्छा जीवन जियें। सरकार उन्हें अपराधी बनाने के लिए माहोल तैयार कर रही है। मगर सोचने वाली बात है कि इसकी जरूरत क्यों है?
एक तरफ कर्जदार देशी कम्पनियां देश में कोढ़ की तरह फैलती जा रही हैं जिन पर 161 अरब डालर का विदेशी कर्ज है। यह प्रतिशत हर वर्ष तेजी से बढ़ रहा है। फिलहाल प्रतिवर्ष 15 प्रतिशत की दर से यह कर्ज बढ़ चुका है। ये वो कम्पनियां हैं जिन्हें देश के पढ़े लिखे मध्यवर्गीय तबके से मेहनत करवाने के एवज में दिहाड़ी देना मंजूर है। ये वर्ग अपने बच्चों को जीवन भर की पूंजी लगाकर मंहगे से महंगे स्कूलों में दाखिला दिलवाता है। फिर उनके भविष्य को बचाने के लिए इन कंपनियों के भरोसे उनके युवा रचनात्मक ऊर्जा को उत्पादन के लिए अथाह मुनाफे कमाने वाली कंपनियों के हवाले झोंक देता है। चार-छः सालों में युवा अपने तजुर्बे और अथक कौशल के बावजूद संघर्ष करता है कि वह पूरी जिन्दगी खुशहाल और कम्पनी की हिफाजत में बिता सके। उसे कंपनी दर कम्पनी साक्षात्कार देते और थोड़े समय तक काम करते हुए उसके पूरे जीवन को एक असंतोष और भटकाव के लिए छोड़ दिया जाता है। इस पर भी हद यह है कि समय-समय पर उसे आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ता है। परमानेंट नौकरी देने के नाम पर इन कंपनियों में नियमों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। प्रमोशन और काम का समय तय करने में खूब कोताही बरती जा रही है। कर्मचारियों को बुनियादी सुविधाएं न देनी पड़े इसके लिए इन्हें कॉन्ट्रेक्ट पर रखना कम्पनी के मुनाफे को कई गुना बढ़ा देता है। यह कम्पनी के अथाह मुनाफे का गणित है और मेहनतकश तबके शोषण का विज्ञान है।
इन कंपनियों में काम के घंटों और भविष्य की सुरक्षा का भी कोई परमानेंट फार्मूला नहीं है। प्रोडक्ट तैयार करने और क्लाइंट को समय पर देने की शर्त इतनी कड़ी होती है कि हर रोज़ मेहनतकश युवकों को टार्गेट पूरा करने के लिए विशेष दबाव बनाया जाता है। प्रलोभन देने की बात कही जाती है। अवकाश के लिए कोई जगह समय-सीमा निर्धारित नहीं है। और इस बहाने कम से कम समय और अधिक से अधिक मेहनत से आवश्यकता से अधिक उत्पादन करके कंपनी मुनाफे के स्तर को कई गुना बढ़ा लेती हैं जबकि कर्मचारियों को तय किये गये मूल्य पर ही गुजारा करना पड़ता है। इन कंपनियों में साल भर पदों की भर्तियाँ निकलती हैं और साल भर तक युवकों का साक्षात्कार चलता है बावजूद इसके न ही कभी कम्पनी के पद पूरी तरह भरे होते हैं और न ही कभी ये साक्षात्कार बंद होते हैं।
यह झोल पूर्ण रवैया सरकार के द्वारा चलाई जा रही निजीकरण की नीति को बढ़ावा देने का नतीजा है। युवा वर्ग न चाहते हुए भी इनमें काम करने को विवश है।
अधिकांशतः होता यह रहा है कि सरकारी स्कूलों में पढने वाले छात्र सरकारी नौकरी पाना चाहते हैं ताकि जिन्दगी को सुकून से जिया जा सके। संविधान और राज्य के अधीन रहकर भविष्य को सुरक्षित रखा जा सके। मगर क्रूर सरकारें अब ऐसा नहीं चाहतीं। एक तरफ सरकारी स्कूल बड़ी संख्या में बंद किये जा रहे हैं। फिलहाल ६५ हजार स्कूलों के बंद होने की बात सामने आई है। दूसरी तरफ सरकारी नौकरियों को लगातार घटाया जा रहा है। इसी के बरक्स निजी स्कूलों में बढ़ोतरी हो रही है और निजी कंपनियों को नये पढ़े लिखे युवा दिहाड़ी में काम करने के लिए तैयार किये जा रहे हैं। यहाँ न तो भविष्य स्थायी है और न ही जिन्दगी और मेहनताना। ये ऐसे युवा हैं जो खुद असुरक्षित वातावरण में जीने के लिए मजबूर हैं और देश इस बहाने असुरक्षा के दायरे में ले जाया जा रहा है। सरकारों को निजी स्कूल खोलने वाले संस्थान के मालिक मोटी रकम देकर अपने लिए जगह तलाशते हैं और महंगी फीसें लेकर मध्य वर्ग और कमजोर आर्थिक तबके के मासिक मेहनताने से अपनी जेबें भरने में मशगूल हैं। सरकारें उनकी मदद करने में कोई कसार नहीं छोड़ रही हैं। इसके एवज में सरकार में बैठे रिश्वतखोर सांसदों को इतनी रकम निजी स्कूलों को जमीन मुहैया करवाने के लिए दी जाती है कि वे अपने लिए हर सुविधा और ऐयाशी के साधन आसानी से जुटा सके। ऐसे में मुल्क को खतरे में जानबूझकर ले जाया जा रहा है।
बुनियादी शिक्षा के सवाल पर जब राज्य साफ़ तौर पर हाथ झाड़ ले तब यह तरीका सरकारी स्कूलों का बंद होना सरकार द्वारा निजीकरण को बढावा देता राष्ट्रीय आतंकवाद है। इसे समझने की जरूरत है। कि सरकार एक ख़ास आर्थिक रूप से कमजोर तबके को शिक्षा से वंचित रखने के पीछे क्या मकसद है? क्या सरकार बड़ी कंपनियों के लिए बड़ी मात्रा में और सस्ती कीमतों पर सुरक्षागार्डों की भर्ती का रास्ता खोल रही है। ये कमजोर तबके आखिर शिक्षा और आर्थिक रूप से कमजोर होने पर क्या करेंगे? निजीकरण के दायरे में खुले संस्थानों में और कंपनियों में बड़े मुनाफे कमाने वाली कंपनियों के गार्ड बनकर काम करेंगे। मॉल में 12 घंटे खड़े रहकर बिना किसी सहूलियत के सामान बेचने का काम करेंगे। निजी एटीएम और निजी बैंकों के बाहर खड़े रहकर हिफाजत करने का काम करेंगे। पिज्जाहट, डोमिनोज के लिए सबसे तेज बाइक चलाकर 20 मिनट में 10 किलोमीटर के दायरे में जान जोखिम में डालकर पिज्जा पहुंचाने का काम करेंगे। बड़े-बड़े शापिंग सेंटर और बड़े शोरूम में बड़ी कंपनियों का उत्पाद के स्टाल में खड़े रहकर सामन समेटने और और ग्राहक को सामन दिखाने का काम करेंगे। इसके बदले में इन्हें क्या मिलेगा? ढाई से पांच हजार रूपये महीना। जिस खर्चे से वे अपने अकेले का खर्च नहीं चला सकते परिवार के स्वास्थ्य शिक्षा और सुरक्षा के बारे में भला कैसे सोच सकते हैं।
जिस देश में सांसदों की तनख्वाह एकमुश्त 45 हजार रूपये प्रतिमाह बढाने में कोई बाधा न आये और 2011 में 72 हज़ार स्कूल टीचर्स की भर्ती पर लगातार कोर्ट के चक्कर काटने पड़ें फिर भी 2015 तक इस पर पूरी तरह अमल न किया जा सके। और अंततः यह दिशानिर्देश जारी किये जाएँ कि बड़ी मात्र में सरकारी स्कूल बंद किये जा रहे हैं तब क्या यह आम नागरिकों के लिए और सरकारी तबके के बीच यह देखना होगा कि इतना भेदभाव पूर्ण व्यवहार सरकारें किन कारणों से कर रही हैं। इसके पीछे सरकार की मंशा क्या है? जिस देश में सर्वशिक्षा अभियान चल रहा हो, आंगनबाड़ी की स्कीम लागू हो, प्राइमरी अध्यापक और सहायक अध्यापकों की बड़ी मात्र में जरूरत हो, महिला अध्यापिकाओं की बड़े पैमाने पर कमी हो। 35 प्रतिशत आबादी बुनियादी शिक्षा से अछूती हो। तब कई तरह के सवाल मन में अनेकों संदेह पैदा करते हैं। वो कौन से कारक हैं जो इस नीति के पीछे काम कर रहे हैं?
दरअसल ये है सरकार के द्वारा फैलाए जा रहे निजीकरण का भ्रामक और खतरनाक सच। जिसमें घुटता हुआ गरीब और कमजोर तबका मजबूरन अपने लिए जीने के संसाधन जुटाने में पूरी तरह असमर्थ है। सरकारें सस्ती दरों पर श्रम मुहैया करवाते हुए विदेशी बड़े कारोबारियों को मुनाफे के लिए रेड कारपेट बिछा चुकी हैं। आमंत्रित कर चुकी हैं। इसे देखते हुए कह सकते हैं भविष्य में आने वाले नतीजे बेहद घातक हैं। सोचिये जब श्रम और समय देकर भी जब आम आदमी बुनियादी सुविधाएं जुटा न सके तब वह क्या करेगा? जाहिर है तब वह नागरिक राष्ट्रीय सुरक्षा और सम्पत्ति और राष्ट्र के नागरिकों को नुकसान पहुंचाने वाली सरकार का साथ देते हुए राष्ट्रीय आतंवाद को बढ़ावा देगा, अपराध करेगा। और समाज को बेहतर बनाने की बजाय भय और खतरे पैदा करने में अपनी भूमिका अदा करेगा। और अगर यह सब कुछ सरकार की मर्जी और शह पर ही संभव हो। तब देखना होगा कि सरकार कहीं राष्ट्रीय आतंकवाद को कहीं बढ़ावा तो नहीं दे रही है।
डॉ. अनिल पुष्कर


